-चंद्रकांता
‘दुनिया की सभी औरतों एक हो जाओ तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए सारी दुनिया बाकी है .’
एक स्त्री का मिर्च मसालों से क्या संबंध हो सकता है ? मोटे तौर पर इसका उत्तर है – केवल रसोईघर तक का. लेकिन केतन मेहता की फिल्म ‘मिर्च मसाला’ में अपनी अस्मिता को बचाने के लिए औरतें इसी मिर्च मसाले को अपना हथियार बना लेती हैं . आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर अपने मन की बात रखने के लिए इससे बेहतर फ़िल्म और क्या हो सकती है !
आज़ादी के पहले की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म कच्छ के रण में औरतों की हंसी-ठिठोली से शुरू होती है. जहां नदी पर पानी भरती औरतें गुजराती लोकगीत ‘मिरचिया झुलवा’ गा रही हैं. अचानक धूल उड़ाते हुए घोड़ों की टाप सुनाई देती है जिसे सुनकर औरतें सहम जाती हैं और तितर-बितर होने लगती हैं. अमूमन फिल्मों में घोड़ों की टाप सुनकर बरबस ही ओ. पी. नैय्यर साहब का मधुर संगीत याद हो आता है. लेकिन ‘मिर्च मसाला’ में ऐसा नहीं है. यहां घोड़ों की टाप हर कदम पर अपने साथ एक दहशत को लेकर आती है. घोड़ों पर सवार ये उन्मांदी लोग गांव के सूबेदार ( नसीरुद्दीन शाह ) के सिपाही हैं. उधर ये बेलगाम सिपाही औरतों को रौंद रहे होते हैं इधर सूबेदार सोनबाई ( स्मिता पाटिल ) के पास आकर ठहर जाता है. लेकिन वह भागती नहीं और निडर होकर वहीं खड़ी रहती है .
अपने पहले ही संवाद से सोनबाई अपने तेवर जाहिर कर देती है. सूबेदार और सोनबाई के बीच संवाद का यह टुकड़ा देखिये
– सोनबाई – बापजी सरकार, इस गाँव में आदमी यहाँ पानी पीते हैं, जानवर वहां.
सूबेदार – इस जानवर को पानी मिलेगा !
सोनबाई – आदमी की तरह पानी पीने के लिए पहले झुककर हाथ फैलाने पड़ते हैं.
पानी पीकर सूबेदार सोनबाई को घूरते हुए अपनी मूछों पर तांव देता है. आमतौर पर मूछों को मर्दवाद का प्रतीक समझा जाता है . मूछें रखने में कोई बुराई नहीं लेकिन उसे मर्द होने का प्रतीक मान लेना बुरा है . खैर, पानी पी लेने के बाद भी सूबेदार की प्यास नहीं बुझती ! क्या यह केवल पानी की प्यास है ? नहीं, यह प्यास सैक्स की है ,उस आधिपत्य की है जो औरत को केवल एक वस्तु के रूप में देखती है. मिर्च मसाला इसी प्यास को अनफ़ोल्ड करती है . फिल्म में प्रतीकों का इस्तेमाल शानदार है . एक के बाद एक जिस तरह दृश्य बुने गए हैं उससे मंच पर हो रही किसी नाटिका का आभास होता है. फिल्म का निर्देशन बहोत सधा हुआ है . पहले दस मिनट में ही फिल्म अपनी बुनावट को पूरा उघाड़ कर रख देती है.
एक कहावत है ‘जस राजा, तस प्रजा’ यहाँ भी वही हाल है . सूबेदार के सिपाही भी उसी की तर्ज़ पर अमानवीय हैं और सत्ता के मद में चूर हैं . वे गाँव वालों से वसूली करना अपना धरम समझते हैं. सिपाहियों का यह आतंक ‘सत्ता और शोषण’ के गहरे गठबंधन का प्रतीक है. सिपाहियों का रसद के लिए गांव में आना और उत्पात मचाना आपको फिल्म ‘शोले’ की याद दिला देगा. गाँव के पुरुष कोई खास रोजगार नहीं करते, औरतों को अपनी जागीर समझते हैं और आए दिन उन पर फब्तियाँ कसते हैं . कुल मिलाकर लेखक नें एक उनींदे समाज का खाका खींचा है.
