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इरफ़ान : कई चांद थे सरे आसमां

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IRRFAN KHAN


-पुंज प्रकाश

29 अप्रैल 2020 का मनहूस दिन, जब एक बालू के कण के लाखवें टुकड़े से भी छोटे वाइरस की वजह से पूरी दुनियां घरों में क़ैदियों की तरह जीने को अभिशप्त हो गई थी, यह मनहूस ख़बर आती है – इरफ़ान अब हमारे बीच नहीं रहे. हम सब स्तब्ध हो जाते हैं और अपने-अपने मोबाइल से सोशल मिडिया पर अपनी संवेदना और शोक व्यक्त करने लगते हैं. वैसे एक सत्य यह भी है कि तकलीफ़ जितनी गहरी होगी मौन उतना मुखर होगा.

वहीं कुछ बीमार लोग ऐसे भी थे जो उनकी मौत पर जश्न और तंज कर रहे थे. किसी का मानना था कि एक जेहादी कम हुआ तो कोई कह रहा था काफ़िर को अल्ला ने सज़ा दिया. माना कि ऐसे लोग बहुत कम हैं लेकिन हैं और इनके प्रोपगेंडा का शिकार होकर आज एक बहुत बड़ा आवाम बीमार हो गया है.

अब सवाल यह है कि वो कौन लोग हैं जिन्हें इरफ़ान जैसे फ़नकार से समस्या होती है? वे वही लोग हैं जो धर्म, कौम, मज़हब के नाम पर लोगों को गुमराह करके अपना एजेंडा चलाते हैं और इसे कौम, दीन, धर्म और देशभक्ति से जोड़ देते हैं. आख़िर इन्हें समस्या क्या है? समस्या यह है कि इरफ़ान जैसे लोग धर्म, जाति के नाम पर पैदा की गई संकीर्ण सोच को न केवल मानने से इनकार कर देते हैं बल्कि उसे सरेआम ज़ाहिर भी करते हैं, बोलने की हिम्मत रखते हैं और उसके लिए खुले दिमाग से तर्क भी देते हैं. यह काम वो बतौर अभिनेता नहीं बल्कि बतौर नागरिक और बतौर एक चिन्तनशील मष्तिष्क में रखनेवाले इंसान के रूप में कर रहे होते हैं. वो अपने ख़ुदा, खुदाई पुस्तकें और इंसान के बीच में आनेवाले किसी भी चीज़ को मानने से न केवल इनकार कर देते हैं बल्कि साफ़ लहजों में कहते हैं कि मेरे ख़ुदा ने मुझे इल्म दिया है और मेरा फ़र्ज़ बनता है कि धर्म की पुस्तकें मैं स्वयं पढूं और उसकी संकीर्ण नहीं बल्कि वैश्विक मानव समाज के लिए वृहद, आज़ाद और मानवीय व्याख्या प्रस्तुत करूँ. ऐसा कहते हुए वो एक व्यक्ति की व्यक्तिगत आज़ादी, उसकी सोच और समझ की मानवीय प्रयोग को बढ़ावा देने के साथ ही साथ और धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार की संकीर्णता को चुनौती प्रस्तुत करते हैं. वो साफ़ कहते हैं कि “किसी को यह हक़ नहीं कि मुझे यह बताए कि मेरा खुदा मुझसे क्या चाहता है, बल्कि मुझे ख़ुद पढने और समझने का हक़ है.” ऐसा कहते हुए वो धर्म के तमाम ठेकेदारों के सामने तार्किक चुनौती प्रस्तुत करते हैं तो धर्म के नाम पर इंसान के दिमाग को कुंद बनानेवालों के पेट में ऐंठन का शुरू होना एक स्वाभाविक सी बात हो जाती है क्योंकि उनका सारा कारोबार ही लोगों के दिमाग बंद करके उसे कूड़ेदान में बदल देने का है.

