Review: लोकरंजन के साथ लोकोपदेश देती फ़िल्म : जनहित में जारी
1 min readएक जुमला है ‘यथा नाम तथा काम.’- ‘जनहित में जारी’- वैसी ही फ़िल्म (Review) है. कला और कला के उद्देश्य के बारे में बहुत से साहित्यकारों, चिंतकों ने बहुत कुछ लिखा है पर सबकी राय एक बिंदु पर कमोबेश यह जरूर है कि वास्तविक कला कभी उद्देश्यहीन नहीं होती. इतना जरूर है कि कला में मनोरंजन और अभिव्यक्ति का कौशल भी होता है, लेकिन वह कला, जो हम सबको एक दिशा दिखा सके और हमारे सामाजिक मूल्यों के प्रति भी सचेत कर सके तो उसके होने का एक सार्थक अर्थ बनता है. फिर हमने तो यह भी पढ़ा है कि ‘केवल मनोरंजन ही कवि का कर्म नहीं होना चाहिए, बल्कि उसमें उचित उपदेश का मर्म भी होना चाहिए’- जय बसंतू निर्देशित और राज शांडिल्य द्वारा लिखित फिल्म ‘जनहित में जारी’ इसी तरह की एक फ़िल्म है, जो समाज के एक बेहद जरूरी मसले को मनोरंजन की चाशनी में लपेटकर सामने ले आती है.
फिल्म नायिका प्रधान है लेकिन इसके बावजूद जो साथी किरदार हैं वह कथा प्रवाह को बल देने का काम कर रहे हैं. राज शांडिल्य बरास्ते टीवी (कॉमेडी सर्कस) इधर आये हैं और व्यावसायिक तौर पर खासी सफल फ़िल्म ‘ड्रीम गर्ल’ (निर्देशन, लेखन, संवाद) से काफी उम्मीदें जगा चुके हैं. वह यहाँ भी निराश नहीं करते. अलबत्ता इस बात का सुकून राज शांडिल्य की कलम से यह है कि उनके किस्सों में एक विमर्श दिखता है, पर कोरे बयानबाजी वाली रुखाई के साथ नहीं बल्कि मनोरंजन के साथ. ‘जनहित में जारी’ में कथाक्रम का संयोजन बेहद खूबसूरती से किया गया है और किरदारों की एंट्री और उनके स्क्रीन उपस्थिति का खास ख्याल रखा गया. यद्यपि संगीत अथवा गीत बहुत असर नहीं छोड़ते. टाइटल ट्रैक राज ने ही लिखा है जो ठीक-ठाक बन पड़ा है. लेकिन इस फ़िल्म के गीत ‘पर्दादारी, उड़ा गुलाल इश्क वाला’, या ‘तैनू आंदा नहीं’ आसानी से जुबान पर चढ़ जाएं वह संभव नहीं लगता. गानों की बात करें तो एक चीज त्वरित खटकती है कि चंदेरी के बुंदेली लोकभाषा मिश्रित हिंदी बोलने वाले किरदार ग़म में पंजाबी गीत क्यों गाने लगते हैं. इधर के हिंदी सिनेमा में यह एक नए किस्म का चलन है और पता नहीं क्यों है. बहरहाल, यह प्रयोग फ़िल्म की कथा में कोई असहजता पैदा नहीं करता बल्कि यह एक किस्म से हिंदी सिनेमा का नया फार्मूला है.
क्या है कहानी ?