कच्छ के रण में ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘लगान’ और ‘गोलियों की रासलीला रामलीला’ जैसी ब्लाकबस्टर फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है . लेकिन कच्छ के रेत की जो सौंध केतन की ‘मिर्च मसाला’ में है वह आपको इन मेगा बजट फिल्मों में नहीं मिलेगी . खूबसूरती के लिए या सिनेमा को स्क्रीन पर प्रभावी बनाने के लिए कच्छ जैसी किसी लोकेशन का चुनाव एक बात है लेकिन उस रेत में छिपी ख़राश और ‘ ह्यूमन फैक्ट्स ‘ के लिए उसका चुनाव करना एक अलग बात है. कच्छ की शुष्कता में ‘मिर्च मसाला’ इन्ही ह्यूमन फैक्ट्स की तलाश करती है.
इस फिल्म की कई पपड़ियाँ हैं जो समानांतर चलते हुए व्यवस्था से विरोध करती हैं. जैसे राधा ( सुप्रिया पाठक ) और मुखी ( मुखिया ) के भाई ( मोहन गोखले ) के बीच का प्रेममी, जो अपनी जाति या बिरादरी के भीतर रिश्ता करने के शहूर को चुनौती देता है. एक जगह सोनबाई किराना वाले से सौदा लेने जाती है लेकिन उसके पास पैसे नहीं होते. दुकानदार के पैसा मांगने पर वह उस पर तंज़ कसती है ‘इस गांव में तुम्ही पैसा देते हो और तुम्ही ले लेते हो ! यह संवाद ऋण जाल में फंसे ग्रामीणों की दशा को उजागर करता है . जब गाँव की एक मौसी सोनबाई से बच्चा होने के लिए जंतर पढ़वाने को कहती है तो उसका जवाब होता है ‘मौसी मुझे कोई जरूरत नहीं’. एक ऐसा समाज जहां औरत का महत्व केवल संतति पर टीका हो और जहां एक औरत को ‘दूधों नहाने’ का अधिकार तभी हासिल है जब वह ‘पूतों फले’, वहाँ इस तरह का वक्तव्य देना अपने आप में व्यवस्था से विद्रोह का प्रतीक है . ऐसा ही एक और प्रसंग है जहां मुखी ( सुरेश ओबराय ) की बेटी अपनी माँ सरस्वती (दीप्ति नवल ) से सवाल करती है –
बेटी – बापू घर में क्यों नहीं सोते
सरस्वती – पता नहीं.
मुखी – दरवाजा खोलो…
सरस्वती – ये घर है सराय नहीं, कि जब चाहा आ गए …; जब चाहे चले गए. अगर नहाने के लिए घर की जरूरत पड़ती है तो वहीं नहा लिया करें जहां रात गुजारते हैं.
मुखी – लड़का नहीं हुआ तब भी किसी ने कुछ नहीं कहा! मर्द कभी-कभी रात बाहर न गुजारे तो लोग क्या कहेंगे?
सरस्वती – मैं औरत नहीं हूँ.
मुखी – तुम बीवी हो …
गाँव के मुखी के लिए रात को घर नहीं आना और विवाहेत्तर संबंध रखना रसूख की बात है . बहरहाल, एक दिन सरस्वती स्कूल के मास्टर ( बेंजामिन गिलानी ) से टकरा जाती है . मास्टर उसकी बेटी को स्कूल में भर्ती करवाने की सलाह देता है .
मास्टर – बड़ी प्यारी बच्ची है इसे पढ़ने क्यों नहीं भेजती.
सरस्वती – यहां रिवाज़ कहां है लड़कियों को पढ़ाने का !
