सुधीर को सबने अलग से नोटिस नहीं किया होगा पर वह अपने ढंग से वह सबके यादों में बस गए. थोड़ी सी दिमागी खुरचन साफ करने पर सुधीर का चेहरा साफ दिखने लगेगा. कहने का मानी यह कि उनका नाम बेशक किसी को न मालूम हो उनकी शक्ल सबको याद होगी. पर फिर भी वह ढंग से याद किसी होंगे इसमें शक है.
चलिए इस बहस को जाने देते हैं और आते है मुद्दे पर – सुधीर को थोड़ा नोटिस आपने शायद तब किया होगा जब वह जयचंद बनकर डावर सेठ के साथ रेसकोर्स जाते समय एक खास जगह पर छुटकु विजय से बूट पोलिश करवाते हैं. सिक्के फेंक कर देने के बाद का अमिताभ के बचपन के किरदार का वह ऐतिहासिक डायलॉग ‘मैं आज भी फेंके हुए सिक्के नहीं उठाता’ – आया था. अमा! ‘दीवार’ यार. भगवान दास लुथरिया उर्फ सुधीर हिंदी सिनेमा में हीरो बनने आये थे पर बन गए साइडकिक. सुधीर का असल नाम था भगवान दास लूथरिया. 1961 की फ़िल्म “उम्रकैद” में वह नाजिमा, हेलेन और मोहन चोटी के साथ थे. इसका एक गीत “मुझे रात दिन ये ख्याल है/ वो नज़र से मुझको गिरा न दे/मेरी ज़िंदगी का दिया कहीं मेरी ज़िंदगी का दिया कहीं…” खासा चर्चित रहा है. वह मुमताज़ के साथ भी अपना घर अपनी कहानी में पर्दे पर आए थे, जिसका एक गीत बेहद चर्चित है “जिगर में दर्द कैसा, इसको उल्फत तो नहीं कहते”. यदि फिर भी सुधीर आपको याद नहीं तो लंबी कलमों, सीने के खुले बटन, अधिकतर फ्लोरल प्रिंट के शर्ट्स, उंगलियों में सिगार या सिगरेट, अंग्रेजी अदा से हिंदी बोलने वाले, लंबी लटकन मूंछों वाले एक्टर के हिस्से की सबसे खूबसूरत ग़ज़ल की ओर इशारा कर देता हूँ. 1964 की फ़िल्म “हकीकत”थी तो मल्टीस्टारर युद्ध केंद्रित विषय पर बनी फ़िल्म पर इसमें सुधीर का एक गीत रफी की मखमली आवाज़ में रूहानी खुमारी लिए पूरे पर्दे पर से गुजरता दर्शकों के कानों से होता कलेजे में आकर टिकता है – “मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था/कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझको…”- यह गीत सुधीर पर ही फिल्माया गया था.
माया नगरी है. ग्रेटेस्ट शोमैन राजकपूर ने ज्ञान दिया है – ये दुनिया सर्कस है यहाँ हीरो को जोकर बन जाना पड़ता है ऐ भाई…. हाल ही में हमारे समय के बाबा अभिनेता संजय मिश्रा की आने वाली फिल्म “कामयाब” आयी थी . वह सुधीर पर बेस्ड है या नहीं पर सुधीर का नाम टीजर में दिखते ही मेरे जेहन से यह अभिनेता गुजर जाता है. संजय मिश्रा के निभाये इस किरदार के साथ हीं बचपन से टीनएज तक के सुनहरे दौर के उन तमाम साइड किक्स विजू खोटे, बीरबल, मोहन चोटी, भगवान दादा, मैक मोहन आदि तमाम ऐसे कलाकारों के लिए के चेहरे घूम जाते हैं, जो लोकप्रिय तो कभी नहीं हुए पर सिनेमा की फसल में सीजनल और जरूरी खाद की तरह जहां-तहाँ पसरे हुए हैं. एक इमारत की नींव में कई तरह के पत्थर होते हैं. लोग इमारतों को याद रखते हैं, नींव के पत्थर अलक्षित रह जाते हैं. हालांकि नींव के इन्हीं पत्थरों से भी सिनेमा की दुनिया की रंगीन इमारत खड़ी हुई है. नींव के गुमनाम मिट्टी में दबे रहते हैं, इन सब नींव के छोटे-छोटे जरूरी पत्थरों की सुंदर कथा का एक नाम सुधीर का है. इन सबकी कहानी अभी कही जानी है. वैसे सुधीर के हिस्से की एक और याद, आपको सत्ते पे सत्ता याद है कि नहीं …अरे भाई, अमिताभ के उन छोटे भाइयों में एक किरदार सुधीर का भी था . अब भी याद नहीं आया तो शाहरुख खान का बादशाह ही याद कर लो…क्या बोले याद नहीं आ रहा!!! आप अगर इन सबसे हिंट्स से भी सुधीर को नहीं जान पा रहे तो यकीन जानिए आपका हिंदी सिनेमा देखना पाप है. खासकर सत्तर वाले दशक का सिनेमा. क्योंकि आप हिंदी सिनेमा का सबसे बड़े मैलोड्रामेटिक, चमकौवा, झमकौवा युग के इस जरूरी चेहरे को नहीं जानते तो लानत है सिनेमची होने पर. सुधीर अमिताभ के स्टारडम के दिनों की फिल्मों का लगभग अनिवार्य हिस्सा थे.
चलते-चलते, सुधीर जीवन मे अकेले रहे, घुड़दौड़ में बाजी लगाने के शौकीन भी रहे खूब जीते, पैसे बनाये, सुरा सिगरेट का शौक भी रहा, अंत में साल 2014 में जब वह विदा हुए अगल बगल बिना किसी के, रह गयी पीछे कमाई हुई दौलत. सुधीर का फलसफा भी तो यही था, दौलत सच्चा प्यार नहीं खरीद सकती इसलिए वह किसी के लिए क्या छोड़कर जाएंगे. सुधीर ताउम्र कमाते रहे और सिगरेट शराब में डूब जीवन जीते रहे, एक कामयाब कैरियर के अलावा व्यक्तिगत जीवन में कुछ ढंग का कभी रहा नहीं जिसे सुखद कहा जा सकता था सो और ऑप्शन ही क्या था..बस enjoying life”.
पता नहीं चला कब चल बसा ये कलाकार! अपने हिस्से का विलेन का छाप तो छोड़ ही गया! अलविदा 🙏! कमाल के गंवइ नज़र और शहरी समझ रखने वाले क्रिटिक्स ही ऐसे पत्थर के साथ न्याय कर सकते है! अच्छा लगा ऐसे इंसान कि अच्छाई पढ कर जिन्हें बचपन मे हम विलेन बुरा आदमी समझ कर भुल जाना चाहते!
ऐसे ही लिखते रहीए लोगो को याद दिलाते रहिए कि ऐसे होते है कलाकार!
Thank You 💐