-पुंज प्रकाश
अपनी एक चिट्ठी में प्रसिद्ध जर्मन कवि रिल्के लिखते हैं – “अपनी सारी इच्छाओं और मूल्यों, कला के प्रति समर्पित किए बिना कोई भी व्यक्ति किसी ऊंचे उद्देश्य तक नहीं पहुंच सकता. मैं कला को एक शहादत की तरह नहीं – एक युद्ध की तरह मानता हूं जहां कुछ चुनिंदा लोगों को अपने और अपने परिवेश के विरुद्ध लड़ना है ताकि वे शुद्ध मन से उच्चतम उद्देश्य तक पहुंच सकें और अपने उत्तराधिकारियों को खुले हाथों से यह सम्पदा सौंप सकें. ऐसा कुछ करने के लिए एक इंसान के समग्र जीवन की ज़रूरत है ना कि थकान से भरे कुछ फुरसती घंटों की.”
आप रंगमंच से जुड़ना चाहते हैं और इसे अपना पेशा बनाना चाहते हैं, बड़ी प्रसन्नता की बात है लेकिन सबसे पहले अपनेआप से यह दो सवाल कीजिए लेकिन इससे भी पहले एक बात यह कि अगर आप पढ़ाई और कठोर श्रम से भागकर इस पेशे में आना चाहते हैं तो यकीन मानिए आप ग़लत हैं. यहां आपको जितना पढ़ना होगा उतना तो शायद ही किसी पेशे में पढ़ना हो और कैसी भी स्थिति-परिस्थिति में जितनी कठोर मानसिक और शारीरिक मेहनत (अगर सच में कलाकारी करनी है तो) करनी होगी उसकी शायद आपने कल्पना भी नहीं की होगी. बहरहाल, वो दो सवाल तत्काल यह है –
1. क्या आप रंगमंच को जानते हैं?
2. आप रंगमंच से क्यों जुड़ना चाहते हैं?
क्या आप रंगमंच को जानते हैं?
रंगमंच केवल वह नहीं है जो आपको नाट्यप्रदर्शन में दिखता है अर्थात अभिनय, लाइट्स, कॉस्ट्यूम, वाह वाह और तालियां वगैरह बल्कि रंगमंच अपनेआप में एक जीवनशैली व सामाजिक दायित्व का कार्य है, प्रक्रिया है जिसमें आपका तन, मन और धन लगेगा और ख़ूब लगेगा. यहां सफलता-असफलताओं से ज़्यादा सार्थकता और निरर्थकता का महत्व है. यहां एक रेत का सागर है जहां से आपको अपनेआपको होम करके पानी की कुछ बूंद अपने और समाज के कल्याण के लिए निकालना होगा. ऐसा करने के लिए हो सकता है कि आपकी एक ज़िंदगी कम पड़ जाए.
अगर आप एक सच्चे कलाकार के तौर पर अपनेआप को देखना चाहते हैं तो कला और कलाकार की सामाजिक ज़िम्मेदारियों से आप मुंह नहीं फेर सकते और जहां तक सवाल नाम, काम और दाम कमाने का है तो जितनी मेहनत एक सच्चा कलाकार करता है उतनी मेहनत किसी अन्य क्षेत्र में करे तो यह सब चीज़ें (तमाम भौतिक सुख सुविधाएं) शायद उसे थोड़ी ज़्यादा आसानी से मिलेगी. बाकी अगर व्यपार करना है तब तो सारे तर्क बेमानी हैं. वैसे मेहनत किस क्षेत्र में नहीं है? और मेहनत का आजतक कोई विकल्प तैयार हुआ ही नहीं.