मास्टर – वक़्त के साथ साथ रिवाज़ भी तो बदल जाते हैं, शुरुआत के लिए एक ही काफी है…
यह लेखक की दृष्टि है जो संवादों के माध्यम से आपको बताती है कि शिक्षा एक सोच है और स्कूल एक आंदोलन जो आपको यथास्थिति में बदलाव की उम्मीद देता है . शिक्षा प्रश्न पैदा करती है और यथास्थिति को तोड़ने के लिए प्रश्न करना बेहद जरूरी है . फिल्म आपको दिखाती है की किस तरह एक अशिक्षित समाज की तबियत अफ़वाहों पर निर्भर होती है . फिल्म में एक दृश्य है जहां सूबेदार के यहाँ ग्रामोफ़ोन को देखकर गांव वाले अजीबोगरीब अनुमान लगाते हैं . कोई उसे जादू की छड़ी कहता है, कोई तोप तो कोई उड़नतश्तरी. हमने हमेशा देखा है की औरतें परिवर्तन की सहज वाहक होती हैं. मास्टर जी के अनुरोध पर सरस्वती अपनी बेटी को स्कूल में भर्ती करवाने का निर्णय लेती है. लेकिन जब वह मुन्नी को लेकर स्कूल जा रही होती है तो गाँव की औरतें उस पर तंज़ करती हैं-
गाँव की औरतें – लड़कीं की जात और स्कूल पढ़ना ! कभी देखा है किसी लड़कीं को स्कूल जाते हुए. मुखियन की तो मत मारी गई है सारे लड़कों में एक लड़की !! पढ़ लिख लेगी तो इससे ब्याह कौन करेगा ?
एक पिछड़े हुए समाज में लड़कियों की शिक्षा को लेकर यही समझ है. शिक्षा हमें अवसर और चयन की स्वतंत्रता देती है और लड़कियों की स्वतंत्रता ऐसे सामंतवादी समाज को चुभती है. गाँव का मास्टर लड़कियों की शिक्षा की पैरवी करता है . लेकिन सूबेदार और मुखी खादीवादी और स्वराजी कहकर उसका मजाक उड़ाते हैं . मुखी मुन्नी को स्कूल से वापस ले आता है और सरस्वती को खूब खरी खोटी सुनाता है. सरस्वती ज्ञान का प्रतीक है शायद यही सोचकर लेखक ने मुखी की अर्धांगिनी के रूप में सरस्वती का चरित्र गढ़ा होगा . सामंती समाज औरतों के लिए एक ऐसी परिधि का निर्माण करता है जहां औरत कुलीन घर की हो या फिर मजदूर, पितृसत्ता की बनाई हुई रवायतों में वह एक बंदिनी से अधिक कुछ नहीं है . उसकी जाति, उसका वर्ग और उसका मजहब केवल उसके औरत होने से इत्तेफ़ाक रखता है .
अंततः एक दिन सूबेदार बदनीयत से सोनबाई का रास्ता रोक लेता है. प्रतिक्रिया में सोनबाई मौके पर उपस्थित मर्दों के सामने सूबेदार को थप्पड़ जड़ देती है. इस क्षण से सोनबाई की हिम्मत और सूबेदार की प्रतिष्ठा में ठन जाती है. एक सद्पुरुष की भांति प्रेम का निवेदन करने की बजाए सूबेदार सोनबाई को पाने के लिए सत्ता का इस्तेमाल करता है . वह भूल जाता है कि एक ईमानदार औरत का मन स्वेच्छा से केवल प्रेम और सम्मान के समक्ष ही झुक सकता है किसी बल के सामने नहीं. सोनबाई सूबेदार के सिपाहियों से बचते हुए किसी तरह मसाला फैक्टरी पहुँचती है, जहां वह काम करती है . फैक्टरी में बूढ़ी, जवान, ब्याहता, गर्भवती सब तरह की औरतें हैं जो मसाला कूटकर अपना बसर करती हैं.
फैक्टरी में एक चौकीदार भी हैं अब्दुल मियां, जो कामगारों से दुआ सलाम करते वक़्त उन्हें ‘राम-राम’ बोलते हैं . अब्दुल मियां एक ईमानदार व्यक्ति है . ओम पूरी ने अब्दुल के किरदार को अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है . जब कारखाने का मालिक सूबेदार के इशारे पर सोनबाई को फ़ैक्टरी से लेने आता है तो स्थिति को भांपकर अब्दुल मियां दरवाजा खोलने से इंकार कर देते हैं .
