- कुमार नयन
जब DIG मनोज शर्मा साहब की किताब “12th Fail” पढ़ी थी तभी यह ख़्याल आया था कि कभी इस पर फ़िल्म बने तो क्या यह कहानी के अनुसार यह पास होगी या फेल? विश्वास कीजिए यह बिल्कुल IPS की परीक्षा पास होने जितना ही शानदार बनी है, अवश्य ही देखने लायक़.
श्रद्धा मैम और मनोज सर की प्रेम कहानी मुखर्जी नगर के साधारण कूल डूडने-डूडनियों की कहानी नहीं है. यह तो वह भाव है जहाँ एक पार्टनर ने दूसरे पर भरोसा किया तो जम कर किया, साथ दिया तो जम कर दिया और अंत में यह भी यकीन दिलाया कि चाहे परिणाम कुछ हो, हम साथ हैं और रहेंगे. और जब ऐसा प्यारा और मोटिवेशन से लबरेज साथ मिले तो साथी सच में “दुनिया पलट दे.”
UPSC ना पास करने से निराशा तो ज़रूर होती है लेकिन आप अन्य अभ्यर्थियों के लिए आगे की राह भी तो आसान बना सकते हैं, अपने अनुभव के सहारे. आख़िर सभी तो अधिकारी नहीं बनते, तो आख़िर आगे के साधनहीन बच्चों की सहायता भी की जा सकती है ताकि आप अपना सपना उनकी आँखों से सच होते देखें. भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम होनी चाहिए, ना कि चुनाव की ज़रूरी शर्त. इसे मनोज सर के अंत के इंटरव्यू में बेहतरीन तरीके से समझाया गया है और इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों को चेयरमैन की मानसिकता से भी.
यूँ तो यू ट्यूब और अमेजॉन प्राइम पर अभी “एस्पिरेंट्स” वेब सीरीज के ख़ूब चर्चे हैं, पर वहाँ एक अलग़ कहानी है और यहाँ बिल्कुल अलग़. यहाँ पारिवारिक संघर्षों की दास्ताँ को बख़ूबी दर्शाया गया है, अभ्यर्थी के जीवनशैली का ऐसा मार्मिक चित्रण है कि कई बार आँखें नम होती हैं. UPSC जैसी परीक्षा से बिल्कुल ही अनजान इंसान जो बाद में इसे क्रैक करता है, इसकी उम्दा कहानी है. विधु विनोद चोपड़ा साहब को इसके लिए साधुवाद और बधाई.
विक्रांत मैसी की यह सर्वश्रेष्ठ भूमिका लगी मुझे. “मिर्जापुर” और “क्रिमिनल जस्टिस” से भी बढ़िया. छोटी-छोटी चीजों पर की गई उनकी मेहनत साफ दिखती है. हरेक कलाकार की तारीफ़ करनी होगी.
मुझे मज़ा आया उस दृश्य में जहाँ अंशुमन पुष्कर अपनी चाय की दुकान खोलते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि उस दुकान पर न जाने कितनी ही बार मैंने चाय पी है और आज भी जब कभी बत्रा पर जाना हुआ तो वहीं चाय पीता हूँ. द बुक शॉप से जाने कितनी किताबें खरीदी गईं और उनके मालिक जो स्वयं कभी UPSC अभ्यर्थी रहे थे, उनका दोस्ताना रवैया अभी भी याद है. आज भी देखते ही पहचानते हैं शैलेश भैया.
इंटरवल के बाद बैक टू बैक ऐसे-ऐसे दृश्य हैं कि क्या ही कहा जाए! बस देख के अनुभव करने वाली बात है. जब मनोज सर अपने गाँव जाते हैं और दादी की सूचना मिलती है उसके बाद बालों में तेल लगाने वाला दृश्य हो या उनके पिताजी का उनके पास दिल्ली आने वाला दृश्य हो या कि फिर श्रद्धा मैम वाला दृश्य; हर बार अपने भीतर कहीं कुछ दरकता हुआ सा महसूस होता है. परिणाम घोषित होने के समय बैकग्राउंड म्यूजिक गूजबम्पर है. बेमिसाल कलाकारी के दम पर यह एक अविस्मरणीय दृश्य बन जाता है. अंत में मनोज सर का दुष्यंत सर के पास जाना और उनके चरण स्पर्श कर अपने बारे में याद दिलाना भी भावुक करता है.
