कहते हैं, किसी गहरे सत्य की प्राप्ति और किसी गूढ़ विमर्श की निर्मित्ति हल्के, सधे और धीमे कदमों से ही होती है. फिल्म मिमी की कथा ऐसी ही है . मराठी की एक फ़िल्म आयी थी – मला आई व्हायचाय. समृद्धि पौरे की इस फ़िल्म को मराठी भाषा मे बनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. लक्ष्मण उतेकर की फ़िल्म मिमी इसी का अडॉप्टेशन है या यूं कहें कि उसी फ़िल्म को हिंदी के पॉपलुर फार्मूले के भीतर परोसने की सफल कोशिश है. इसे पूरी तरह से मराठी वाली फिल्म के पास नहीं रख सकते क्योंकि वहाँ बच्चे पर अधिकार का एक अच्छा खासा कोर्ट रूम ड्रामा है, जिसकी तनिक भी परछाई मिमी पर नहीं पड़ती. मिमी का सेटअप राजस्थान का शेखावटी इलाका है. मिमी (कृति सेनन), जिसका एक ही सपना है कि वह अपने डांस से इतना पैसा जुटा ले कि मुम्बई जाकर डब्बू रत्नानी से तस्वीरें खिंचवाए और हीरोइन बन जाए. पर इस सपने और कोशिशों के बीच दिल्ली का एक ड्राइवर भानू आ जाता है. उसके पास किसी अमेरिकी जोड़े का एक प्रस्ताव है. उन्हें एक स्वस्थ सुंदर सेरोगेट मदर चाहिए. कहानी यही से आगे बढ़ती है और एक रकम पर बात तय होने के बाद मिमी अपनी दोस्त शमां (साईं तम्हाणकर) के साथ मिलकर सेरोगेसी का ऑफर स्वीकार तो लेती है पर बाद में मेडिकल रिपोर्ट्स की कॉम्प्लीकेशंस की वजह अमेरिकी जोड़ा होने वाले बच्चे को अपनाने से इंकार कर देता है. फ़िल्म की कहानी यहीं से अलग-अलग तरह के टर्न और ट्विस्ट्स से गुजरती है.
बच्चे और माँ के बीच परिवार समाज सब घूमते हैं पर शुक्र है मिमी की अपनी दुनिया अच्छे लोगों से घिरी है. फ़िल्म कहीं भी किसी भी किस्म का बड़ा दावा करती नहीं दिखती, पर कहते हैं न, सबसे सरल दिखने वाली कथाएँ, जीवन के गहरे सत्यों के सूत्र दे जाती है. मिमी के भीतर अंतर्निहित सवाल भी ऐसे ही हैं. हल्की-फुल्की दृश्यावलियां रचती आगे बढ़ती मिमी के कई दृश्य सहज रोकते हैं- मसलन एक जगह जब मिमी बच्चे को देखती है, तब अपना करियर, अपना सपना सब सिमट कर उसी बच्चे में समाता देख रही होती है. इस दृश्य का एक हिस्सा हल्के से विश्व साहित्य के कुछ बेहतरीन हिस्सों की बरबस याद दिलाता है, जब जर्मनी के महान नाटककार, कवि ब्रेष्त के नाटक कॉकेशियन चॉक सर्कल (हिंदी में खड़िया का घेरा) की नायिका ग्रूशा बच्चे को देखती है. उस बच्चे को जिसके माँ- बाप छोड़कर भाग गए हैं और वह उसकी गवर्नेस है. अब माँ बाप लौटकर दावा ठोंक रहे हैं – ‘वह बैठी थी टकटकी बाँधकर/देख रही थी साँसों का/उन कोमल साँसों का उठना-गिरना/औ बँधी मुट्ठियाँ नन्हीं-नन्हीं! मन की ममता के छोर उजाले के संग बढ़ते जाते थे. वह उठी झुकी, भर आँख निहारा बच्चे को/सिलसिला साँस का तेज हुआ – बच्चे को उसने उठा