सेठ – मैं इस कारखाने का मालिक हूँ. तुम बेईमानी कर रहे हो !
अब्दुल मियां – और मैं इस कारखाने का चौकीदार. कारखाने का मतलब सिर्फ मकान और सामान नहीं होता सेठ, मजदूर औरतें भी हैं. बेईमान होने से नमक हराम होना बेहतर है.
मसाला फैक्टरी में औरतों के आपसी संबंध प्यार, तकरार, सहयोग और ईर्ष्या से बुने हुए हैं. औरतों के आपसी संबंधों के इस महीन मनोविज्ञान को पढ़ सकने वाली कम ही हिन्दी फिल्में हैं. लोक और प्रकृति का एक अनूठा रिश्ता है जिसे औरतों ने लोकगीतों के माध्यम से कायम किया है. औरतें काम शुरू करने से पहले चक्की को पूजती हैं और गीत गाती हैं. फैक्टरी की औरतों के लिए मिर्च केवल रोटी पानी का जरिया नहीं है. ये औरतें मिर्च से खेलती हैं, मिर्च के गीत गाती हैं, मिर्च को प्यार का प्रतीक बनाती हैं , मिर्च से बुरी नजर उतारती हैं और अंत में उसी मिर्च को अपना हथियार बना लेती हैं.
कारखाने में औरतें नजरबंद हैं और बाहर सिपाहियों का सख़्त पहरा है. ऐसे मे सरस्वती घर की दहलीज को लांघकर सब औरतों के लिए खाना लेकर जाती है. मुखी की पत्नी होने के बावजूद वह मज़दूर औरतों के दर्द को महसूसती है. यह औरत होने का साझापन है. वह गाँव की औरतों को इकट्ठा करने का दुस्साहस करती है. उसकी अगुआई में गाँव कि औरतें बरतन बजाते हुए सड़कों पर ऐसे निकलती हैं मानों अपनी आजादी का ऐलान कर रही हों. बरतन पीटने की यह आवाज़ें उस व्यवस्था से प्रतिकार है जो औरतों को उपभोग की वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझती. यह अलघ औरतों को नींद से जगाने के लिए है. सामंतवाद और पितृसत्ता यदि औरतों के अस्तितव पर एक प्रश्न है तो औरतों का एकजुट होकर प्रतिकार करना ही इसका उत्तर है.
खैर, प्रतिक्रिया स्वरूप मुखी सरस्वती को पीटते हुए घर वापिस लाता है और उसे बंद कर देता है. इस तरह के दृश्य हमने अपने घरों में या अपने आस -पड़ोस में खूब देखें होंगे ! ऐसे भी सामंतवाद की एक खास पहचान है उसमें स्त्री हँसती,रोती,मुस्कुराती, गाती और श्रृंगार करती है तो एक पुरुष के दायरे में रहकर. इसलिए स्त्री की मुक्ति का प्रश्न सामंतवादी व्यवस्था को हमेशा से बिसाता रहा है .
आखिरकार, मजदूर औरतों के सब्र का बांध टूट जाता है वो सोनबाई को खूब भला-बुरा सुनाती है . लखवी ( रत्ना पाठक ) सोनबाई को पैसे के बदले सूबेदार के साथ सोने की सलाह देती है. लेकिन सोनबाई दृढ़ होकर कहती है ‘ मेरा मरद कहेगा तब भी नहीं जाऊँगी’ . सोनबाई का पति ( राज बब्बर ) रेलवे में नौकरी मिल जाने पर शहर चला गया है . ऐसे में पंचायत और पुजारी सूबेदार के दवाब में सोनबाई को उसे सौंप देने का निर्णय लेते हैं . कुल मिलाकर स्थिति यह है कि एक स्त्री पिता, पति और समाज की मिल्कियत है और उसका अपने ही जीवन पर अधिकार नहीं है . मुख्यधारा का गणित यह है कि धरम, राजनीति, प्रशासन और समाज सब एक तरफ हैं और एकजुट होकर औरतों के खिलाफ खड़े हैं , दूसरी तरफ औरतें हैं लेकिन अलग-थलग हैं .
