- गौरव
कहते हैं कला की साधना ही इस क्षेत्र में पारंगत होने की पहली शर्त होती है, यहां कोई शॉर्ट कट नहीं चलता. शार्ट कट के जरिये आप शायद इस फ ील्ड में इंट्री तो ले लें पर Success कठिन परिश्रम और लगन के बगैर कतई मुमकिन नहीं. कुछ ऐसी ही सोच है अभिनेता अतुल श्रीवास्तव की, जिनका चेहरा अब किसी परिचय का मुंहताज नहीं. दूरदर्शन के दिनों से लेकर डिजिटल क्रांति तक 10 साल थिएटर को देने और तकरीबन 115 सीरियल के अथाह अनुभव के साथ सिनेमा के परदे पर आये अतुल श्रीवास्तव आज सिनेमा की दुनिया के एक जरूरी किरदार बन चुके है. फिर बात चाहे मुन्ना भाई सीरीज के फिल्मों की हो, गुलाब गैंग या बजरंगी भाईजान की हो, टॉयलेट एक प्रेम कथा, स्त्री, बत्ती गुल मीटर चालु या फिर लुका-छिपी जैसी फिल्मों की, हर जगह अतुल जी की उपस्थिति दर्शकों की आँखों को एक अलग ठंडक का एहसास करा जाती है. वो खुद भी कहते हैं “बेहतर काम करने के लिए हर बार कुछ नया करने की जरूरत नहीं होती, बल्कि उसी काम को अलग-अलग तरीके से करने की जरूरत होती है. एक ही किरदार को जो दस अलग-अलग तरह का अमलीजामा पहना जाए वही असली एक्टर है.” फिल्मेनिया से बतकही के दौरान अतुल जी ने अपनी इसी सोच, मेहनत, वर्षों के सफर और कामयाबी की कहानी को बेबाकी से साझा किया.
– अभिनय से शुरुआत करते हैं. कब लगा अभिनय ही आखिरी पड़ाव होना है?
– बचपन से ये सोच थी कि कुछ ऐसा करना है जिससे बड़ा नाम हो, लोगों में पहचान बने. लखनऊ जैसे शहर से था तो बचपन से हॉकी का शौक था. नेशनल खेलने का सपना भी था. पर जल्द ही विरक्ति भी हो गयी. इसी बीच बचपन के एक और शौक अभिनय ने हॉकी के ख्वाब को परे धकेल दिया. अभिनय की यात्रा भी काफी रोचक है. जब काफी छोटा था तब से ही पार्टी फंक्शन में डांस करना, घर में आईने के सामने तरह-तरह के भाव भंगिमाएं रचना शुरू हो चूका था. घर वाले बताते थे कि यह सारे गुण काफी छुटपन में ही आ गए थे. हमारी ओर चूंकि बंगाली कल्चर का प्रभाव था तो दुर्गा पूजा वगैरह में स्टेज परफॉर्मेंस भी हो जाया करती थी. लोगो को हंसाने में एक अलग तरह की ख़ुशी मिलती थी. लोगों का अटेंशन मिलने से खुद पर गर्व भी होता था. 1979 में दसवीं के बाद मन में पूरी तरह तय कर लिया था कि सिनेमा ही आखिरी पड़ाव होगा. फिर बीकॉम करने के बाद बीएनए से ड्रामेटिक आर्ट में डिप्लोमा किया और दिल्ली आ गए.
– सिनेमाई कसौटी वाले मापदंड पर इस अपारम्परिक कद-काठी के साथ खड़े होने में कभी डर महसूस नहीं हुआ.
– डरते वो हैं जो खुद को लेकर आत्ममुग्धता के साथ जीते हैं. 86 में पासआउट होने के बाद दिल्ली पंहुचा, फिर शुरू हुआ थिएटर का सिलसिला. शुरू से ही इस तरह का कोई मुगालता नहीं था कि दिलीप कुमार या अमिताभ बच्चन की तरह हीरो ही बनना है. अपनी कद-काठी और फिज़िकल अपीयरेंस का मुझे बखूबी अंदाजा था और ये भी पता था कि इस इस चेहरे-मोहरे और कद-काठी के साथ अगर खुद को भीड़ से अलग साबित करना है तो कड़ी मेहनत के अलावा कोई विकल्प नहीं. चाहता तो मैं उस वक़्त भी मुंबई जा सकता था पर वहां जाने से पहले मैं खुद को इस कदर मांज लेना चाहता था जिससे काम खुद मेरे पास चलकर आये. इस बीच 95 में थिएटर के अपने दोस्त तिग्मांशु धुलिया की एक सीरियल जरूर की. बीच-बीच में शोज के सिलसिले में मुंबई आना-जाना होता रहता था, पर खुद को मांजने की इस कोशिश में मैं तकरीबन दस सालों तक लगातार थिएटर करता रहा. केवल थिएटर ही नहीं, थिएटर के साथ-साथ मैंने हजारों किताबें भी पढ़ डाली. उस दौरान मैंने इतने किरदार जी लिए खुद पर आत्मविश्वास पुख्ता हो गया.
– ऐसे दौर में जब दूरदर्शन और सिनेमा के अलावा खुद को साबित करने का कोई और प्लेटफार्म नहीं था, परिवार वालों को इस निर्णय में कैसे शामिल किया?