अब सोचनेवाली बात यह भी है कि जब हम उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे थे तो क्या हम उस इरफ़ान को भी याद कर रहे थे जिसके भीतर यह सारी बातें खुलकर प्रकट करने का साहस था या फिर हम केवल उस फ़नकार को याद करके विफर रहे हैं जिसको हमने विभिन्न पात्रों को अद्भुत तरीक़े से जीवंत करते हुए छोटे-बड़े स्क्रीन पर देखा है? सनद रहे कि मौत इंसान को आती है कला और कलाकार को नहीं. इरफ़ान की कला और बतौर कलाकार इरफ़ान अमर हैं, किसी भी मौत के फ़रिश्ते में इतना दम नहीं कि फ़नकार और इसकी कला की मौत सुनिश्चित करे.

दूरदर्शन का ज़माना था और केवल टीवी सन 1948 में अमेरिका में जन्म तो ले चूका था लेकिन भारत में उसका जाल अभी फैला नहीं था. वैसे भारत में टेलीविजन का प्रसारण 15 सितम्बर 1951 में हुई थी. लेकिन तब यह मात्र दिल्ली तक ही सिमित थी. सन 72 में अमृतसर और मुंबई में इसका विस्तार होता है. 75 तक सात शहरों में प्रसारण शुरू होता है. फिर 1982 का काल आता है जब दूरदर्शन रंगीन होकर जनजन तक प्रसारित होना शुरू होता है. केवल शैक्षणिक और विकास के आधे घंटे के कार्यक्रम से शुरू होकर अब यह यात्रा आज कहाँ पहुँच चुका यह बताने की ज़रूरत नहीं है.

रामायण और महाभारत बहुत सारे घरों में टीवी पहुंचाकर अपने एपिसोड ख़त्म कर चुके थे. दर्शक किसी और चीज़ की बाट जोह रहा था कि नीरजा गुलेरी बाबू देविकी नन्दन खत्री के प्रसिद्द उपन्यास पर आधारित धारवाहिक चन्द्रकांत लेकर आते हैं और दर्शक एक बार पुनः चंद्रकांता की फंतासी में गिरफ़्त होकर टीवी से चिपक जाते हैं. रुकते चलते कुल 133 एपिसोड प्रसारित होते हैं और चन्द्रकान्ता के चरित्र घर-घर में लोकप्रिय होने लगते हैं. क्रूर सिंह का “यक्कू” बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर राज़ करने लगता है लेकिन वहीं एक और अभिनेता अपनी अदाकारी से दर्शकों की स्मृतियों में घर जाता है, वो चरित्र था बद्रीनाथ और सोमनाथ नामक जुडवा भाई, जिसे बड़ी ही कुशलता से निभा रहे थे अभिनेता इरफ़ान खान. सन 1994 से 96 तक चले इस धारवाहिक ने इरफ़ान खान को थोड़ा लोकप्रिय कर दिया था. इससे पहले बनेगी अपनी बात नामक धारवाहिक से इरफ़ान अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत टीवी जगत में कर चुके थे. यह सीरियल 1993 से लेकर 97 तक चला, जिसमें इरफ़ान कुमार की भूमिका अभिनीत कर रहे थे. फिर बारी आई चंद्रप्रकाश द्विवेदी के सीरियल चाणक्य (1991-92) की, जिसमें इरफ़ान सेनापति भद्रशाल का चरित्र निभा रहे थे. जवाहरलाल नेहरु की पुस्तक “द डिस्कवरी ऑफ इंडिया” पर आधारित शो भारत एक खोज में भी इनकी भूमिका थी. फिर लाल घास पर नीले घोड़े नामक टेलीप्ले की बारी आती है. मिखाइल शत्रोव लिखित रूसी नाटक से रूपांतरित दूरदर्शन के इस टेलीप्ले में इरफ़ान लेनिन की भूमिका अभिनीत करते हैं. फिर डर में सीरियल किलर की बारी आती है, अली सरदार जाफ़री निर्देशित कहकशां में कवि मखदूम मोहिउद्दीन का किरदार, भंवर जैसे सीरियल से होकर गुज़रती है. राजस्थान रंगमंच से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नईदिल्ली से होते हुए इनकी अभिनय यात्रा मीरा नायर की विश्वप्रसिद्ध फिल्म सलाम बॉम्बे (1988) नामक फिल्म में छोटी सी भूमिका से शुरू हो जाती है. लेकिन इनकी प्रतिभा की लोकप्रियता की शुरुआत सन 2003 में फिल्म हासिल से होती है जिसमें इरफ़ान न केवल सिनेमाई दर्शकों के दिल दिमाग में घर बनाते हैं अपितु उन्हें इस भूमिका के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार हासिल होता है, उसके बाद इरफ़ान इतिहास हो जाते हैं. लेकिन यहाँ ध्यान देने लायक बात यह भी है कि 1988 से लेकर 2003 यानी कुल 15 साल एक कलाकार को अपनी कला को दर्शकों तक पहुंचाने और लोकप्रियता हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और अनगिनत दुःख, दर्द, तनाव, पीड़ा और चुनौतियों का समाना करना पड़ता है. अपना पेट और घर चलाने के लिए पता नहीं क्या क्या करना पड़ता है और वो अपनी उस भूमिका में भी खरे उतरते हैं क्योंकि कोई भी सच्चा कलाकार किसी भी काम को कभी छोटा मानता ही नहीं है. लेकिन यह भी सत्य है कि वक्त से साथ संघर्ष करते हुए अपने सपने को ज़िंदा रखना और उसे तरोताज़ा रखना, हर किसी के वश की बात नहीं है. फिल्म नगरी के इस मायाजाल और निहायत ही क्रूर चक्र में फंसकर न जाने कितने बेहतरीन कलाकार समय के साथ फना हो गए. किसी ने सत्य ही कहा है कि एक सफलता के पीछे अनगिनत असफलताएँ होतीं हैं! क़ाबिल एक से एक थे, ज़िद्द, जूनून और समर्पण भी था पर मौक़ा बहुत चुनिंदा लोगों को ही मिल पता है और उससे भी कम होते हैं जो मौक़े को मौक़ा में बदल पाते हैं. अब सबकुछ इतना क्रूर क्यों है, इसका जवाब हमें ख़ुद ही तलाश करना होगा वैसे चार्ली ने सही कहा था कि सोचा ज्यादा और महसूस कम किया जाता है.