लिया…उस क्षणग्रूशा ने ठान लिया. बच्चे की माँ बनकर रहना है”- यहाँ फ़िल्म में ऐसे ही एक इसी दृश्य के बाद हमें स्त्रीवाद की बहसों के भीतर की वह बात दिखने लगती है कि ‘love toward children in general and toward ones children in particular is considered sacred and regarded as a feminine moral test’ – समाज में मातृत्व की महिमा करते मर्दवादी तंत्र ने माँ को केवल बच्चे के जन्म से ही आबद्ध नहीं किया बल्कि उसने यह भी व्यवस्था तय की कि यदि किसी स्त्री में संवेदनाएँ नहीं हैं; करुणा नहीं, वात्सल्य नहीं है तो वह एक मुकम्मल स्त्री और माँ नहीं है. हालांकि फ़िल्म भी इससे परे जाकर कोई बात नहीं करती पर फ़िल्म में एक जगह नायिका का वह कथन कि बच्चा किसका? जिसने जन्मा या जो जैविक पिता है उसका? तब नायिका मिमी का यह सवाल भोजपुरी के बड़े नाटककार भिखारी ठाकुर के चालीस के दशक में लिखे नाटक ‘गबरघिचोर’ की नायिका के उस सवाल से जाकर सीधे जुड़ता है – “जेकर दूध, ओकर घीव काहे ना बाबूजी.(जिसका दूध, उसका घी क्यों नहीं बाबूजी)”. – मिमी बड़े सवालों को हल्की जुबान में कहती है. मिमी के चरित्र और उसमें उसके साथियों का साथ दरअसल एक मनुष्य के रूप में व्यक्ति के अपने अस्तित्व का अनुभव कराता है जो आगे चलकर अस्मितामूलक विमर्श का भागी बनता है. मूल मराठी फ़िल्म हो या मिमी दोनों ही स्त्री के कोख के सवाल को स्त्री के स्व का प्रश्न बताते हुए यह स्थापित करते हैं कि स्त्री का झगड़ा पुरुषों से नहीं बल्कि उसके इर्द-गिर्द निर्मित उन सत्यों से है, जहाँ स्त्री समाज के लिए एक प्रकृति-प्रदत्त कोमोडिटी के रूप में दिखती हैं. लड़ाई इसी मानसिकता से है.
यह बराबरी और मानवता से युक्त एक सुंदर दुनिया को रचने की कोशिश है और इसमें पंकज त्रिपाठी का किरदार बराबर का सहयोगी बनता है. भानुप्रताप है तो बस एक ड्राइवर लेकिन मिमी (फ़िल्म) को उबड़-खाबड़ रास्तों से सफलतापूर्वक निकालकर मंजिल तक पहुँचाने में इसी सारथी पंकज त्रिपाठी के अभिनय की भूमिका है. बीते दिनों एक इंटरव्यू में खुद मेकर्स ने यह माना हैं कि यह किरदार पंकज त्रिपाठी को सोचकर ही लिखा गया था. यह एक सुखद स्थिति है कि अब उनको सोचकर किरदार लिखे जाने लगे हैं. उनका किरदार ड्राइवर है, परिस्थितियों में वह इस तरफ आ गया है. वह एक ऐसा इंसान है जो कहीं से भी किसी भी स्थिति में अशालीन नहीं है और न अकारण विद्रोही होता है. आप इन सब बातों को समझने के लिए मिमी देखिए और विशेषकर पंकज त्रिपाठी का किरदार देखिए. समाज में स्त्री पुरुषों के बीच की गहरी अ-समान खाई को वैसे ही पुरुष पाट सकते हैं- जिनका ह्रदय स्त्री का हो और तन पुरुष का. फ़िल्म में पंकज त्रिपाठी का किरदार ऐसा ही है.
