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खूबसूरत और बराबरी की दुनिया के स्वप्नद्रष्टा नटसम्राट डॉ. श्रीराम लागू (स्मृति-शेष)

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-मुन्ना के. पांडेय

गुलाम भारत में महाराष्ट्र के सतारा में 16 नवम्बर 1927 को जन्में कान, नाक, गला रोगों के विशेषज्ञ एक डॉक्टर, अभिनेता ने एक अखबार में अपने कॉलम में लिखा -“मुझे भगवान पर विश्वास नहीं है और मुझे लगता है कि अब भगवान को रिटायर करने का वक़्त आ गया है. ईश्वर की अवधारणा कवि की कल्पना का एक बहुत सुंदर उत्पाद है और सभ्यता के प्रारंभिक चरणों के दौरान यह जरूरी था लेकिन समय आ गया है, हमें तर्कसंगत रवैये के साथ दुनिया का सामना करना चाहिए. पिछले पाँच हजार सालों से किसी घटना में ईश्वर और यकीन के अस्तित्व का कोई सबूत नहीं है, जिसे वैज्ञानिक रूप से साबित नहीं किया जा सकता. यह अंधविश्वास से कम नहीं है. ‘भगवान’ के नाम पर कई अमानवीय प्रथाएं, अत्याचार और युद्ध हुए हैं. इसलिए यह न केवल आवश्यक है बल्कि इन कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए ईश्वर की अवधारणा को समाप्त करना भी हमारा कर्तव्य है क्योंकि यह मानवता के खिलाफ किया गया एक महान अन्याय है.”- प्रिंट मीडिया में ‘टाइम टू रिटायर गॉड’ लिखकर समाज में एक स्वस्थ और गर्मागर्म बहस को आमंत्रित करने वाले इस विशेषज्ञ अभिनेता डॉक्टर का नाम था डॉ. श्रीराम लागू . मराठी, हिंदी, गुजराती रंगमंच के अद्भुत अभिनेता, निर्देशक श्रीराम लागू का यह कथन उनकी अपने जमीन की क्रान्तिधार्मिता की परंपरा का ही रहा है. डॉ. श्रीराम लागू ईश्वर और धर्म को नहीं मानते थे और जब वह अध्ययनरत थे, तब वैश्विक अकादमिक जगत नीत्शे के गॉड इज डेड, गॉड रिमेन्स डेड एंड वी हैव किल्ड हिम’ की अवधारणा से जूझ रहा था. संत तुकाराम, सावित्रीबाई फुले, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब, आदि की वैचारिकी की मिट्टी का यह किरदार भारतीय रंगमंच और चित्रपट का अद्भुत सितारा था. डॉ. लागू को धर्म में रुचि नहीं थी पर धर्म के भीतर व्याप्त पाखंड पर उन्होंने खुलकर अपनी राय दी, जो आज के फिल्मकारों और रंगकर्मियों में विरल है.
डॉ. लागू की डिग्री (एम.बी.बी.एस. और एम.एस.) डॉक्टरी की थी. कनाडा और इंग्लैंड से अतिरिक्त विशेष प्रशिक्षण भी लिया था पर उनकी प्रैक्टिस मानव जीवन और समाज की थी, जिसे उन्होंने अपने नाटकों, फिल्मों और लेखन में जीवंत किया. 20 से अधिक नाटकों का निर्देशन, 250 से अधिक हिंदी और मराठी फ़िल्मों में अभिनय करने वाले डॉ लागू को बीसवीं शताब्दी के मध्य के महानतम मंचीय अभिनेताओं में गिना गया. स्टेज पर उनका पदार्पण ‘इठे ओशालाला मृत्यु'(1969) से हुआ था. इसे वसन्त कानितकर ने लिखा था. विष्णु वामन श्रीवाड़कर के अद्भुत नाटक ‘ नटसम्राट’ में उनकी निभाई भूमिका भारतीय रंगमंच की उपलब्धि है. इसके अतिरिक्त मराठी में उन्होंने कुछ शानदार नाटक किये जिनमें सिंहासन, गारबो, सूर्या पहिलेले मानुस, कछेछा चंद्रा, पिंजरा और मुक्ता आदि प्रमुख हैं. नाटकों की यह लिस्ट बेहद लंबी है और डॉ. लागू तीन भाषाओं मराठी, हिंदी और गुजराती में समान रूप से आदरणीय रहे. बतौर अभिनेता मराठी सिनेमा में तो उनका कद एक मिथकीय किरदार सरीखा है. हिंदी में राजेश खन्ना के ढलते वर्षो में थोड़ी-सी बेवफाई, मकसद, सौतन, नसीहत आदि में भी थी लेकिन उनके अधिकतर औसत सिनेमा मेकिंग के दौर में भी उनके शानदार अभिनय को मुकद्दर का सिकंदर, देस परदेस, लावारिस, इन्कार, साजन बिन सुहागन, निशाना, स्वयंवर, देवता जैसी हिट फिल्मों में खासा नोट किया गया. डॉ. श्रीराम लागू अपने किरदार को जिस यकीन और बारीकी से निभाते थे, उसमें उस किरदार की लंबाई का फर्क मिट जाता था और दर्शक उनके किरदार के साथ भी घर लौटता था. यह उनके अभिनय प्रतिभा का प्रमाण ही है. उनके निभाये 250 से अधिक किरदारों में मंत्री, पुलिस कमिश्नर, बड़ा भाई, ससुर, डॉक्टर, प्रोफेसर, प्रिंसिपल, जज, दीवान साहेब, राय बहादुर, उद्योगपति, क्लर्क आदि न जाने कितने चेहरे हैं. सब किरदारों में यकीनी अभिनय के बाद का वह सौम्य चेहरा, भावप्रवण पनियल आँखें डॉ. श्रीराम लागू को सबसे जुदा और विशिष्ट व्यक्तित्व बनाती हैं. घरौंदा के लिए फ़िल्म फेयर का बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर अवार्ड (1978), कालिदास सम्मान (1997), सिनेमा और रंगमंच में शानदार योगदान के लिए मास्टर दीनानाथ मंगेशकर स्मृति सम्मान (2006), पुण्यभूषण पुरस्कार (2007) और कला और संस्कृति मंत्रालय के संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप (2010) भारतीय सिनेमा और रंगजगत में उनके योगदान का निदर्शन कराते हैं. 17 दिसम्बर, 2019 को 92 वर्ष की अवस्था में इस बेमिसाल कलाकार डॉ. श्रीराम लागू का देहांत हो गया. उनके पीछे रजतपट ओर उनकी चलती बोलती छवियाँ हैं और समाज के भेदभाव, कुप्रथाओं पर सीधी, तीखी टिप्पणियां हैं जो तीखी दिखती जरूर हैं पर एक समतामूलक समाज के निर्माण का स्वप्न दिखाती चलती है. डॉ. श्रीराम लागू साहब मेरे प्रिय शायर साहिर ने एक जगह लिखा “जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है/ जिस्म के मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते/ धड़कने रुकने से ऐलान नहीं मर जाते/ सांस थम जाने से फरमान नहीं मर जाते/जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती” – ये पंक्तियाँ मेरी ओर से आपको नजर है, आप जबकि अब नहीं है आपकी यादें हैं आपकी बातें है. अलविदा, खूबसूरत और बराबरी की दुनिया के स्वप्नद्रष्टा नटसम्राट डॉ. श्रीराम लागू.