-समर्थ सारस्वत
इरफान,
पता नहीं ये खुला खत है या एक फीचर है, मेरी भावनाएं हैं या कुछ और. लेकिन ये दिल से निकली बातें हैं, जो एक प्रशंसक अपने हीरो से कहना चाहता है. वो बातें जो मुझे कहने का मौका नहीं मिला और जब बताना चाहता हूं तो तुम जा चुके हो. बचपन से ही लोग/रिश्तेदार छोटे बच्चों से पूछते हैं कि तुम्हें कौन सा हीरो पसंद है या कौन सी हीरोइन पसंद है. 30 साल का होने के बाद भी मैं कभी इस सवाल का जवाब नहीं खोज पाया था कि मेरा पसंदीदा हीरो कौन है. लेकिन तुम्हारे जाने के बाद आज शायद मुझे लगा कि इस बात का जवाब मिल गया. आप किसी से कितना प्रेम करते हैं, इसका पता कई बार उसके जाने के बाद होता है. वो कमी आपको किस कदर तोड़ती है, मैं महसूस कर रहा हूं. पता नहीं तुम्हारी फिल्मों को देखते-देखते ये कनेक्शन कैसे जुड़ गया? प्रशंसक तो बहुत होते हैं. कोई पूरे शरीर पर अपने हीरो का नाम गुदवाता है, कोई उनके घरों के बाहर इंतजार में बैठा रहता है. कोई हजार किलोमीटर दूर एक झलक के लिए मुंबई चला आता है. उन हजारों-लाखों में से मैं भी एक प्रशंसक हूं. जो तुमसे, तुम्हारी फिल्मों से जुड़ा था. जो अपनी भावनाएं सीमित रूप से व्यक्त करता है लेकिन आज कुछ लिख रहा है.
मैं कोई बड़ा लिक्खाड़ नहीं हूं. आज कुछ ऐसा नहीं लिख दूंगा कि जो दशकों तक पढ़ा जाएगा लेकिन जो लिखूंगा वो मेरे लिए है. मेरे हीरो के लिए है, जो 53 साल की उम्र में अचानक चला गया. तुमसे नाता 2003 में आई हासिल फिल्म से जुड़ा. मैं आठवीं क्लास में था. एक साल बाद डिश-केबल वाले ने उसे टीवी पर दिखाया. मैं नौंवी क्लास और जवानी के उस दौर में था, जब फिल्में और इश्क, किताबों पर भारी पड़ता है. फिल्म का हीरो तो जिमी शेरगिल था लेकिन तुम-तुम थे. फिल्म का ओपनिंग सीन और ईसीसी कॉलेज की सीढ़ियों पर तुम्हारा भागना, फिर गौरी शंकर पांडे बोलकर मंत्र फूंक कर गोली मारने के लिए ललकारना. इसके बाद वो एक गरीब छात्र को बताता है कि अंग्रेजी किसी के बाप की नहीं है. शहर के बाहुबली से लेकर मुख्यमंत्री तक को गरियाने वाला रणविजय, जो दोस्त की मां को छेड़ने वाले की नाक तक कटवा देता है. वो मेरा हीरो था.
जब जामिया कॉलेज में दाखिला हुआ था तो वहां प्रोजेक्ट/असाइनमेंट मिला फिल्म रिव्यू. मैंने इस असाइनमेंट के लिए चुनी तुम्हारी फिल्म मकबूल. वो फिल्म जो एक आपके दिमाग में घर कर जाती है. बिल्कुल वैसे जैसे मकबूल यानि इरफान की आवाज में बोला वो आखिरी डायलॉग, जो कहता है कि “दरिया मेरे घर में घुस आया है”. अपने औसत दिमाग के साथ जो देखा, समझा और उसी पर लिखा. असाइनमेंट टीचर के सामने पेश था और पलटकर उन्होंने सवाल किया कि तुमने हेमलेट पढ़ा है? मेरा जवाब था नहीं, बोले कि पढ़ो. फिर तुम्हारी फिल्मों का चस्का शेक्सपीयर की हेमलेट तक ले गया. यहां मुझे विशाल भाई (भारद्वाज) का विराट रूप दिखाई दिया. जो हेमलेट की कहानी को मुंबई के अंडरवर्ल्ड में उतार देता है और ओमपुरी-नसीरूद्दीन से दो डायनों का किरदार निभवा देता है.
