Fri. Mar 29th, 2024

It’s All About Cinema

जो दांव लगाते हैं वही इतिहास बनाते हैं: गौरव द्विवेदी

1 min read

filmania entertainment


-गौरव

दुनिया में कम ही ऐसे इंसान होते हैं जो कामयाबी भरे अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकल अपने दिल की सुनने और मन की करने का जोखिम उठाते हैं. और यकीन मानिये जो ऐसा करते हैं वही इतिहास रचते हैं. आज आपकी मुलाकात ऐसी ही एक शख्सियत से कराने जा रहा हूं जिसका किस्सा यकीनन हर उस इंसान को इंस्पायर करेगा जो दिल और दिमाग की जद्दोजहद के बीच किसी भंवर में उलझा है. सेंट पॉल इंदौर का लड़का  इंजीनियरिंग करता है, आगे की पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया जाता है, लौटकर किसी अन्य के शिक्षण संस्थान में पढ़ाते-पढ़ाते खुद का इंस्टिट्यूट खोल लेता है. और इतनी कामयाबी के बाद एक दिन अचानक अपने दिल की सुन सब कुछ छोड़छाड़ निकल पड़ता है मुंबई मायानगरी में एक और संघर्ष के रास्ते. ऐसे किस्से शायद सुनने में फिल्मी ही लगे, पर ये किस्सा फिल्मी नहीं बल्कि हकीकत है फिल्मों और वेब सीरीज में एक पुख्ता पहचान बना चुके सिने अभिनेता गौरव द्विवेदी की. फिल्मेनिया के हमनाम गौरव से बातचीत के दौरान रंगरसिया, बॉम्बे समर, इनकार, हवाईजादा, मांझी द मॉउंटेनमैन के साथ मेड इन हेवन और क्रिमिनल जस्टिस जैसी सीरीज में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा चुके गौरव द्विवेदी ने अपने मन की कई गिरह खोल के रख दी.

– शुरुआत करते हैं मन के उस उथल-पुथल से जिसने आपको कामयाबी भरी ज़िंदगी पीछे छोड़ एक नए संघर्ष (सिनेमा) के रास्ते मोड़ दिया.

– इंजीनियरिंग के बाद मैं एक कोचिंग संस्थान में पढ़ाने लगा था. फिर कुछ दिनों बाद पोस्ट ग्रेजुएशन करने के लिए ऑस्ट्रेलिया गया. ये बात 2004 की है. वहां गए कुछ ही दिन बीते थे. एक दिन मेट्रो में सफर करते समय मैं खुद से बातें करने लगा, खुद में खुद को तलाशने लगा कि आखिर मैं करना क्या चाहता हूं, बनना क्या चाहता हूं. जवाब में मन ने रंगमंच की दिशा में दौड़ लगा दी. थिएटर, कहानियों के साथ-साथ समाज के लिए कुछ करने की इच्छा ने अंदर थिरकना शुरू कर दिया. उस पल को मैं अपनी ज़िन्दगी का सबसे कीमती और खुशगवार पल मानता हूँ. और आप यकीन नहीं करेंगे, कुछ महीनों में ही पढ़ाई अधूरी छोड़कर मैं वापस इंडिया आ गया. चूँकि फीस में काफी पैसे लगा चूका था तो उन्हें चुकाने की गरज से फिर से पढ़ाना शुरू किया. और सबकुछ निबटाकर एक दिन निकल पड़ा रंगमंच के रास्ते. पहले दिल्ली फिर एफटीआईआई पुणे और आखिर में मुंबई.

-कहानी भले आपने आसानी से सुना दी, पर निश्चित तौर पर राह उतनी आसान नहीं रही होगी. खैर रुख थोड़ा पीछे करते हैं. शुरूआती पढ़ाई कहां हुयी?

– पैदा इंदौर में हुआ. ११वीं तक की पढ़ाई सेंट पॉल इंदौर से ही की. फिर १२वीं के बाद एमआईटी मंदसौर से इंजीनियरिंग की. फिर जीआरई (ग्रेजुएट रिकॉर्ड एग्जाम) क्लियर कर पोस्ट ग्रेजुएशन करने ऑस्ट्रेलिया गया. पर नियति को कुछ और ही मंजूर था. इस बीच मेरी पूरी फैमिली अमेरिका माइग्रेट हो गयी. मैं भी पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए अमेरिका ही जाना चाहता था पर फैमिली माइग्रेशन के वक़्त मैं 21 का हो चूका था और माइग्रेशन के लिए मेरा वीसा क्लियर नहीं हो पाने की वजह से मैं नहीं जा सका.

-दिल्ली ने कैसे स्वागत किया?

-उपरवाले का एक करम रहा है मुझपर कि जब-जब जो चाहा, जिस काम के लिए मेहनत की, उसने सब दिया. दिल्ली पहुंचा तो उसकी मेहरबानी से पहले ऑल इंडिया रेडियो में अनाउंसर का काम मिला. कुछ वक़्त बाद रेड एफएम में आरजे बना. साथ ही साथ एक्ट वन थिएटर ग्रुप ज्वाइन किया. पांच-छह महीने वहां थिएटर करने के बाद प्रयोग नामक संस्था के साथ पहला प्ले किया, रविंद्र नाथ टैगोर लिखित मुक्तधारा. जिसमें मैंने प्रिंस का किरदार निभाया.

-बचपन में कभी थिएटर या फिल्में करने का ख्याल आया था?

