संजीव कुमार (Sanjeev Kumar) – एक ऐसा चेहरा, जिसे याद करने के लिए आपको दिमाग पर ज़ोर नहीं डालना पड़ता .आपके सामने उनके द्वारा निभाये गये तमाम किरदार रील की तरह चलने लगते हैं …जब भारतीय सिनेमा का नायक मार – धाड़ और हाथ में बन्दुक लेकर गुंडों के पीछे भाग रहा था या किसी खुबसूरत वादियों में किसी नायिका के साथ प्यार भरे नगमे गा रहा था वहीं संजीव भरी जवानी में छाती पर सफेद रंग पोतकर कभी बाप का किरदार निभा रहे थे तो कभी किसी गूंगे का किरदार निभा रहे थे
मोतीलाल ,बलराज साहनी ,गुरुदत्त की यथार्थवादी अभिनय की परम्परा को आगे बढ़ानेवाले संजीव कुमार अपने समय के एकमात्र ऐसे अभिनेता हैं जिन्होंने दर्शको के मन में अपनी कोई इमेज नहीं बनायी ..किसी फिल्म में लडकी के लिए प्रेम गीत गाते-गाते दुसरी फिल्म में उसी नायिका के बूढ़े बाप बनकर आ रहे थे. जनता कैसे स्वीकार करेगी .कहीं इंडस्ट्री काम न देना बंद कर दे ..इन तमाम उलझनों से संजीव कुमार (Sanjeev Kumar) हमेशा दूर रहे और हमेशा अपने अन्दर के अभिनेता की भूख को शांत करते रहे .
जब खिलौना में पागल के किरदार के रूप में उन्हें शोहरत मिली तो लोग पागल की भूमिका के लिए उनके पास दौड़ पड़े ..तब तक बूढ़े के रूप में उन्होंने अपना सिक्का जमा लिया तो बूढ़े की भूमिका के लिए प्रस्ताव आने लगे तभी ओ साथी चल गाने वाली फिल्म सीता और गीता में वे रोमांस वाले नायक बन गये .. ऐसी हिम्मत संजीव कुमार में ही थी जो उस नायिका के बाप की भूमिका (परिचय ) करने के लिए तैयार हो गये जिस नायिका के साथ वो नायक बन कर आ चुके थे ..इस तरह के फैसले करते वक्त किसी ने उनसे पूछा था कि आपको अपनी इमेज का डर नहीं लगता ..संजीव मुस्कुराते हुए कहते कि यार सभी इमेजवाले हो जायेंगे तो कैसे काम चलेगा ? किसी को तो इमेजलेस होना चाहिए .
फिल्म सफल हुई या असफल, संजीव अपने अभिनय से सरोकार रखते ..सवाद अदायगी , चेहरे और आंखों का भाव बहुत कुछ कह जाती .फिल्म मौसम में आँखे कुछ और कह रही हैं ,चेहरा कुछ और , चेहरे पर वह भाव है जो वेश्या के कोठे पर जानेवाले ग्राहक में होता है मगर आँखों में गहरे विषाद के साथ वह मन: स्थिति स्पष्ट झलक रही है ,जिसके मातहत विवश होकर उन्हें यहाँ तक आना पड़ा. पागल(खिलौना),बडबोले (श्रीमान –श्रीमती ).टेलर (लेडीज टेलर),गूंगा (कोशिश ),खलनायक (संघर्ष ) सह्रदय व्यक्ति (अर्जुन पंडित),अपंग (शोले ),मनचले नौजवान (मनचली).बहानेबाज पति (पति ,पत्नी और वो ),देहाती (कांच की दीवार ),संगीत प्रेमी (आपकी कसम ) ये सब उनके यादगार किरदार हैं ..
संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई 1938 को सूरत में जरीवाला के घर में होता है .शिवभक्त पिता अपने बेटे का नाम रखते हैं हरिहर ..16 वर्ष की उम्र में पिता का देहांत होता है .किशोर संजीव कुमार के ऊपर बुढी माँ ,दो भाई और एक बहन की जिम्मेदारी आ गयी ..शांताक्रुज में किशोर पोद्दार स्कुल में पढाई के दौरान उनका मन पढाई के बदले स्कुल में हो रहे फंक्शनों में लगता है ..बड़ी मुश्किल से वो नौवी की पढाई कर सके .बाद में उनकी मुलकात सत्यदेव दुबे से हुई और इप्टा के साथ नाटकों की दुनिया में व्यस्त हो गये .जीवन का पहला नाटक था ए .के .हंगल निर्देशित उमस .इसमें उन्होंने साठ वर्षीय बुढा का किरदार निभाया था और उनकी पत्नी बनी थी शौकत आजमी ..सिनेमा की दुनिया में संघर्ष के दिनों में हम हिन्दुस्तानी में एक्स्ट्रा किरदार निभाया , कारण घर की जिम्मेदारी ..फिर आओ प्यार करें में एक छोटी सी भूमिका मिली और एक गुजराती फिल्म वुलापी में वो नायक बने .