7 जनवरी 1967 को इरफ़ान का जन्म राजस्थान के खजुरिया नामक गांव में होता है. पढ़ाई के साथ वो क्रिकेट खेलते हैं और 23 साल से कम उम्र के खिलाड़ियों के लिए उनका चयन सीके नायडू टूर्नामेंट खेलने के लिए होता तो है लेकिन किसी कारणवश वो शामिल नहीं हो पाते हैं. फिर रंगमंच की यात्रा शुरू होती है. जाना एफटीआईआई होता है लेकिन उस वक्त वहां अभिनय विषय की पढ़ाई नहीं हो रही होती है तो सिनेमा में नाम कमाने का ख़्वाब लिए 1984 में राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय में अभिनय के विद्यार्थी बन जाते हैं और उसके फ़ौरन बाद सलाम बाम्बे नामक फिल्म में एक महत्वपूर्ण किरदार को अभिनीत करने का मौक़ा उनके पास आ जाता है लेकिन बाद वो उस भूमिका की जगह उन्हें एक छोटी सी भूमिका पकड़ा दिया जाता है. वो निराश होते हैं लेकिन उस काम को करते हैं और चुकी आखें आगे होती हैं तो वो आगे देखने लगते हैं. वैसे जिन्होंने उन्हें गौर से देखा है वो जान्नते हैं कि उनकी आँखे अलग हैं, बहुत अलग – प्रखर, बोलती और मदहोश कर देने वालीं. उन्हें ही नहीं बल्कि सबको इस बात का इल्म था, अपनी आख़िरी फ़िल्म अंग्रेज़ी मीडियम के एक दृश्य में इरफ़ान का चरित्र कहता है – “तुम्हारी माँ, कहती थी मेरी आखें बड़ी नशीली हैं.” अब यह संवाद किसी अन्य अभिनेता की आँखों पर जमता है क्या. ठीक ऐसी ही मदहोश कर देनेवाली आँखें मीना कुमारी की तब होती हैं जब वो साहब बीबी और ग़ुलाम में “ना जाओ सैयां छुड़ाके बैंया, क़सम तुम्हारी मैं रो पडूँगी” गाती हैं.

