बीजू खोटे (Viju Khote) : हिंदी सिनेमा का विस्मृत चेहरा (3)
1 min readयह एक शानदार इंसान और बेहतरीन अभिनेता की कहानी है. वह ऐसे अभिनेता थे, जिनके चार सौ से अधिक के फिल्मी यात्रा में दो संवाद ऐसे रहे जिससे उनकी याद हमेशा से पीढ़ियों के दर्शकों में रह गयी है. कालजयी फ़िल्म ‘शोले’ में गब्बर के सामने घिघियाकर कहना ‘सरदार मैंने आपका नमक खाया है’ और ‘अंदाज़ अपना अपना’ में ‘गलती से मिस्टेक हो गया’ की अदायगी उनके पूरे अभिनय शैली का मुरीद बना गयी. 17 दिसंबर,1941 को मुम्बई के एक फिल्मी परिवार में जन्में विजय खोटे उर्फ बीजू खोटे, आमतौर पर शोले के कालिया और अंदाज अपना अपना के रॉबर्ट के रूपमे अधिक चर्चित हुए. उनके पिता नंदू खोटे मराठी रंगमंच और सिनेमा के मूक फिल्मों के दौर के मशहूर अभिनेता थे. नंदू खोटे थियेटर में बतौर लेखक, अभिनेता, निर्देशक स्थापित नाम थे. यही नहीं उनकी बड़ी बहन शोभा खोटे और बुआ दुर्गा खोटे भी सिनेमा जगत की चर्चित अभिनेत्रियों में शुमार रही हैं.
सिनेमा जगत में अजातशत्रु चरित्र अभिनेताओं में गिने जाने वाले बीजू खोटे की अमजद खान के गाढ़ी मित्रता थी. कहते हैं रमेश सिप्पी ने बीजू खोटे को शोले में कालिया का किरदार अमजद खान के कहने पर ही दिया था और उस छोटे से किरदार और उसमें भी केवल संवाद का दृश्य उनको सिनेमाई इतिहास की तारीखों में दर्ज कर गया. उस दृश्य का असर ऐसा हुआ कि आम जिंदगी में भी दर्शक उनको असल नाम नहीं बल्कि कालिया कहकर ही बुलाते थे. इस फ़िल्म के बाद ही उनके चाहने वाले उनको बड़ी फिल्मों में एक हिट डायलॉग हीरो कहने लगे थे. लेकिन फिल्मी बैकग्राउंड से आने वाले बीजू खोटे कभी इस क्षेत्र में नहीं आना चाहते थे, जबकि पिता और बुआ के अलावा उनकी बड़ी बहन की महमूद के साथ कई फिल्मों में जोड़ी मशहूर थी. पिता की इच्छा थी कि बेटा एक्टर बने और इसकी शुरुआत फणी मजूमदार के एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट से हुई भी थी लेकिन बीजू खोटे को प्रिंटिंग प्रेस में मन लग रहा था. हालांकि यह काम भी कुछ खास नहीं चला और उनके एक और खास दोस्त मनमोहन देसाई ने , जो कि उस समय के बड़े व्यस्ततम निर्देशकों में से थे, ने उनको अपनी फिल्म ‘सच्चा झूठा’ में खलनायक के रूप में पेश किया. मराठी में उनका काम तो शुरू हो गया था और मराठी में उनके पिता के निर्देशन में ही ‘यामालक’ से उनकी एंट्री भी हो चुकी थी पर हिंदी में भी ‘सच्चा झूठा’ से पहले ही टी एल वी प्रसाद की ‘ जीने की राह ‘ से बीजू खोटे ने अपनी काबिलियत का परिचय दे दिया था. पिता की इच्छा ही अब उनका पेशा बनी. फिल्मी परिवार के लड़के ने विरासत का काम ही अपनाया.
हिंदी में बतौर चरित्र अभिनेता उनका कैरियर बेहद लंबा है . 1969 से 2019 तक की अभिनय यात्रा में उन्होंने सिनेमा की कई जेनरेशन के साथ काम किया लेकिन अभिनय का पुरस्कार उनको मराठी सिनेमा ‘उत्तरायन’के लिए मिला . उनको इस फ़िल्म के लिए महाराष्ट्र सरकार की ओर से बेस्ट सपोर्टिंग अभिनेता का पुरस्कार मिला. सिनेमा के अतिरिक्त उनको टेलीविजन पर ‘ज़बान संभाल के’, ‘अफलातून’ और ‘करमचंद’ के लिए भी याद किया जाता है. छोटे पर्दे पर ये सब उनके बेहद चर्चित शो रहे हैं. पर्दे पर उनकी उपस्थिति खुशनुमा हुआ करती थीं. एक सहज मासूमियत वाले इस अभिनेता की अभिनय यात्रा में विलेन के खास गुंडे,पुलिस ऑफिसर और अधिकतर कॉमेडी में ही रहे पर कॉमेडी में इनका रंग खूब जमा. 1969 से जो यात्रा शुरू हुई थी उनका अंत हार्दिक की फ़िल्म ‘कामयाब’ (रिलीज 2020)पर जाकर हुआ. कामयाब वैसे तो संजय मिश्रा की फ़िल्म कही जाती है पर वह सिनेमा हिंदी सिनेमा के ऐसे ही बाकमाल जरूरी उपस्थितियों पर है जिनका काम सिनेमा के स्वाद में बढ़ोतरी करना भर रहा. हार्दिक ने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी है कि उनकी फिल्म में अधिकतर मटेरियल बीजू खोटे से ही मिला और यह फ़िल्म भी उन्होंने बीजू खोटे को ध्यान में रखकर ही बनाई है. कामयाब बीजू खोटे को समर्पित है और यही उनकी अभिनय यात्रा का अंतिम पड़ाव भी पर हिंदी सिनेमा के चरित्र अभिनेताओं के इतिहास का वह सबसे जगमगाता चेहरा हैं .
इफ्तेखार (Iftekhar) : हिंदी सिनेमा का विस्मृत चेहरा (2)
भले उनका जिस्म अब हमारे बीच नहीं रहा पर उनके किरदार कई पीढ़ियों का मनोरंजन करते रहे हैं करते रहेंगे. वैसे भी साहिर से सही तो लिखा है कि ‘जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है/जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते’- तारीख 30 सितंबर,2019 को बीजू खोटे जिंदगी का किरदार निभाकर एक्जिट ले गए. बीजू खोटे चले गए पर यह बता गए कि नमक खाने के बावजूद भी गोली मिल सकती है क्योंकि गलती से मिस्टेक तो किसी के साथ भीहो सकता. चरित्र अभिनेताओं का किरदार है, जिंदगी है, जीना है, एक्जिट लेना है और उनकी ही फ़िल्म के मुख्य किरदार का एक संवाद है ‘ …और ऑप्शन ही क्या है?
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