इधर कारख़ाना में गर्भवती महिला को प्रसव पीड़ा शुरू हो जाती है उधर सरस्वती बंद खिड़की से छ-ट-प-टा-ती हुई बरतन पीटते हुए अपना आक्रोश जाहिर करती है. पीड़ा के इन्हीं क्षणों में फैक्टरी में बच्ची के रूप में एक नए जीवन का आगमन होता है. सिपाही दरवाजा तोड़ देते हैं ,औरतों कि रक्षा करते हुए अब्दुल मियां शहीद हो जाते हैं. सूबेदार भीतर घुस आता है. सोनबाई हंसिया पकड़ कर खड़ी है और सूबेदार पूरी वहशत के साथ उसकी तरफ बढ़ रहा है . बहोत संभव है यहाँ आपको भंसाली की ‘पद्मावत’ का खिलजी याद हो आए .
धधकती हुई आँखें और हाथ में हंसिया लिए खड़ी सोनबाई में माँ काली की छवि दिखाई पड़ती है भारतीय मिथकों में काली को शक्ति और संहारिणी का प्रतीक माना गया है . ऐसा ही एक प्रतीक सुजाय घोष ने अपनी फ़िल्म ‘कहानी’ में भी रचा था . इससे पहले की सूबेदार संभल पाता मजदूर औरतें लाल मिर्च से भरी चादर उसके मुंह पर दे मारती हैं और उसके मंसूबों पर लाल रंग पोत देती हैं. अंत में सब तरफ लाल रंग की धनक है और पार्श्व में वह संगीत आहनाद करता हुआ आता है जिसका रव बचपन से मेरी धमनियों में गूँजता रहा है. ढोल की थाप के साथ अपनी पीठ पर हंटर मारने की ध्वनि …
‘मिर्च मसाला’ लाल रंग से शुरू होकर लाल रंग पर ही खत्म होती है . लाल रंग क्रान्ति का है , बदलाव का है लेकिन दक़ियानूसी समाज उसे सुहाग, श्रृंगार या जौहर तलक सीमित कर देता है . ‘पद्मावत’ का अंत भी इसी लाल रंग पर होता है लेकिन उद्देश्य और व्याप्ति की दृष्टि से पद्मावत एक कमजोर फिल्म है जहां सती प्रथा का अनावश्यक महिमामंडन किया गया है . ‘मिर्च मसाला’ की मुख्य नायिका इस बात का प्रतीक है की महिलाओं को सबसे पहले खुद अपनी अस्मिता के लिए लड़ना होगा . न तो पति, न ही पंच और न कोई परमेश्वर उनकी सुरक्षा के लिए आने वाला है. सच ही है , बगैर फूलन देवी हुए एक एक स्त्री सामंती समाज में न्याय नहीं पा सकती .
फिल्म का संगीत रजत ढोलकिया ने दिया है . फिल्म में गुजरात के लोकगीत और संगीत की गंध बेहद खुशनुमा है. फ़िल्म के गीत सुनते हुए आप महसूस कर सकते हैं कि मेगा बजट और मेलोड्रामेटिक फिल्मों का गीत-संगीत इस देसी सुवास और सादगी के सामने कितना फीका लगने लगता है. ‘आयी सुरों की टोली’ गीत का संगीत आपको ‘हम दिल दे चुके सनम’ के ‘ढोल बाजे’ गीत की बेतरतीब याद दिलाएगा. रजत मूल रूप से गुजराती सिनेमा से जुड़े रहे हैं और उसका प्रभाव यहां भी दिखता भी है .