यह एक ऐसा पेश है जिसमें आपको व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर सदा ही संघर्ष करना पड़ेगा और अगर आप थोड़े आदर्शवादी हैं तब तो समझिए संघर्ष कई गुना बढ़ ही जाएगा क्योंकि यह समय और समाज का मूल चरित्र कला विरोधी है. वही एक दूसरे के ख़िलाफ़ साजिशों की भी कोई कमी नहीं. ख़ासकर तथाकथित हिंदी समाज की बात करें तो वो एक सफल व्यक्ति का आंकलन उसकी आर्थिक समृद्धि से करता है कि उसके पास कैसा मकान है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है इत्यादि. हमारा समाज कला का दर्शक तो बनता है लेकिन ज़िम्मेदार और वाहक बनने को अभी तैयार नहीं है. इसलिए आपको मानसिक रूप से दृढ़ होना पड़ेगा, अपने और अपनी कला पर हर स्थित में ना केवल यक़ीन करना होगा बल्कि उसके लिए आपको सदा प्रयत्नशील और संघर्षरत भी रहना होगा. इतना सब करने के बावजूद यह हो सकता है कि अपनी दाल-रोटी कमाने के लिए आपको कहीं अन्य स्थान पर अपना देह गलाना पड़े. आज भी ऐसे लोग बड़े अपवाद हैं जो ईमानदारी से लगातार रंगमंच करते हुए अपना और अपने परिवार का बढ़िया से भरण पोषण कर पाते हैं. मन में कहीं यह मान्यता है कि कुछ दिन रंगमंच करने के पश्चात आप सिनेमा या सीरियल में शानदार मौक़ा पा लेगें तो आप भ्रम में हैं और कुछ नहीं. रंगमंच अपनेआप में एक सम्पूर्ण विधा है, सिनेमा और सीरियल तक जाने का शॉर्टकट नहीं. रंगमंच सिनेमा का एक अच्छा कलाकार बनने में आपकी सहायता कर सकता है लेकिन यक़ीन मानिए सिनेमा का अच्छा कलाकार होना और रंगमंच का अच्छा कलाकार होना एक ही बात नहीं है.
आप रंगमंच से क्यों जुड़ना चाहते हैं?
आप जैसे ही रंगमंच से जुड़ने के लिए आते हैं तो सबसे पहले आप अपने से यह सवाल कीजिए कि आप रंगमंच से क्यों जुड़ना चाहते हैं? क्या आप केवल इसकी चमक से प्रभावित हैं या आपने सिनेमा या सीरियल के किसी सफल कलाकार का साक्षात्कार पर लिया है कि वो पहले रंगमंच करते थे? वैसे भी आप चाहे जिस भी विधा से जुड़ें, अगर उस विधा के प्रति आप अंदर से ईमानदार नहीं हैं तो आपको वहां कुछ हासिल नहीं होगा क्योंकि ऊपर ऊपर तैरने से मोती नहीं मिलता बल्कि उसके लिए गहरे पानी में डुबकी लगानी ही पड़ती है. यदि आप अपनी कला, अपना दल और अपने प्रशिक्षक के प्रति ईमानदार नहीं हैं तो आपकी कला, आपका दल और आपका प्रशिक्षक भी आपकी ज़िम्मेदारी नहीं लेगा. ईमानदारी चाहिए तो ईमानदार रहिए. यह पूरी तरह give and take का मामला है, आप जो और जितना देते हैं वही और उतना आपको वापस मिलता है.
यक़ीन मानिए, किन्हीं अन्य का कारण आपका कारण नहीं हो सकता है. किसी भी पेशा को चुनने के पहले आपके पास अपना व्यक्तिगत और व्यवहारिक कारण होना चाहिए. वह करना कोई भी हो सकता है. शायद इतना ही काफी हो कि आपको इसमें आंनद आता है. लेकिन कला का मूल उद्देश्य केवल आंनद नहीं होता बल्कि कला अपनेआप में एक सामाजिक ज़िम्मेदारी का कार्य भी है.