कहानी मध्य प्रदेश के चंदेरी में रहने वाले त्रिपाठी परिवार की लड़की मनोकामना उर्फ मन्नू (नुसरत भरुचा) की है जो एक कंडोम बनाने वाली फैक्ट्री में काम करती है. उसका पड़ोसी लड़का देवी (परितोष त्रिपाठी) उससे प्यार तो करता है लेकिन कह नहीं पता. वह ‘जताना भी नहीं आता छुपाना भी नहीं आता’- भाव में नायिका का अच्छा दोस्त है. लड़की रंजन नाम के लड़के से प्यार करती है और उसी से शादी भी करती है. लेकिन समस्या वहीं से शुरू होती है कि एक लड़की होकर कंडोम की फैक्ट्री में काम करना समाज को स्वीकार कैसे होगा. रंजन के पिता बने केवल प्रजापति (विजय राज) पितृसत्तात्मक व्यवस्था के बड़े पहरुआ बनकर नायिका के सामने खड़े हैं. फ़िल्म की कथा की सारी जद्दोजहद यहीं से शुरू होती है. पहले हाफ तक निर्देशक ने कहानी पर पकड़ बनाए रखी है लेकिन सेकंड हाफ में फिल्म हल्की-सी झूलती नजर आती है. मसलन, लड़की के एकदम मिशनरी बनने की प्रक्रिया के कारक तत्व बहुत मजबूती से नहीं स्थापित होते. फिर एक कंपनी की सेल्स एक्जीक्यूटिव एक बड़े मुहिम को खड़ी कर देती है और उसकी लड़ाई अंदर-बाहर और निजी त्रिआयामी स्तरों पर चल रही है. यह फ़िल्म दूरदर्शनिया प्रचार निरोध, बच्चों में अंतर रखने के साधन के सरकारी प्रयासों के बजाए अधिक प्रैक्टिकल होकर कंडोम को ‘प्लेजर के साथ प्रोटेक्शन भी’ के संदेश के साथ ले आ रही है. हमारे देश में जहाँ मेडिकल वाले भी औरतों की सेहत से जुड़े सेनेट्री पैड्स और पुरूषों के कंडोम्स को काली पन्नी में छुपाकर बेचते हैं, वहाँ ‘जनहित में जारी’ एक जरुरी फ़िल्म है.
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फिल्मी मुहिमों की खासियत होती है कि उनके नायक-नायिकाओं के दिखाए प्रयोग एकांगी होकर उन्हीं पर शुरू और उन्हीं पर खत्म होते हैं. ‘जनहित में जारी’ इसका अपवाद नहीं है. पर नायक का नायकत्व इसी से तो खड़ा होता है. लेखक और निर्देशक एक मामले में इस फ़िल्म को अपवाद बना देते हैं कि वह इस फ़िल्म के अंतिम दृश्यों में इसमें मुख्य किरदार द्वारा जन जागरण के लिए बाकी सभी किरदारों के सामने मोनोलॉग वाला ज्ञान बाँचने की परंपरा का पालन नहीं करते. कठोर और दकियानूसी ससुर बने विजय राज के हृदय परिवर्तन की बात एक सिचुएशनल प्रक्रिया के साथ गुजर कर सामने आती है और इसी वजह से वह बहुत सहज लगती है. वैसे भी हृदय परिवर्तन एक गहन आंतरिक प्रक्रिया है और विजय राज के किरदार को लिखते वक्त राज शांडिल्य ने संभवतः इस बात का पूरा ख्याल रखा है. इसीलिए न केवल विजय राज बल्कि दूसरे दृश्यों में भी उनके किरदार अधिक विश्वसनीय लगते हैं.
फिल्म देखी जानी चाहिए अभिनेताओं के लिए
अगर आपको एक प्यारी-सी फ़िल्म अच्छे स्टारकास्ट अथवा अभिनेताओं के साथ परोस दी जाए तो कैसा लगेगा ? निःसंदेह बेहतर महसूस होगा. यह फ़िल्म देखिए परितोष त्रिपाठी के लिए. नायिका प्रधान इस फ़िल्म को स्क्रिप्ट के अतिरिक्त किसी एक एक्टर ने हरक्यूलिस की तरह कन्धे पर उठाया है तो वह है – परितोष त्रिपाठी. देवी की भूमिका में परितोष का पर्दे पर आना फ़िल्म में रुचि के इनपुट की तरह है. परितोष का अभिनय पानी की तरह दिखता है, वह जब जब जिस दृश्य में हैं, दर्शकों को केवल वही दिखते हैं. इससे पहले ही वह टीवी पर बतौर टीआरपी मामा प्रसिद्धि ले चुके हैं. हालिया आइफा में फिर से चर्चा में आई फ़िल्म ‘लूडो’ में वह मन्नू के किरदार में थे. पर कुछ फिल्में किसी एक अभिनेता के काम की वजह से जानी जाती हैं मसलन, ‘रन’ में विजय राज के कॉमिक रिलीफ वाले दृश्य. ठीक वैसे ही ‘जनहित में जारी’ परितोष के निभाए दृश्यों की वजह से भी जानी जाएगी. आने वाले दिनों में लोग परितोष के निभाये दृश्यों की वजह से कहानी को याद करेंगे. इसमें परितोष जिस तरह से अपने कायिक अभिनय से अपना किरदार निभाते हैं वह लगने ही देता कि पर्दे पर दिख रहा अभिनेता परितोष त्रिपाठी है, वह देवी ही लगता है. जिस सीन में परितोष एंट्री करते हैं, वह सीन उनका हो जाता है. यह कहना जल्दबाजी लग सकती है पर इसे एक घोषणा के रूप में जानने की जरूरत है कि ‘जनहित में जारी’ से परितोष बतौर स्थापित अभिनेता के तौर पर जाने जाएंगे. समझिए कि इस फ़िल्म के जरिये इस अभिनेता ने अपनी प्रतिभा से इंडस्ट्री में अपनी साख पक्की कर ली है. यह फ़िल्म एक बेहतर अभिनेता के उभार की घोषणा और सूचना दोनों है.