मिर्च मसाला का पार्श्व संगीत अलहदा किस्म का है . यह कभी रहस्यमयी है तो कभी बेहद ड्रामेटिक है. घोड़ों के चिंघाड़ने के साथ आने वाला डरावना या दहशत भरा पार्श्व संगीत अचानक इंस्ट्रुमेंटल संगीत में परिवर्तित हो जाता है. फ़िल्म में घोड़ों की हि-न-हि-ना-ह-ट और पक्षियों की च-ह-च-हा-ह-ट की ध्वनियों का बेहद सुंदर विरोध और तालमेल है. किसी गंभीर दृश्य के बीच अचानक संगीत की थाप का आ जाना विरोधाभास को रचता है. मिर्च मसाला का पार्श्व संगीत एक अनूठा प्रयोग है. क्लाइमेक्स से ठीक पहले पार्श्व ध्वनि बेहद नाटकीय हो जाती है. आपमें से जिन भी लोगों की नाट्य मंचन में अभिरुचि है वे जानते होंगे की नाटक ठीक ऐसा ही प्रभाव पैदा करते हैं. फिल्म का छायांकन अच्छा है जो जहांगीर चौधरी का है .
भारतीय राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम ( NFDC ) की यह फिल्म गुजराती लेखक चुन्नीलाल मादिया की लघु कहानी ‘अभू मकरानी ‘ पर आधारित थी . इस फिल्म को 1986 का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. फिल्म में वार्डरोब ‘तारे जमीन पर’ फेम अमोल गुप्ते का है . फिल्म की खास बात यह है की इसमें दीना पाठक और उनकी दोनों बेटियों सुप्रिया और रत्ना पाठक ने एक साथ काम किया है . फिल्म में मुखी की भूमिका निभाने वाले सुरेश ओबराय को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया गया . स्मिता और दीप्ति नवल का अभिनय हमेशा की तरह दिल को छू लेने वाला है . 2013 में भारतीय सिनेमा के 100 वर्ष पूरे होने पर जारी की गयी एक सूची में फोर्ब्स नें मिर्च मसाला में स्मिता के अभिनय को ’25 सर्वश्रेष्ठ अभिनय प्रदर्शन’ में एक माना था .
‘मिर्च मसाला’ उन औरतों की कहानी है जो न तो ‘फेमिनिज़्म’ का ककहरा जानती हैं और न ही बाज़ार के माप-तौल समझती हैं . यह उन औरतों की दास्तान है जो चूल्हे की चौखट के बाहर काम तो करती हैं लेकिन पितृसत्ता की परिधि में रहकर . फिल्म में एक प्रसंग है जहां कारख़ाना में काम करने वाली बूढ़ी काकी ( दीना पाठक ) यह खुलासा करती है कि ये अत्याचार तो पीढ़ियों से होते आए हैं ‘न बड़ी का लिहाज, न छोटी का और न किसी बूढ़ी का… जो मिला दबोच लिया’. इस लिहाज से ‘मिर्च मसाला’ के कथानक को हिन्दी सिनेमा का ‘मीटू’ ( MeeToo ) माना जा सकता है .
मिर्च मसाला विद्रोह का राग है . सोनबाई हमें बताती है की औरत का शरीर उसकी अपनी संपत्ति है और उसकी इजाजत के बगैर कोई उसे नहीं छू सकता. शूजित सरकार की फिल्म ‘पिंक’ का एक संवाद था ‘नो मीन्स नो ” ; अविनाश दास की ‘अनारकली आफ आरा’ का एक संवाद था ‘अगली बार औरत हो, औरत से थोड़ा कम हो या कोई रंडी हो उसकी मर्जी पूछकर उसे हाथ लगाइएगा !’ ये दोनों ही स्त्री मुक्ति का आहनाद करने वाले यादगार संवाद हैं . लेकिन ‘मिर्च मसाला’ इससे भी एक पायदान ऊपर है, यह फिल्म आँखों, ‘बॉडी लेंगवेज़’ और आक्रोश की भाषा में दर्शकों से संवाद करती है .
इस फिल्म को देखकर हमारे जेहन में हमेशा एक ही बात आती है ‘ दुनिया भर की औरतों एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए सारी दुनिया बाकी है . ‘