आप अपने लिए जब कोई पेशा चुनते हैं तो दरअसल आप अपनी जीवनशैली चुन रहे होते हैं और यह चयन निश्चित ही बहुत सोच समझ और चिंतन की मांग करता है. अगर आप बिना कुछ जाने-समझे और विचार किए किसी पेशे में आ जाते हैं तो इसमें दोनों संभावना है कि यह भी संभव है कि आपको अपने लिए एक शानदार काम मिल जाए या यह भी संभव है कि कुछ वक्त बिताने के पश्चात आपको ऐसा लगे कि आपने ग़लत चीज़ चुन ली है. ऐसी स्थित अगर आप बच सकते हैं तो बचिए और ऐसा करने का केवल एक ही तरीका है – जानकारी और चिंतन और अपने लिए सामाजिक तौर पर सही ग़लत का निर्णय करने की शक्ति.
आप पहले रंगमंच को जानिए उसके पश्चात अपनेआप से व्यवहारिक सवाल कीजिए कि क्या आप सबकुछ जानने-समझने के पश्चात भी इसे अपना कर्मक्षेत्र बनाना चाहते हैं? अगर इसका जवाब हां है तो फिर कूद पड़िए मैदान में और अगर अभी भी ज़रा भी शंका है तो आप निश्चित ही अपना और रंगमंच का समय बर्बाद करेगें. वैसे पूरे मनोयोग से भिड़ जाएं तो दशरथ मांझी की तरह पहाड़ काटकर सबके लिए रास्ता बनाया जा सकता है लेकिन अगर कहीं भी मन में एक प्रतिशत भी छल, प्रपंच और शंका रहे तो समझिए कि गुड़ का गोबर होते वक्त नहीं लगेगा और इन सबसे सबसे ज़्यादा नुक़सान आपका ही होगा.
आख़िर में एक बात और कि जब आप रंगमंच से जुड़े हैं तो कठिन मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक श्रम करने के साथ ही साथ अपनेआप पर प्रचंड भरोसा और अपार धैर्य के साथ सतत कार्यरत रहिए. यहां किसी भी मार्गदर्शक के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है कि वो हवा में हाथ घुमाए और आपको कलाकार बना दे बल्कि यहां तिल तिल करके रोज़ अपने आपको जलाते और गलाते हुए आपको अपने मार्गदर्शक के मार्गदर्शन में ना केवल सीखना है बल्कि उससे आगे भी निकलना है. कबीर कहते हैं ना कि
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान
सावधान भी रहिए क्योंकि इस क्षेत्र में भी गुरु के रूप में एक से एक गुरुघंटाल, प्रशिक्षक के रूप में एक से एक चम्पक और शिष्य के रूप में एक से एक स्वार्थी और चापलूस लोग बड़े ही ज़ोर शोर से मौजूद हैं. जहां सच्चा गुरु और सच्चा शिष्य का समन्वय होता है वहां कला और कलाकार दोनों का जादू देखते ही बनता है. अब कौन सच्चा और कौन झूठा है इसका निर्णय आप अपनी बुद्धि और विवेक से ही कीजिए तो अच्छा है.
इसलिए, पहले देखो, सुनो, समझो, जानो, समझो, परखो, गुनो, मंथन करो, अपनी बुद्धि और विवेक का मानवीय इस्तेमाल करो, थोड़ा व्यवहारिक रूप में करके देखो तत्पश्चात अपने लिए कुछ चुनों या ना चुनों, क्योंकि जब आप परख के साथ आगे बढ़ेंगे तब उसमें जो कुछ भी अच्छा बुरा होगा उसके लिए आप किसी अन्य को दोषी नहीं मानेंगे. बाकी नाम, काम, धाम और दाम भी कमाओ (सतत लगे रहने पर यह सब स्वतः ही मिलेगा ही मिलेगा) लेकिन कलाकारी केवल इतने भर का काम नहीं है बल्कि एक रचना तभी प्राणवान होती है जब वो सामाजिक अनिवार्यता से उपजती है. माना कि इंसान के पास एक पेट भी है किंतु भूख और कला के बीच का अंतर समझना पड़ता है और उसका पालन भी करना ही होता है.
