Fri. Apr 19th, 2024

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जिद और जज्बे ने दिलाई पहचान: सौमेंद्र पाधी

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soumendra padhi


– गौरव

यूं तो हर रोज हज़ारों लोग आँखों में सपने लिए मुंबई की धरती पर उतरते हैं पर मुंबई भी उनपर ही अपने रहमो-करम की नवाजिश करती है जिनमें सपने देखने के साथ-साथ मेहनत और लगन के दम पर डटे रहने का जज्बा भी हो. कुछ ऐसी ही कहानी है पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर धूम मचा रही वेब सीरीज जामतारा और नेशनल अवार्ड विनिंग फिल्म बुधिआ सिंह के निर्देशक सौमेंद्र पाधी की. इंजिनीरिंग के क्षेत्र में जमे-जमाये पेशे को झटके में छोड़कर बॉलीवुड की अनिश्चितता भरी दुनिया में कदम रखने का जोखिम भरा फैसला और उस फैसले को दुनिया की नजरों में सही साबित करने के लिए जी-तोड़ मेहनत का नतीजा ही है जिसने इतने कम समय में सौमेंद्र को एक नई पहचान दिला दी. जामतारा के पहले सीजन को एन्जॉय करने के साथ-साथ अगले सीजन पर शिद्दत से काम कर रहे सौमेंद्र ने फिल्मेनिया के गौरव से बातचीत के दौरान उड़ीसा से मुंबई वाया हैदराबाद की कई अनछुई बातें साझा की.

– सबसे पहले तो जामतारा की सफलता के लिए ढेरो बधाईयां. इंजीनियरिंग का स्टूडेंट फिल्ममेकिंग में आता है और पहले ही फिल्म से नेशनल अवार्ड पा जाता है, कौन सी ताकत रही इसके पीछे?

– शुक्रिया, ताकत का तो पता नहीं पर मन का विश्वास और सिनेमा की जिद ही इसका सबसे बड़ा कारण दिखती है. वरना आप ही देखिये, उड़ीसा के जयपुर जैसी छोटी जगह का लड़का इंजीनियरिंग के बाद हैदराबाद की अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़ आता है, उसे तो ये तक पता नहीं था कि सिनेमा बनता कैसे है. पर मुंबई आकर एक ऐड एजेंसी ज्वाइन करता है. सिनेमा के लोगों के संपर्क में आता है, सीखना शुरू करता है और फिर एक दिन फिल्म बना डालता है. इसके पीछे मेहनत के सिवा और तो मुझे कुछ दिखता नहीं.

– शुरूआती यात्रा को थोड़ा विस्तार से बताएं.

– उड़ीसा के जयपुर का रहने वाला हूं. पढाई-लिखाई भुवनेश्वर से हुई. आर्मी स्कूल का पढ़ा हूं. फिर भुवनेश्वर से ही इंजीनियरिंग की. पढाई के बाद हैदराबाद नौकरी लगी तो वहां चला गया. पर वो कहते हैं ना आपका पहला प्यार कभी आपका पीछा नहीं छोड़ता. और बचपन से ही सिनेमा मेरा पहला प्यार था. हमेशा से इच्छा थी कि सिनेमा में जाऊं. पर बचपन में ऐसा लगता था कि सिनेमा में काम करने वाले लोग किसी और ही दुनिया के होते हैं. मतलब एक्स्ट्राऑर्डिनरी टाइप. फिर जब हैदराबाद आया तब उस प्यार ने फिर से उफान मारी. और मैं उसके पीछे-पीछे मुंबई तक चला आया.

– फैमिली वालों ने कुछ नहीं कहा?

– आपको जानकार आश्चर्य होगा कि मेरी फैमिली को पता नहीं था कि मैं नौकरी छोड़ चूका हूं. वो तो जब आठ महीनों बाद मेरी कंपनी की ओर से कोर्ट का लेटर (एचआर पॉलिसी के तहत) घर पहुंचा कि मैं मिसिंग हूं तब जाकर उन्हें पता लगा कि मैं मुंबई में हूँ. मेरी फैमिली ने बचपन से मुझे हर काम के लिए सपोर्ट किया है. मेरी नौकरी लगने पर घरवाले इतने खुश हुए थे कि भगवान के आगे  21000 दीये जलाये थे, तो नौकरी छोड़ने की बात पर सब थोड़े दुखी थे, होना लाजमी भी था. फिर आगे के एक साल तक हमारे बीच कोई बात भी नहीं हुयी.

– फिर ये बीच की तल्खियां कब कम हुई?