– यह सच है कि ये फील्ड ऐसा है जहाँ किसी बात की निश्चितता तय नहीं है. ऐसे फील्ड को करियर के रूप में चुनना भी एक कठिन निर्णय था, पर मैं ऐसी फैमिली से था जहाँ सब खुले विचारों वाले लोग थे. पढ़ाई के साथ-साथ कल्चरल एक्टिविटीज की महत्ता उन्हें शुरू से पता थी. पिताजी साइंटिस्ट थे, मां भी खासी पढ़ी-लिखी थी. मां का कहना बस इतना था कि पहले अपनी पढाई पूरी कर लो फिर जो भी करना हो करो. तो घरवालों के लेबल पर कोई परेशानी नहीं हुयी. हां रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों की ओर से कई बार भविष्य को लेकर शंकाएं जाहिर की जाती थी. पर घर वाले उस बात को बखूबी संभाल लेते थे.
– थिएटर से सिनेमा तक आते-आते कभी लगा नहीं कि जर्नी काफी लम्बी हो गयी?
– देखिये मेरे लिए अभिनय मेरा पैशन था, फिर चाहे वो थिएटर का हो, टीवी का या फिर सिनेमा का. थिएटर शुरू करने के बाद से आज तक कभी मैं खाली नहीं रहा. मुझे पता था जहाँ मुझे पहुंचना है वहां के लिए थिएटर और टीवी का जरिये मैं खुद को मांज रहा हूँ. तो फ़्रस्ट्रेशन का कोई सवाल ही नहीं था. मुझे पता था एक दिन यही मेहनत मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचाएगी. अगर मैं अपनी जर्नी छोटी करने के चक्कर में पहले ही मुंबई आ जाता तो शायद लोग मुझपर उस तरह भरोसा नहीं करते जो वो आज मेरी मेहनत और काम देखकर करते हैं.
– आप साहित्य के भी काफी करीब रहे है. आज के सिनेमा से साहित्य के दुराव की क्या वजह मानते हैं?
– दुराव जैसी कोई बात नहीं है. सारा मसला बदलते दौर का है. पहले के वक़्त में जानकारियों के लिए लोगों के पास रेडियो-टीवी के अलावा बस किताबें हुआ करती थी. तो लोग खूब किताबें पढ़ा करते थे. साहित्य के करीब होने के चलते लोग साहित्य पर फिल्में भी बनाते थे. अब एक पूरा जेनेरेशन बदल चूका है. मोबाइल क्रांति का दौर है. आज का जेनेरेशन ही साहित्य से दूर हो चूका है. ऐसे में आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आज का युवा साहित्य से प्रेरित फिल्में बनाएगा. तो दोष व्यक्ति का नहीं बदलते दौर और हालात का है.
– आज जब डिजिटल क्रांति का दौर है, ऐसे में तब के अभिनय बेसिक्स और अब के अभिनय बेसिक्स में कितना फ़र्क़ पाते हैं?
– अभिनय का बेसिक्स वही रहता है बस उसे प्रेजेंट करने का तरीका बदल जाता है. नए-नए टेक्निक्स की वजह से कांससनेस बढ़ जाती है. पहले जब हम थिएटर करते थे तो हमें हॉल की आखिरी पंक्ति तक का ख्याल रखना पड़ता था. अभिनय और आवाज का ऐसा सामंजस्य बिठाना पड़ता था पहली से आखिरी पंक्ति तक के लोग जुड़ाव महसूस करें. अब तकनीक विकसित होने के बाद स्थितियां बदल गयी है. तरह-तरह के माइक और लाइट-साउंड सिस्टम हैं जो आपकी कमियां बखूबी पकड़ सकते है. एक ओर जहां आपका काम आसान हो गया है वहीं दूसरी ओर आपको कंसस रहना पड़ता है. लगभग यही स्थिति टीवी और सिनेमा में भी है. आज खुद पर मेहनत के साथ-साथ तकनीक से सामंजस्य भी उतनी ही जरूरी बात है.
– आखिरी सवाल, success के लिए मेहनत और लक को किस रूप में देखते हैं?
– लक जरूरी है, पर वो आपके हाथ में नहीं है. जो आपके हाथ में है वो है आपकी मेहनत. और मेहनत का कोई विकल्प नहीं होता. लक भी तभी आपका फेवर करता है जब आप उस काम के लिए मेहनत करते हो. आज के अधिकतर युवाओं ने अपनी जिंदगी से सीखने वाले स्टेप को ही स्किप कर दिया है. वो सीधा लक्ष्य पा लेना चाहते है. पर होने और पाने के बीच की जो मेहनत है उससे मुंह मोड़कर आप सफलता की उम्मीद तो कतई नहीं कर सकते है. आज भी मैं जब कहीं अभिनय के क्लासेज और वर्कशॉप लेता हूं उन्हें सिखाने के साथ-साथ उनसे सीखने की कोशिश भी करता हूँ. युथ से एनर्जी और तकनीक हासिल करता हूँ. तो सफलता के लिए जरूरी है आप अपने हिस्से की मेहनत ईमानदारी से करते जाएँ बाकी उपरवाले के हाथ छोड़ दें.