-मार्कण्डेय राय ‘नीरव’
“जिया हुआ प्रेम और सुना गया संगीत, लौटकर ज़रूर आते हैं.”
-गीत चतुर्वेदी
तमिल सिनेमा की एक फिल्म है ’96’. बहुत सुंदर फिल्म है. कई दिनों से आधा देखकर छोड़ा था, आज पूरी कर ली. मैं जल्दबाज़ी में नहीं रहता. अच्छी बातों को पकने देता हूँ.
फिल्म की कहानी ही उसका प्राण है. कहानी है के. रामचद्रंन(राम) की. राम पेशे से फोटोग्राफर हैं. इसी सिलसिले में वो अपने स्कूल पहुँचते हैं. जहाँ उनकी स्मृतियाँ हरी हो जाती हैं. दोस्तों से बात करके वो एक रियुनियन प्लान करते हैं. वहाँ उनकी भेंट जानकी(जानू) से होती है. कहानी बस इतनी-सी है.
दक्षिण के सिनेमा को लेकर मेरा पुर्वाग्रह रहा है. मुझे लगता रहा है कि वहाँ बस मार-काट वाली फिल्में बनती रही हैं. ’96’ जैसी फिल्में देखकर पूर्वाग्रह ध्वस्त होता देख रहा हूँ.
सुंदर कहानी को किस कोमलता से ट्रीट करना चाहिये इस कहानी से सीखा जा सकता है. इसमें करन जौहर वाला रियूनियन नहीं है कि जिसमें मिले दोस्त दम्भ भरते नहीं थकते हैं. कुल मिलाकर ये फिल्म ‘तेरा-मेरा’ की फिल्म नहीं है.
फिल्म की मूलभाषा तमिल है. और तरीका तो ये है कि कला का रसपान उसके मूलरूप में किया जाय. पर मैंने ये फिल्म हिंदी में देखी. इसके अपने दुष्परिणाम हुए.
फिल्म में संवाद नहीं भी होते तो फिल्म इतनी ही सुंदर होती. वैसे भी प्रेम को शब्द नहीं चाहिये होते हैं. इसमें कई दृश्य ऐसे हैं कि बस ठहर जाने को जी चाहता है. भागदौड़ से इतर फिल्म एकदम शांत बढ़ती रहती है-नदी की तरह.
फ़िल्म की कहानी क्या बताऊं? कहानी बस इतनी है कि राम और जानकी स्कूल में एक दूसरे को चाहते हैं. राम के पिता पर कर्ज रहता है जिसकी वजह से घर बेच कर उनको दूसरे शहर जाना पड़ता है. इधर कुछ सालों बाद जानकी की शादी हो जाती है. और फिर बीस साल बाद वो रियूनियन में मिलते हैं. बस इतना ही.
कई दृश्य कविता से हैं;सुंदर कविता. यहाँ मुझे गौरव सोलंकी याद आते हैं. आर्टिकल-15 का एक दृश्य है जब गौरा और निषाद आखिरी बार मिल रहे होते हैं. वो दृश्य भी एक कविता थी. कवि फिल्म भी लिखता है तो वो एक तरह से कविता गढ़ रहा होता;चलती कविता.
राम और जानकी के दसवीं की छुट्टियां होती हैं. वो दोनों साईकिल से साथ निकलते हैं. बिना कुछ कहे विदा लेते हैं. कुछ क्षण बाद राम अपनी साईकिल पुल पर रोकता है. जानकी पीछे-से आती है. और स्याही निकालकर फेंकते हुए कहती है-
” मुझे भूल मत जाना. “
राम ने बीस साल बाद भी वो शर्ट संभाल कर रखी है. प्रेम भूलने कहाँ देता है?
राम बिना बताये शहर छोड़कर जाता है. जानकी स्कूल में उसको याद करती है. एक दृश्य है जब जानकी राम की बेंच के पास जाती है और उसको स्पर्श करती है, याद करती है कि कभी राम यहीं बैठा करता था. यकीन मानिये वो दृश्य छप जाता है, गहरे कहीं दिल के अंदर. उस एक दृश्य के साथ मैं खुद अपने स्कूल पहुँच जाता हूं. स्कूल के पास में एक जामुन का पेड़ होता था. कक्षा की एक लड़की के साथ वहीं जामुन चुनकर खाता था. अभी भी स्कूल से गुज़रता हूँ तो उस जामुन को झाँक आता हूँ.
इम्तियाज़ की एक फिल्म आयी थी ‘लैला-मजनू’. याद है? उसके एक दृश्य में क़ैस(मजनू) लैला को कई सालों के बाद देख रहा होता है. पहली नज़र देखते ही वो बेहोश हो जाता है. कई साल की मेमोरी एक साथ फ्लैश हों तो शरीर संतुलन खो देता है. .
जानकी ने भी जब राम के सीने पर हाथ रखा तो वो अचेत हो गया. बीस साल बाद भी ऐसा हुआ. एक और याद बांटने की छूट चाहता हूँ. जिस लड़की के साथ जामुन खाता था उसको बस स्कूल ड्रेस में ही देखा था. एक रोज़ की बात है. मैंने अभी साईकिल चलाना सीखा था. कहीं से लौट रहा था कि रास्ते में उसको देखा. फ्रॉक में थी. रंग अभी भी याद है. उसे देखने के चक्कर में साईकिल लेकर सड़क किनारे खुदे गढ्ढे में घुस गया. हैंडल से सीने में चोट आई थी. अब हँसी आती है.
फिल्म ऐसे ही कोमल दृश्यों से भरी है. फिल्म का एंड रुलाने वाला है. विदाई बेला की पीड़ा को शब्द नहीं दिया जा सकता.
मुझे ऐसी फिल्में बहुत भाती हैं जिनमें ठहराव हो, झरने जैसे दृश्य हों, साँझ हो, सुबह हो, गाँव हो, शांति हो, प्रेम हो. नायक नायिका के लिये कविता लिखे और नायिका नायक के लिये इडली बनाकर लाए. फ़िल्में ऐसी ही होनी चाहिए. तेरा-मेरा,मार-काट मुझे नहीं सुहाता.
अगर कविता और सिनेमा से प्रेम है तो आपको यह फिल्म देखनी चाहिए. और सरल शब्दों में कहूं तो अगर आपको किसी से भी प्रेम है तो आपको यह फिल्म देखनी चाहिए.और आखिर में,
पाँचवी बाद में मुझे आगे पढ़ने के लिये मुंबई जाना पड़ा था. स्कूल में आखिरी दिन था. जामुन वाली लड़की ने जामुन से रंगे हाथ मेरी शर्ट पर रखते हुए कहा था-
” मुझे भूल मत जाना. “