कहते हैं कि जब संजीव कुमार बीडी पीते हुए घर लौटते तो उनके दोस्तों को पता चल जाता कि आज मीटिंग अच्छी नहीं हुई वहीं वो पाईप पीते हुए आते तो दोस्त समझ जाते कि आज मीटिंग सफल रही. हिदी फिल्मो में वे नायक बने एसपी इरानी की फिल्म निशान (1965) से .उनकी शुरुआत की कई फ़िल्में असफल रहीं ..इंडस्ट्री में बतौर अभिनेता उन्हें तब तरजीह मिली जब 1968 में रीलिज हुई फिल्म संघर्ष में दिलीप कुमार के सामने वो प्रभावशाली अभिनेता बनकर निकले . उनका किरदार भले ही छोटा था लेकिन दिलीप कुमार के सामने एक सीन में संजीव कुमार इतने प्रभावशाली रहे कि इंडस्ट्री ने मान लिया था कि आने वाले समय में इस अभिनेता के तरकश से कई तीर निकलने वाले हैं. उसी साल राजा और रंक .शिकार ,साथी की कामयाबी ने उन्हें सफल अभिनेताओं के सामने ला खड़ा किया .1970 में दस्तक और खिलौना ने इस बात को साबित किया कि संजीव विलक्षण अभिनेता हैं ..हर तरफ खिलौना में पागल बने संजीव कुमार की चर्चा .इस किरदार को बखूबी समझने के लिए उन्होंने नासिक के मानिसक अस्पतालों के कई चक्कर लगाये थे .दस्तक के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला .उन्होंने 153 फिल्मो में काम किया और उनकी 58 फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाने का गौरव हासिल किया …
उन्हें कोशिश (१९७२) के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार और शिकार ,आंधी, अर्जुन पंडित के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार मिले .जिस साल दीवार रीलिज हुई उसी साल आंधी भी रीलिज हुई थी और उस साल बेस्ट नायक का फिल्फेयर एवार्ड संजीव कुमार को मिला .संजीव कुमार पर कोई चर्चा और कोई आलेख नया दिन नई रात के बिना पुरी नहीं होगी .इसमें उन्होंने हिन्दी साहित्य में वर्णित नवरसों पर आधारित नौ विभिन्न भूमिकाएं निभाई ..तारीफ़ में इतना कहना काफी होगा कि उसके बाद अभिनय का वह रंग भारतीय सिनेमा में कभी देखने को न मिला . सत्यजीत रे के साथ कम लोगो को ही काम करने का सौभाग्य मिला ..उन सौभाग्यशाली लोगों में संजीव कुमार भी आते हैं ..गुलजार साहब के साथ तो उनकी एक तरह से कहें कि कमाल की जुगलबंदी थी .परिचय ,कोशिश ,नमकीन ,मौसम ,अंगूर फिल्मों के निर्देशक गुलजार ही थे.कहते हैं कि त्रिशूल के लिए जब यश चोपड़ा ने उनसे काम करने के लिए कहा तो उन्होंने पैसे की अधिक डिमांड की संजीव के सेक्रेटरी ने उनसे कहा कि आप ने क्यों इतना फी माँगा ..कहीं ये फिल्म हाथ से चली गयी तो ? संजीव कुमार ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि यश को पता है कि ये रोल मेरे अलावा और कोई नहीं कर सकता .
संजीव कुमार आजीवन कुवारे रहे .इंडस्ट्री की एक अपूर्व सुन्दरी हेमामालिनी से उन्हें प्रेम हुआ ..लेकिन प्यार के धागे का कोमल रिश्ता सात फेरों के बंधन में नहीं बंध सका ..इश्क के इस दुखद अंत से फिर शादी के बारे में वो निर्णय लेने का साहस नहीं जुटा पाए ..बाद में सुलक्षणा पंडित को उनसे प्यार हुआ लेकिन सुलक्षणा के बार बार कहने पर भी शादी का फैसला संजीव कुमार नहीं ले पायें . सुलक्षना पंडित ने ताउम्र शादी न करने का फैसला किया .1975 की फरवरी महीन में हार्ट अटैक हुआ .माँ के जिद करने पर संजीव कुमार ने माँ से कहा कि मेरी जिदगी का क्या भरोसा .ऐसे में शादी कर लडकी का जीवन क्यों बर्बाद करें ..? माँ से संजीव को बेहद प्रेम था …फ़िल्मी पार्टियों में भी वे अपने माँ को ले जाते ..
Vinod Mehra: जिन्हें इंडस्ट्री ने हमेशा कमतर आंका
माँ की मौत ने उन्हें झकझोर कर रख दिया और छोटे भाई नकुल की मौत ने उन्हें पत्थर बना दिया ..इस दुखद हादसे के कारण वे शराब में डूब गये .जब तक उन्हें जीवन से मोह नहीं था तब तक तो साँसों और धडकनों ने उलझाए रखा ..लेकिन जब जिन्दगी से प्यार हुआ तो मौत गले लगाने आ गयी ..उधर जीने की तमन्ना बढ़ती जा रही थी और इधर मौत रोज नजदीक आती जा रही थी ..अपने भाई नकुल की पत्नी ज्योति और उनके बच्चों के नाम अपनी सारी सम्पति नाम कर आखिरकार हरी भाई 9 नवम्बर ,1985 को हमेशा-हमेशा के लिए चले गये .
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