-दिव्यमान यति
फ़िल्म मेकर्स को आज से शपथ लेनी चाहिए कि वो सिर्फ और सिर्फ इस समाज को प्रेम (सलमान वाला) जैसा ही प्रेमी देंगे. साहित्यकारों को भी इस बात पर अमल करना चाहिए. बाकी लोग मंटो को बड़े चाव से पढ़ते हैं बिना ये जाने कि मंटो कहते क्या थे. बस हवा चली बह लिए, बिना कुछ सोचे समझे. पर ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों को कौन समझाये कि समाज इतना असंवेदनशील नहीं जो एक फिल्मी किरदार की नकारात्मकता से प्रभावित हो जाये. जब कोई कंटेंट वयस्कों के लिए है तो वयस्कों को बेवकूफ न समझा जाना चाहिए, ये वयस्कों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए. यही वयस्क देश की सरकार बनवाते हैं और गिराते भी हैं, यही वयस्क किसी के साथ हुई नाइंसाफी के खिलाफ मार्च भी निकालते हैं. अगर आप इंसान हैं तो आपके विभिन्न भाव होते हैं और अगर आप कबीर सिंह( जो दो साल पहले अर्जुन रेड्डी हुआ करता था) जैसे किरदार से असहज हो जा रहे हैं या आपको लगता है उसे देख कर युवा उसी के जैसे गुस्सैल, बिगड़ैल, नशेड़ी, और बद्तमीज हो जायेंगे तो अब तक तो देश के युवाओं को डॉन( शाहरुख़ और अमिताभ वाला) बन जाना चाहिए था, फैजल खान( अरे वही क्लासिक फ़िल्म गैंग्स ऑफ़ वासेपुर वाला) बन जाना चाहिए था, गाड़ी उड़ा कर विदेशों के बैंक लूटने चाहिए थे (धूम) देवदास का देव और तेरे नाम का राधे तो हर युवा बना फिर रहा है और वो रॉकस्टार वाला जनार्दन याद है न? कबीर सिंह एक ऐसा किरदार है जो आपसे सही-गलत या परमार्थ की बात नहीं करता, या खुद को महान बनाने की कोशिश भी नहीं करता. वो बस एक कहानी को दर्शाता है. मैं खुद उस किरदार में 80% गलतियां निकाल सकता हूँ. और वो किरदार भी पूरी फिल्म में इन्हीं 80% गलतियों की वजह से तड़पता रहता है, लेकिन उसकी एक खूबी है कि वो कोशिश करता है अपने इस सनक पर काबू पाने की. वो एक ऐसा प्रेमी है जो अपने प्रेम को लेकर गंभीर है. वो अपने काम को लेकर प्रोफेशनल है, उसे पता है उसके पास बस उसकी डॉक्टरी ही एक अच्छी चीज़ है. लड़की के साथ का दुर्व्यवहार तब तक सही नहीं जब तक वो दोनों एक दूसरे को जानते नहीं थे. लड़का कॉलेज में सबके सामने लड़की को बिना मर्जी के किस करता है लेकिन वही लड़की मसूरी जाकर उस लड़के से वही करने को कहती है वो भी उसकी मर्जी के बिना. लड़का लड़की से, लड़की के परिवार से या अपने परिवार से दुर्व्यवहार करता है क्योंकि उस दुर्व्यवहार के पीछे एक वजह है, एक तड़प है, एक बेचैनी है, ढेर सारा गुस्सा है. ये इसलिए है क्योंकि वो ऐसा ही है. इस किरदार के कई सारे रंग है, वो दादी की मौत के बाद खुद को बदलने की कोशिश भी करने लगता है. वो लड़की को थप्पड़ मारता है तो लड़की से थप्पड़ भी खाता है और ज्यादा ही खाता है.
अगर सिनेमा या साहित्य से जुड़े होंगे, एक रचनाकार की तरह सोचते होंगे तो आपको महसूस होता होगा किसी किरदार को रचना क्या होता है. अगर आपका सिनेमा और साहित्य के कोई वास्ता नहीं तो ये सब आपके लिए किसी बकवास से कम नहीं होगा. एक रचनाकार के लिए उसका मुख्य किरदार उसके लिये सब कुछ होता है. वो उसको बेहतर और आकर्षक बनाने की हर संभव कोशिश करता है. ये आप पर है आप उस किरदार को स्वीकार करते हैं या नहीं.
आपकी नजर में समाज अगर इतना असंवेदनशील है तो आप समाज को कैद करके क्यों नहीं रखते? ना समाज घर से बाहर निकले और ना ही ऐसी किसी बातों से आहात हो. खैर समाज को लेकर अति संवेदनशील लोगों को ये सब बातें सीधे कलेजे में चुभ सकती है और कुछ लोगों को लगता होगा एक फिल्म पर फिजूल की बहस क्यों? पर किसी विषय की गहनता को समझने के लिए एक सार्थक बहस का होना तो जरूरी है ही. जब तक आप अपनी सोच के दायरे से बाहर नहीं झांकेंगे यूं ही कुएं के मेंढक बने रहेंगे. मुझे लगता है कबीर सिंह के लेखक या मेकर्स तो नहीं, लेकिन ये सोच कि समाज से ही उपजा एक किरदार हमारे संवेदनशील समाज को तोड़ देगा ये समाज के लिए खतरनाक है. बाकी असहमति और आलोचना का आपको भी उतना ही हक़ है जितनी ऐसी फिल्में बनाने का है. ये बहस तो बहुत पुरानी है जिसे चलते रहने देना चाहिए, सुनना भी चाहिए और बोलना भी चाहिए.
इनसब के बाद यही कहूँगा कबीर सिंह एक किरदार है जो थोड़ा कड़वे करेले जैसा है, देखें या न देखें, पसंद करें या न करें, ये आपका अपना फैसला है.