स्कूल में मैं कल्चरल एक्टिविटीज में एक्टिव था. मोनो परफॉर्म भी किया करता था. घर में फिल्में देखने का माहौल था तो फिल्में भी खूब देखा करता था. तब अक्सर घर में वीसीआर आती थी जिसके जरिये फिल्में देखने को मिलती थी. पर इतना सब होने के बावजूद फिल्मों में ही जाना है ये कभी जेहन में नहीं आया. ये बीज जो मैंने आपको ऑस्ट्रेलिया वाली घटना बताई उस वक़्त मेरे मन में पड़ी.

-दिल्ली से आगे की कहानी विस्तार से बतायें.

-2005 के अक्टूबर में मैंने एफटीआईआई ज्वाइन किया. वहां मेरे बैच में राजकुमार राव, जयदीप अहलावत, विजय वर्मा जैसे लोग थे. कोर्स के फाइनल में हमनें मुंबई के इस्कॉनटेम्पल में एक प्ले किया जिसका नाम था, दिमागे हस्ती, दिल की बस्ती, है कहां, है कहां…जिसमें मेरा काम देखने के बाद केतन मेहता साहब ने मुझे 2007 रंगरसिया में रोल ऑफर किया. जो मेरी पहली फिल्म थी जिसकी शूटिंग मैंने कोर्स करते हुए की थी. फिर 2008 की जनवरी में मैं मुंबई आ गया.

– एफटीआईआई जैसे संस्थान इस फील्ड में किस हद तक मदद पँहुचाते हैं?

– ईमानदारी से कहूं तो बड़े संस्थान से होना कई मामलों में फायदा देता है तो कुछ जगहों पर मुश्किलात भी खड़े करता है. मेरे हिस्से तो इसने ज्यादातर फायदा ही दिया है. कई बार ऑडिशंस जैसे जगहों पर किसी संस्थान का न होना आपको ज्यादा मदद करता है. पर एफटीआईआई, एनएसडी जैसे संस्थान आपको बखूबी मांज देते हैं. आप सिनेमा की हर विधा से पहले परिचित हो जाते हो. अंदर एक अलग तरह का कॉन्फिडेन्ट आ जाता है, जो हर कदम पर आपको हिम्मत देता है.

– मुंबई आने के बाद का सफर कैसा रहा?

– मुंबई आने के बाद मुझे तुरंत एक इंडिपेंडेंट फिल्म बॉम्बे समर मिली. फिल्म भारतीय मूल के एक अमेरिकन प्रोडूसर-डायरेक्टर की थी, जिसे नेशनल-इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में काफी सराहना मिली. फिल्म के साथ-साथ मेरे काम की भी सराहना हुयी. इसके तुरंत बाद मुझे सुधीर मिश्रा जी की इनकार मिली. और फिर आया मेरे करियर का सबसे अहम् मोड़, 2012, जहां मुझे दूरदर्शन टीवी सीरीज गोरा मिली. रबिन्द्र नाथ टैगोर की इस फेमस कृति में मुझे गोरा का किरदार करने को मिला. उसने मुझे सटिस्फैक्शन के साथ-साथ नाम भी दिया. इसके बाद मैंने तकरीबन 40-50 ऐड फिल्म्स भी की. इसी दौरान मैंने अमेरिका जाकर एक इंडिपेंडेंट फिल्म ‘FOR HERE OR TO GO’ की. फिर मुझे मिली क्रिमिनल जस्टिस. यहाँ भी मेरे काम को काफी सराहा गया. अभी मैं नेटफ्लिक्स की एक सीरीज बाहुबली कर रहा हूं, जो राजामौली सर की बाहुबली का प्रीक्वल है.

– इस बीच एक और चर्चित फिल्म आयी मांझी द मॉउंटेनमैन. कुछ इसका अनुभव बताएं.

– इस फिल्म का अनुभव तो काफी रोमांचक था. इस फिल्म में मैं बिलकुल आपकी भूमिका में था, जुझारू पत्रकार. इसकी शूटिंग के दौरान का एक मजेदार वाक्या सुनाता हूं. जब हम शूटिंग के लिए दशरथ मांझी के गांव पंहुचे, वहां उनके बेटे-बहु थे. बातचीत के दौरान उनकी बहु ने कहा- इनका बाप इनकी मां के लिए पहाड़ तोड़ दिया और बेटा हमको अस्पताल तक नहीं ले जाता है. बातों-बातों में एक डायलॉग भी बोल गयी कि गोली चले या छर्रा, बात करेंगे कर्रा. वहां मुझे एहसास हुआ कि बिहार में अब महिलाएं भी सशक्तिकरण की बात करने लगी हैं. ऐसी बात तो अपने पूरे जीवन में मैंने कहीं नहीं सुनी. फिर दशरथ मांझी की सिद्ध भूमि पर शूट करने का तो अलग ही रूहानी आनंद था.

– अब इन सब से इतर एक आखिरी सवाल, सोशल साइट्स पर गौरव द्विवेदी का एक अलग ही काव्यात्मक और रूहानी अंदाज प्रसंशकों को देखने मिलता है. वो गौरव का कौन सा रूप है?

– (हँसते हुए), वो गौरव के अंदर का बेचैन साहित्यकार है. जिंदगी के अनुभवों, रोज के भाग-दौड़ के बीच जो देखता हूं, महसूस करता हूं, जीता हूं, उसे ही शब्दों के सहारे आप सबके बीच रख देता हूं. उपरवाले का करम है कि आप सबों को पसंद भी आ जाता है. बस ज़िन्दगी से कुछ लिया तो ज़िन्दगी को कुछ लौटा जाने की कोशिश करता हूं.