प्रसिद्ध “दृष्टि” कोचिंग के निदेशक विकास दिव्यकीर्ति सर के कुल जमा तीन दृश्यों में उन्हें देखना सुहाता है, मानो हम ख़ुद कोचिंग में ही बैठे हुए हैं. वैसे उनकी तो लाइट-कैमरे से पुरानी जान-पहचान है. इसी बहाने “दृष्टि” का प्रचार-प्रसार अच्छा-ख़ासा हो जाएगा.
सभी कलाक़ारों का अभिनय बहुत बढ़िया है. अंशुमन पुष्कर के बाद “तुम बिन” फेम प्रियांशु चटर्जी सर को देखना बहुत सुखद रहा. मनोज सर अपने जीवन में इनसे प्रभावित हुए और यहाँ यह सीखने लायक़ है कि कैसे प्राधिकार प्राप्त एक अधिकारी अपने आस-पड़ोस की दुनिया बदलने में महती भूमिका निभाता है. उनका उठाया एक भी कदम ऐसी छाप छोड़ जाता है जो अमिट होता है.
आप कैसे भी हों, किसी भी बैकग्राउंड से हों, शिक्षा चाहे जैसी भी रही हो, अगर परिवार साथ खड़ा है, साथी साथ है और चंद निःस्वार्थ यार साथ हैं तो आप UPSC क्या बल्कि दुनिया की किसी भी परिस्थिति का सामना करने की हिम्मत और हौसला रखते हैं. ऐसी कहानियाँ बारम्बार यह मिथक तोड़ती हैं कि “मनुष्य परिस्थितियों का दास है.” अगर आपने कभी मुख़र्जी नगर या राजेंद्र नगर (करोल बाग) में रहकर इस जीवन को जिया है तो यह मूवी आपको अपनी सी ही लगेगी. यदि नहीं, तो भी इसे देखना अवश्य बनता है.
यूँ भी कहा जाता है कि अगर किसी बच्चे को बेहतर इंसान बनाना है तो उसे जीवन में एक बार UPSC की तैयारी गंभीरतापूर्वक अवश्य करनी चाहिए. परीक्षा पास ना भी हो सकें तो जीवन विकल्पों से भरा होगा. असमंजस की स्थिति नहीं बनेगी. शायद इसीलिए तो हर साल लाखों में से कुछ सौ का चुनाव होने के बाद भी बचे हुए लाखों ने अपनी ज़िंदगी अपने दम पर संवारी है और एक सफल ज़िंदगी जी रहे हैं. शायद इसीलिए मनोज सर ने इंटरव्यू पैनल को ज़वाब दिया होगा कि अंतिम प्रयास में भी फेल होने पर वह गाँव जाकर टीचर बनेंगे और बच्चों को वह शिक्षा देने का प्रयास करेंगे जो वर्तमान में भी एक महत्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है.
ऐसी मूवीस साल-दर-साल बनती रहनी चाहिए. कोरोना काल ने जिस तरह जनमानस में निराशावाद का संचार किया है, उसे हटाने में ऐसी कमाल की प्रेरणादायक कहानियाँ आगे आनी ही चाहिए. “तुमसे ना हो पाएगा” को अपने लिए आदर्श वाक्य बनाकर सफलता पाने वाले असंख्य जिजीविषापूर्ण लोगों ने समाज और देश को बदलने में अग्रणी भूमिका निभाई है. उन्होंने सर्वदा यही आत्मसात किया कि मैं सही हूँ तो हूँ, फिर चाहे जो स्थिति रहे, मैं तो सच ही कहूँगा और सच को ही जियूँगा. सैकड़ों कहानियाँ इस इंतज़ार में अभी तक पड़ी हुई हैं.