फिल्म हासिल का असर ऐसा था कि IIMC तक इसकी खुमारी कायम रही. हिंदी की क्लास में अपने बकचोद इलाहाबादी दोस्तों के साथ प्रोजेक्टर पर हासिल देखने से ज्यादा सुखद नहीं है. दौड़ाना, गरियाना, पेलना और पटक देना. ये सब शब्द और इलाहाबादी दोस्त जिंदगी से जुड़ गए. तुम्हारी लगाई आग का आलम ये था कि हासिल की शूटिंग (छोटा हिस्सा) जिस ईसीसी कॉलेज में हुई, मैं वहां तक की परिक्रमा लगा आए. वो भी एक फील था, जो रणविजय से जुड़े होने जैसा महसूस करा रहा था. फिर वो पल आया जब तुम्हें दूर से जेएनयू में एक खुले मैदान में देखा. गले में हरे रंग का मफलर और घुंघराले से फैले बालों में रणविजय जैसे आंखों के सामने खड़ा हो गया हो. तुम्हारे हर डायलॉग पर ताली मारकर चीखना, कोशिश करना था कि कैसे भी बस वो रणविजय एक बार कह दे कि “गुरु आई लाइक आर्टिस्ट”. वो यादगार दिन था.
मुझे विश्वास हो चुका था कि डार्क और ग्रे शेड करेक्टर तुम्हारी पहचान है. अदाकारी के इस हिस्से में तुम्हें महारत है. इसमें कोई तुम्हारा हाथ नहीं पकड़ सकता है. तो इसी बीच फिर तिग्मांशु ने इक तिरुप का इक्का फेंका जो था पान सिंह तोमर. ‘कहो हां’ कि वो फिल्म क्लासिक (मुझे लगी) थी. कॉलेज के दौरान मैं और मेरा भाई वीकेंड में अक्सर तुम्हारी फिल्मों की वैम्पायर बनकर पूरे इंटरनेट और टोरंट पर तलाश करते थे. शाम तक ये तलाश कभी, ये साली जिंदगी, तो कभी सलाम बॉम्बे पर आकर रुकती थी. हमें वीकेंड काटने का जरिया मिल जाता था. जब कभी तलाश अधूरी रह जाती तो हासिल-मकबूल-पान सिंह तोमर का रिपीट प्रोग्राम जिंदाबाद था ही.
तुम्हारी सिनेमाघर में देखी आखिरी फिल्म हिंदी मीडियम थी. लेकिन सबसे आखिरी फिल्म जो देखीं वो कारवां और करीब-करीब सिंगल थीं. जब-जब मुझे लगता है कि तुम्हारी अदाकारी एक खास फ्रेम में फिक्स है तो तुम्हारी नई फिल्में उसे तोड़ देती हैं. इन दोनों फिल्मों में तुमने फिर बता दिया कि एक औसत शक्ल और थोड़ी अजीब बाहर निकली आंखों वाला अभिनेता भी रोमांटिक लग सकता है. स्क्रीन पर किसी का हीरो लगना उसके लुक्स से ज्यादा अदाकारी पर निर्भर करता है. योगी का किरदार हो या शौकत मियां, मजाकिया रोमेंटिक किरदारों में भी बेहद उतने ही ज़हीन थे. चंद्रकांता से चाणक्य तक और सलाम बॉम्बे से अंग्रेजी मीडियम तक. तुम्हारे फिल्मी सफर और अदाकारी पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन मैंने तुमसे जुड़ी अपनी कहानी लिखी.
इरफान, इंसानी शरीर के साथ जिंदगी का सफर यहां खत्म हो सकता है लेकिन यादें ताउम्र दशकों-सदियों तक रहती हैं. कम ही लोग होते हैं जिनके हिस्से ये कामयाबी मिलती है जिन्हें हर वर्ग, धर्म, विचारधारा का मानने वाला याद कर रहा हो. ऐसे दौर में रुख़सत का ये अच्छा तरीका नहीं था इरफान. तुम्हारी आखिरी यात्रा इतनी उदास नहीं होनी चाहिए थी. जिस इंसान ने पूरी जिंदगी जिंदादिली के साथ जी हो, उसकी विदाई भी वैसी होनी चाहिए थी. तुम एक सच्चे बेटे थे, तुम्हें मां के जाने का गम था. इस खत की आखिरी लाइन तुम्हारे उस रूहदार किरदार से निकली जो सच बनकर रह गईं. “दरिया भी मैं दरख्त भी मैं, झेलम भी मैं, चेनाब भी मैं…दैर हूँ हरम भी हूँ…शिया भी हूँ सुन्नी भी हूँ…मैं हूं पण्डित!…मैं था मैं हूँ और मैं ही रहूँगा” मिस यू इरफान.
तुम्हारा खामोश प्रशंसक
– समर्थ