इसके अतिरिक्त फ़िल्म के एक और किरदार पर आपका ध्यान बरबस जाता है, वह हैं- सपना सन्द. सपना सन्द ने नुसरत की माँ के रोल में जितनी लेयर में अभिनय किया है और भावों का जैसा उतार-चढ़ाव, जैसी देहभाषा उनके अभिनय में सहजता से परदे पर दिखता है, वह आश्चर्य पैदा करता है कि इंडस्ट्री में अभी तक इनके कद का रोल इनको मिला क्यों नहीं. आने वाले समय में सपना सन्द के अभिनय का विस्तार देखने को मिलेगा ऐसी उम्मीद है. वह भावप्रवण अभिनेत्री हैं. यदि हिंदी सिनेमा में अभिनय स्कूल की परिपाटी पर आपको यकीन हो तो इस फ़िल्म में अपनी किरदारी लिमिटेशंस में भी सपना सन्द जिस तरह से कैरेक्टर जीती दिखती हैं, वह भावप्रवणता में स्मिता पाटिल , शबाना और सीमा विस्वास वाली लाइन का एक्सटेंशन करती नजर आती हैं. इनके अभिनय के और शेड्स आने बाकी हैं और उम्मीद है आने वाले समय मे हमें इस अभिनेत्री के और काम देखने को मिलें.
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वैसे ही, कुछ अभिनेता पर्दे पर दर्शकों को सुकून देते लगते हैं, चाहे वह कंडोम कंपनी के मालिक बने बृजेन्द्र काला हों, या नायिका के पिता बने इश्तेयाक खान. इन दोनों अभिनेताओं के लिए ऐसा ही कहा जा सकता है कि यह पर्दे पर घरेलू / पड़ोसी किरदारों की सहज उपस्थिति हैं. दोनों खुद में अभिनयशाला हैं. हीरो बने अनुद सिंह ढाका के दब्बू बड़े भाइयों की भूमिका में जतिन कोचर, सुमित गुलाटी, भाभी बनी नेहा श्राफ,सपना, दादाजी की भूमिका में टीनू आनंद जमते हैं. नुसरत भरुचा अच्छी अभिनेत्री हैं और वह अपने किरदार में पूरी तरह फिट हैं.
वैसे भी जय बसन्तू सिंह और उनकी कास्टिंग टीम को शुक्रिया कहिए कि उन्होंने इस फिल्म में रंगमंच के दक्ष अभिनेताओं की टीम जुटाई है.
फ़िल्म एक बड़े मुद्दे को लेकर बनी जरूर है पर खोखले उपदेशात्मक ट्रीटमेंट से बचती है. मेनस्ट्रीम सिनेमा है और वह अपने उसी दायरे में रहकर अपना काम और मुद्दा ‘जनहित में जारी’ कर देती है. एक और बात, जब इसके हिस्से थियेटर और सिनेमा के इतने दक्ष अभिनेताओं की टीम है तो फ़िल्म थियेट्रिकल ट्रीटमेंट से कैसे बचती, सो अन्त में, राज शांडिल्य और जय बसन्तू सिंह ने थर्ड एक्ट का निर्वहन भी कर दिया हैं. आज जब बड़े कैनवास और एपिकल का जादू रचा जा रहा है, वैसे में जनहित में जारी का आना एक हिम्मत का काम है. इस फ़िल्म को इसकी लिमिटेशंस में भी स्वीकार कीजिए क्योंकि अच्छी रचनाएं धीमे स्वर में बात करती हैं – यह फ़िल्म ‘बड़ों’ के शोर में एक सार्थक आवाज़ बनने की कोशिश है.