सन 2012 में इरफ़ान अपने नाम के बीच एक आर और केवल इसलिए जोड़ देते हैं क्योंकि उन्हें एक अतिरिक्त आर की ध्वनि बड़ी पसंद आती है और इस प्रकार वो Irfan से Irrfan हो जाते हैं. सन 1996, जब भारतीय सिनेमा उद्योग में खान होना एक गौरव का विषय माना जाता है और चारों तरफ़ खान का बोलबाला था, ठीक तभी वो अपने नाम में से खान हटा देते हैं कि लोग उनके काम से उन्हें परिभाषित करें न कि वंश या कौम के नाम से.

विभिन्न नाटकों और नाट्य-प्रशिक्षणों से गुज़रने के बाद इरफ़ान की अभिनय यात्रा सलाम बॉम्बे 1988 से अंग्रेजी मोडियम 2020 तक चलती है. यह कोई बहुत लम्बी पारी नहीं है लेकिन सार्थक तो है ही. उनकी फिल्म अभिनय यात्रा कमला की मौत, जज़ीरा, दृष्टि (1989), एक डॉक्टर की मौत (1990), पिता, द फादर (1991), मुझसे दोस्ती करोगे (1992), करामाती कोट (1993), द क्लाउड डोर, पुरुष (1994), बड़ा दिन (98), द गोल, गाथा, (2000), द वारियर, कसूर, बोक्शु द मिथ, प्रथा (2001), काली सलवार, गुनाह, हाथी का अंडा (2002), हासिल, धुंध: द फॉग, फूटपाथ, मकबूल, द बाइसेप (2003), शैडो ऑफ टाइम, आन : मैन ऐट वर्क, रोड़ टू लद्दाख, चरस (2004), चोकोलेट, रोग, चेहरा, साढ़े साथ फेर (2005), यूँ होता तो क्या होता, द फिल्म, द किलर, डेडलाइन, सैनिकुडू (2006), ए माइटी हार्ट, लाइफ़ इन ए मेट्रो, द नेमशेक, द दार्जलिंग लिमिटेड, अपना आसमान, पार्टीशन (2007), तुलसी, सन्डे, क्रेज़ी ४, मुम्बई मेरी जान, स्लमडॉग मेलिनियर, चमकू, दिल कबड्डी (2008), एसिड फैक्ट्री, बिल्लू, न्यूयार्क, न्यूयार्क आई लव यु (2009) , राईट या रौंग, नौक आउट, हिस्स (2010), ये साली ज़िन्दगी, सात खून माफ़, थैंक यू (2011), पान सिंह तोमर, द अमेजिंग स्पाइडरमैन, लाइफ ऑफ पाई (2012), साहब, बीबी और गैंगस्टर रिटर्न, डी डे, द लंचबॉक्स (2013), गुंडे, हैदर (2014), किस्सा, पीकू, जुरासिक वर्ल्ड, तलवार, जज्बा (2015), द जंगल बुक, इन्फेनो, मदारी (2016), हिंदी मीडियम, डूब, द सौंग ऑफ स्कोर्पियन (2017), ब्लैकमेल, पज्ज़ल, कारवां (2018), अंग्रेजी मीडियम (2020) तक भारतीय और विदेसी फ़िल्मों तक चलती है लेकिन सच यह भी है भारतीय सिनेमा जगत इरफ़ान, नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर जैसे अनगिनत प्रतिभाओं का समुचित प्रयोग कर पाने में आज भी सक्षम नहीं है.

जब हम इरफ़ान को याद करें तो यह भी याद रखें कि वो केवल एक बेहतर अभिनेता नहीं बल्कि एक सजग, सहज और ज़िम्मेदार इंसान का नाम भी था जिसका पैदाई मज़हब चाहे जो हो लेकिन था वो इंसानी मज़हब का पैरोकार. क्योंकि आज अगर इंसान इंसान हो न रहकर एक दुसरे के ख़िलाफ़ नफरत और साज़िश करने का उपकरण बन जाए तो फिर उसके होने न होने का कोई अर्थ ही नहीं बचता है.