अपनेआप में यह बिल्कुल ही बक़वास बात है कि कला अपनेआप में एक विचार है और उसे किसी भी अन्य विचार का संवाहक होने की ज़रूरत नहीं है. इतिहास जाननेवाले यह भलीभांति जानते हैं कि कला किसी ना किसी रूप में हमेशा से ही किसी ना किसी विचारधारा का संवाहक रही है और आज भी है. हाँ, उसे किसी का भोंपू नहीं होना चाहिए बल्कि कला का मुख्य उद्देश्य एक विकसित, विचारवान, मानवीय, सुंदर, कलात्मक, कोमल मनुष्य और समाज का निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वाह करना है और वो ना केवल लोगों का मनोरंजन करती है बल्कि वो समाज के सांस्कृतिक स्तर को भी परिष्कृत करती है. कला समाज में सक्रिय योगदान देती है और ऐसा करने के लिए उसे विश्व दृष्टि और वैज्ञानिक चिंतन से परिपूर्ण होने की आवश्यकता है और यदि ऐसा नहीं हुआ तो उस कला का प्रभाव गुदगुदी से ज़्यादा नहीं होगा. कला जीवन की नकल नहीं बल्कि कला अपनेआप में एक जीवन है जो केवल क्या हुआ से ही संतोष नहीं करता बल्कि क्या और कैसे होना चाहिए के साथ ही साथ कल्पनालोक में विचरण करने का भी मार्ग दिखाने का साहस रखता है.
यह एक ऐसा पेशा है जहां काम ही आराम है और यहां ताउम्र सीखना ही सीखना है. यहां सिखानेवाले भी सिखता है और सीखनेवाले भी और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. यहां जीवन संघर्ष नहीं बल्कि संघर्ष ही जीवन है. यह एक ऐसी कला है जो रोज़ जीता और रोज़ मरता और नित नई शुरुआत करता है. इसलिए इस पेशे से जुड़ने से पहले थोड़ी जानकारी इकट्ठा कीजिए और सबसे ज़रूरी बात यह कि किसी भी चीज़ का कोई ना कोई उद्देश्य होता है, बिना उद्देश्य के कुछ भी व्यर्थ है. वैसे बिना उद्देश्य के कुछ होता भी नहीं है. अब वह उद्देश्य का दायरा व्यक्तिगत के साथ ही साथ सामाजिक भी हो तो आनंद और सार्थकता का भी दायरा और ज़्यादा विस्तृत हो जाता है. अलग-अलग समूह का काम देखिए. उनसे मिलिए, उनके साथ वक्त बिताइए और रंगमंच से जुड़ी कुछ किताबें हैं जिन्हें पहले पढ़ने की हिम्मत कीजिए. कुछ लिस्ट दे रहा हूँ बाकी अन्य एक से एक बेहतरीन पुस्तकों की जानकारी के लिए google कर लीजिए और उनका अध्ययन कीजिए.
1. कला की ज़रूरत, लेखक – अन्सर्ट फिशर
2. कला के वैचारिक और सौंदर्यात्मक पहलू, लेखक – आब्नेर ज़ीन्स
3. नाट्यशास्त्र, लेखक – भरतमुनि (पूरी किताब पढ़ने में तो नौ मन तेल लगेगा तो कम से कम पहला अध्याय ही पढ़ लीजिए नाटक की उत्पत्ति का कारण “जनकल्याण” समझ में आ जाएगा – शायद.)
4. The Stanislavski System, लेखक सोनिया मूर
5. रिल्के के प्रतिनिधि पत्र, लेखक – राइनेर मारिया रिल्के
6. What is Theatre?: An Introduction and Exploration, लेखक – John Russell Brown
7. The Oxford Illustrated History of Theatre, लेखक – John Russell Brown