उनके हिस्से दो डायलॉग हैं -“ड्राइवर हूँ…हमारा एक उसूल है, जब पैसेंजर को बिठा लिया तो मंजिल तक छोड़े बगैर वापस नहीं लौटते. हां! कभी रास्ते खराब होते हैं, बीच में गड्ढे एक्सीडेंट इसका मतलब ये थोड़े ना है कि अपने लोगों को बीच में छोड़ दें.”- इसी तरह का एक और संवाद पंकज त्रिपाठी के हिस्से हैं. दिल्ली जैसे बहु-भाषिक, बहु-सांस्कृतिक शहर का रहने वाला यह ड्राइवर भानू फिल्म का सबसे मारक जीवन सूत्र देता है-“कभी-कभी आसान होता है- मर जाना और मुश्किल होता है -जिंदा रहना. जीना, समाज से लड़ना, अपने आप से लड़ना, अपने सपनों से लड़ना, युद्ध करते रहना.” – फ़िल्म मिमी का संघर्ष यही से शुरू होता हैं. यह पूरी फिल्म किस तरह से पंकज त्रिपाठी के कंधे पर सवार है, वह आपको कई दृश्यों में समझ आ जाएगा. मानो वह रामायण में हनुमान की भूमिका में हैं. फ़िल्म जैसे ही ट्रैक पर धीमी होती है उसी क्षण संजीवनी बनकर वह प्रकट होते हैं. अब पंकज त्रिपाठी को देखकर अभिनय की वह अवधारणा साक्षात दिखती है जहाँ विद्वानों ने लिखा – being in situation, being in present – अभिनेता अपने अभिनय में झूठ को सच ना माने और उसे दर्शकों के सामने सच्चा न बना सके तो वह न अभिनय में ईमानदार होगा और न किरदार में अपना पूर्ण समर्पण दे पाएगा. इस तरह वह किरदार के बाहर-बाहर ही रहेगा और उसकी भीतरी तहों में नहीं आएगा. अभिनय बाहर की नहीं, भीतर की यात्रा है और पंकज त्रिपाठी इस पाठ एवं पाठशाला के सुयोग्य विद्यार्थी हैं. इसलिए यह फिल्म जितनी कृति सेनन है, उतनी ही पंकज त्रिपाठी की भी है. लेकिन इस पूरे कथाक्रम में मराठी की एक्ट्रेस साईं तम्हणकर और मनोज पाहवा के काम को कमतर करके नहीं देखा जा सकता. साईं एक बेहतर अभिनेत्री हैं और इनका काम हमने हिंदी की एक फ़िल्म ‘हंटर’ में भी देखा हैं. लेकिन सब अच्छा-अच्छा के बावजूद भावनाओं के ज्वार-भाटे में फ़िल्म मिमी कहीं सुस्ताती लगती है पर फिर जल्दी ही संभल जाती है.
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बच्चे पर अधिकार के द्वंद्व को भी निर्देशक लक्ष्मण उतेकर ने गाँधीवादी रास्ता दिखा दिया है. अपनी पिछली फिल्म में भी उन्होंने लिव-इन जैसे मसलों को मथुरा जैसे शहर में सेटअप करके उसकी सामाजिक सिद्धि करायी थी. यह बड़े मसलों को हल्के-फुल्के ढंग से परोसने की सफल कोशिश है अलबत्ता स्क्रिप्ट कहीं खिंचती बजी लगती है. हीरोइन के ग्रैंड एंट्री का गीत ‘परम सुंदरी’ दर्शनीय बन पड़ा है, पर धीरे-धीरे ही सही ‘रिहाई दे’ और ‘छोटी सी चिरैया’ दर्शकों की आलटाइम लिस्ट में शामिल होंगे. हालांकि रहमान के संगीत की सिग्नेचर स्टाइल तलाशने वालों को निराशा होगी पर संगीत अच्छा है.
वैसे मिमी को कृति सेनन के करियर की अब तक सबसे उम्दा फिल्म के तौर पर भी देखा जा सकता है. इसमें बाद के दृश्यों में कृति ने अपने अभिनय क्षमता का बखूबी परिचय दिया है और यह साबित किया है कि उन्हें किरदार मजबूत मिले तो वह उसे खूबसूरती से निभाने में सक्षम हैं.