“पठान के घर में यह ब्राह्मण कहाँ से पैदा हो गया.” इरफ़ान के अब्बा का एक मज़ाक में कहते हैं. वहीं इरफ़ान बड़े होकर ना केवल एक शानदार अभिनेता का दर्ज़ा हासिल किया बल्कि अपने विचार भी कुछ इस प्रकार प्रकट किए – “ऊपर वाले और मेरा रिश्ता पर्सनल है, उसे समझाने के लिए मुझे किसी उलेमा की ज़रूरत नहीं है. सारे धर्म के रास्ते खुले हुए हैं, मैं सबके मार्फ़त उसे समझूंगा. मज़हब वैश्विक रूप से खुले दिमाग से अपनेआप को खोजने का माध्यम है.

जैसे ही मैं कहता हूं कि मुझे यह होने पर गर्व है, वह होने पर गर्व है; मैं अहंकार और गुरुर से भर जाता हूँ, जो मुझे हमेशा ग़लत रास्ते पर ही ले जाएगा.”

इसलिए जब इरफ़ान को याद किया जाए तो मात्र यह न याद किया जाए कि वो एक लोकप्रिय विधा के एक लोकप्रिय और सफल अभिनेता थे बल्कि यह भी अच्छे से याद किया जाए कि वो एक चिंतनशील और खुले दिमाग वाले इंसान भी थे. बिना दिमाग और स्वच्छ विचार के कोई भी इंसान किसी प्रकार सफल/असफल जीवन जी तो सकता है लेकिन सार्थक और बेहतरीन कलाकार नहीं बन सकता क्योंकि कला का सीधा सम्बंध आपकी सोचदानी और नज़रिए से है. दिमाग कुंद रखके कोई डिक्टेटर हो सकता है, कलाकार नहीं. जब एक कलाकार मात्र के रूप में भी केवल इरफान को याद करें तो यह ज़रूर सोचें कि उनकी फिल्मों ने यह क्यों कहा कि “हम सपने दिखाते हैं, तुम देखते हो. सच्चाई दिखती नहीं. (मदारी)” या फिर “बीहड़ में बागी होते हैं, डाकू संसद में पान सिंह तोमर)” या “सरकार भ्रष्ट नहीं होती – – (एक लंबा मौन) भ्रष्टाचार के लिए ही सरकार होती है. (मदारी)” बहुत सी बातें और हैं लेकिन फ़िलहाल निवेदन केवल इतना कि किसी भी बात को बनने या न बनने में लाखों बातें होती हैं, इसलिए जब सोचा जाए तो सम्पूर्णता में चिंतन हो, वरना सब हवा है.

इरफ़ान अपनेआप को एक अदना सा अभिनेता ही मानते थे और वो पर्दे और जीवन में जब भी सामने आए बड़े अदब के साथ आए. उन्होंने ने ऐसा कभी कुछ नहीं किया जिसकी वजह से बतौर एक कलाकार या इंसान उनको कभी शर्मिंदगी महसूस करना पड़े. अपने मुफ़लिसी के दौर में भी कुछ कर लेने भर को उन्होंने कला माना ही नहीं बल्कि वह उनके लिए हमेशा ही एक ज़िम्मेदारी का काम ही रहा. उनकी इच्छा थी कि वो उर्दू के लेखक शम्सुर्रहमान की पुस्तक कई चांद थे सरे आसमां पर सिनेमा बना सकें. इरफ़ान की यह चाहत पूरी होगी या नहीं, इसका जवाब फ़िलहाल शायद ही किसी के पास है.

इसी बीच आज पृथ्वीराज कपूर, राज कपूर की इंसानियत वाली परम्परा के वंशज जिंदादिल ऋषि कपूर के देहावसान की पीड़ा से भी हम सब गुज़र रहें हैं. उन्हें सलाम और उनके द्वारा अभिनीत फिल्म मुल्क़ और कई अन्य फिल्मों को एक महत्वपूर्ण, साहसिक और अर्थवान काम मानते हुए आगे कुछ लिखने की कोशिश किया जाएगा. फ़िलहाल लगता है जैसे कहीं कोई शानदार कास्टिंग कर रहा है और इसके लिए जानदार कलाकारों की दरकार है और बात मुस्तफ़ा ज़ैदी के इस शेर के साथ फ़िलहाल समाप्त करने की इजाज़त चाहता हूं कि

इन्हीं पत्थरों पे चलकर अगर आ सको तो आओ
मेरे घर के रास्ते में कोई कहकशां नहीं है.