– जब मैं बुधिआ सिंह की तैयारी कर रहा था, चूंकि ये कहानी उड़ीसा के लिए काफी मायने रखती थी तो उस वक़्त ये खबर वहां के अखबारों में सुर्खियां बनी. वहीं से मेरे चाचाजी और मौसी ने यह बात घर में बताई तब जाकर सबको लगा कि मैं मुंबई में कुछ तो कर रहा हूं. और फिर जब बुधिआ सिंह को नेशनल अवार्ड मिला तब पूरी फैमिली को लगा मेरा वो कुछ करना शायद अच्छे के लिए ही था.

– मुंबई का सफर शुरू कैसे हुआ?

– मुंबई पहुंचकर पहले तो संशय की स्थिति थी. वहां जाकर मैंने बेसिक्स एनीमेशन का कोर्स किया. कोर्स के दौरान मुझे एक शार्ट फिल्म करने का भी मौका मिला. फिर मैंने बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर एंड कास्टिंग डायरेक्टर एक ऐड कंपनी कोड रेड ज्वाइन की. वहां मुझे गजराज राव सर के साथ काम करने का मौका मिला. कुछ शार्ट फिल्म्स भी मैंने इस दौरान की. उसी वक़्त कुछ कहानियां मेरे दिमाग में चल रही थी. जिनमें बुधिआ सिंह एक थी. पहले मैं चाहता था कि ये कहानी किसी और से लिखवाऊं. पर राइटर को देने के लिए पैसे नहीं थे तो दो साल लगाकर ये कहानी मैंने खुद लिखी. कई-कई बार रिसर्च के लिए उड़ीसा गया. और जब अपने ऐड एजेंसी में इस कहानी के बारे में बात की तो वो प्रोड्यूस करने के लिए तैयार हो गए. उन्होंने ही मनोज सर ( मनोज बाजपेई ) को स्क्रिप्ट भिजवाई जिसे पढ़ते ही उन्होंने फिल्म के लिए हाँ कह दी. उसके बाद की कहानी तो इतिहास ही बन गयी.

– पहली फिल्म और नेशनल अवार्ड.

– सच कहूं तो पहले मुझे नेशनल अवार्ड की इतनी अहमियत ही नहीं पता थी. लगता था बाकी अवार्ड्स की तरह ये भी अचीवमेंट्स में जुड़ जाएगा. पर इसकी घोषणा के साथ ही जैसे दुनिया ही बदल गयी. शोहरत, लोगों की नज़रों में इज़्ज़त और काम से सबकी उम्मीदें अचानक से बढ़ गयी. मनोज सर को तो इस फिल्म से और ज्यादा नेशनल अवार्ड्स की अपेक्षा थी. पर मैंने तो सोचा भी नहीं था ऐसा कुछ होगा. जो हुआ उम्मीद से कहीं बढ़कर हुआ.

– बुधिआ सिंह के बाद जामतारा की सफलता. इसकी कहानी क्या है ?

– जामतारा के राइटर ने फिशिंग के बारे में किसी न्यूज़ पेपर में पढ़ा था. फिर उन्होंने जामतारा जाकर रिसर्च की. उसी दौरान मेरी पहली फिल्म नेटफ्लिक्स पर आ गयी. नेटफ्लिक्स वाले भी जामतारा के लिए निर्देशक की तलाश में थे. उन्होंने मुझे अप्प्रोच किया. पहले तो मुझे कहानी कुछ ठीक से समझ ही नहीं आयी. लगा क्या अजीब सब्जेक्ट है, ऑनलाइन फ्रॉड. पर जब डिटेल्स में गया तो मजा आने लगा. झारखंड का एक ऐसा छोटा सा क़स्बा, जिसकी कूल आबादी ही 2000 के करीब और वहां मोबाइल्स  की तकरीबन 40 दुकानें. साक्षरता की कमी के बावजूद दुनिया से ऑनलाइन ठगी कर रहे युवा. एक बार इस कहानी में उतरा तो उतरता ही चला गया.

– कितना चैलेंजिंग रहा शूट ?

– मेरे लिए तो सबसे मुश्किल था झारखण्ड के कल्चर और भाषा से पूरी तरह अनभिज्ञ होना. शुरुआत में तो काफी मुश्किलें आयी. पर ज्यों-ज्यों शूट करता गया और झारखण्ड को करीब से जानने लगा यकीन मानिये मुझे वहां की मिट्टी से प्यार हो गया. अब तो मैं झारखण्ड के तकरीबन हर बड़े शहर से रूबरू हो चूका हूँ. भोजपुरी की मिठास अब भाने लगी है. अब तो जामतारा के दूसरे सीजन की तैयारी शुरू हो चुकी है. लगता है कितनी जल्दी वापस उस आबोहवा की बाहों में समां जाऊं.

– चलिए भविष्य और जामतारा के अगले सीजन के लिए आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं.

– शुक्रिया.