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इम्तियाज़ अली का सिनेमा : वहाँ इश्क़ ही मज़हब है, वही इबादत भी और आज़ाद रूहों के विद्रोह की अभिव्यक्ति भी

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 डॉ. एम. के. पाण्डेय
डॉ. एम. के. पाण्डेय

इम्तियाज़ अली के सिनेमाई प्रयोग को परदे पर देखना दरअसल एक इंसान के भीतर के मानवीय इमोशन्स और उसके विभिन्न परतों से गुजरने जैसा है. लड़कियाँ या कहें तो नायिकाएं विशेषकर हिंदी सिनेमा में अधिकतर एक भर्ती का टूल्स बनकर ही आती रही हैं. पर कुछ फिल्ममेकर्स ने नायिकाओं को लेकर भी किस्सों की एक बेहद संजीदा दुनिया रची हैं. इम्तियाज़ की नायिकाएं इस मामले में प्रचलित हीरोइनों की छवि को लगातार ब्रेक करती हैं. वहाँ इश्क की तीव्रता केवल नायक के हिस्से नहीं है बल्कि नायिकाओं में अपने होने के सवाल की मौजूदगी दूसरों से कहीं अधिक है. सोचा न था कि नायिका बड़े प्यार से इंसानी कमजोरियों और अपने भीतर के जज़्बातों से जूझते अपने निर्णय के साथ निकल अपनी दुनिया की कथा रचने का साहस दिखाती हमारे आसपास का सुंदर संसार रच देती है. यह समाज अपनी महिलाओं पर बहुत कड़ी निगरानी रखता है. समाज चाहता है कि वे समाज के किसी नियम का उल्लंघन न करें. इसके लिए वह साम-दाम-दंड-भेद सबका उपयोग करता है.” इम्तियाज़ का सिनेमा समाज के इसी स्टीरियोटाइप को बिना लफ़्फ़ाज़ी के तोड़ने की कवायद करता है और इस कवायद की पैरवी नायिका के हिस्से होती है. सोचा न था, जब वी मेट, लव आजकल, हाइवे, तमाशा तक यह एक किस्म का विद्रोह कि मैं भाग जाना चाहती हूँ और वह अपनी उस दुनिया से भागती है. पर उसके पार्श्व में दुःख की वीणा नहीं है बल्कि उदात्त का सौंदर्य और प्रेम की आज़ादी का मद्धम संगीत निहित है.  इम्तियाज़ की स्त्रियाँ बौद्धिक हैं पर उनमें बौद्धिकता का रूखापन नहीं है, वह खुद की निजता और अपने होने और अपने चाहने के साथ खड़े होने में नायकों के समकक्ष खड़ी होती है और यही उनको विशेष बनाती है. तमाशा की नायिका को तमाम सहयोगी परिस्थितियों में यह लगता है कि वह नायक उसका वही पुरुष नहीं, जिसे वह चाहती है. पर वह केवल इसी बिंदु पर नहीं ठहरती बल्कि नायक को भी उसके अपने होने के दुनिया में लौटने की प्रेरक शक्ति भी बनती है. प्रेम एक किस्म की आज़ादी है और समाज के यथास्थितिवाद के खिलाफ विद्रोह भी और इम्तियाज़ का सिनेमा इसी की मुखालफत करता है. इम्तियाज़ के भीतर का निर्देशक और लेखक इस पूरी प्रक्रिया में रूमी, बुल्लेशाह, बाबा फरीद, शिवकुमार बटालवी सरीखे दर्शन और उनकी कविताईं का संसार रचते हुए इस कठोर दुनिया में प्रेम की पीर और उसकी कोमलता को लेकर पर्दे पर उतरता है. ये प्रेम कहानियाँ नायिकाओं के भागने भर की कथा नहीं है बल्कि अपने होने की खोज है इसलिए इम्तियाज़ की नायिकाएं अव्यक्त संसार की दुनिया को सामने लेकर आती है, अपनी दबे हुए भावसंसार के पक्ष में खुलकर सामने आने की सार्थक कोशिश करती दिखती हैं. शायद इसी वजह से उनकी कथाएं विशिष्ट हो जाती हैं.

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वैसे भी इस दुनिया में नफरतों और घृणा का टनों लोहा और लावा बिखरा पड़ा है जहाँ नफरत और बैर के बारूदी ढेर पर बैठा इंसान अपनी इस खूबसूरत दुनिया को खुद नष्ट करने की हद तक पागल हुआ पड़ा है. वहाँ इम्तियाज़ बड़े नफासत से इंसान की उस नस को पकड़ लेते हैं जिसे प्यार कहते हैं. इम्तियाज़ के किस्से एक स्त्री की अपनी भीतरी दुनिया को बयान नहीं करते बल्कि वह बेहद बारीकी से यह कहते हैं कि इस खूबसूरत दुनिया को आने वाली नस्लों के लिए बचाने की सख्त जरूरत है और इसको बचाने के लिए नफरतों का लावा नही मजहबी दीवार नहीं बल्कि इश्किया जुनून चाहिए क्योंकि वहीं है, जो तमाम गर्म होती जमीन और माहौल में शीतलता भर सकती है. यह फिल्मकार प्यार और पौधे लेकर आया है और किस्सों में स्त्रियों का पक्ष लेकर क्योंकि पुरुषों ने बेशक ध्वंस रचा हो पर सृजन का इख्तियार केवल हमारी औरतों और नायिकाओं के हिस्से ही प्रकृति ने दी है. यह सूफियाना इंसान इम्तियाज़ अली इसलिए न केवल हमारे समय के इश्कमिजाजी बल्कि इस समाज और समय की अनिवार्य जरूरत बनकर सामने आते हैं. लेकिन रुकिए क्या किस्सा यही भर है. मुझे लगता है जॉर्डन की पीड़ा और उसकी बेबसी का बयान दरअसल पिछली सदी के बड़े दार्शनिक अल्बेयर कामू के उस कथन की सिनेमाई अभिव्यक्ति बन जाता है जहाँ वह लिखते हैं – the only way to deal with an unfree world is to become so absolutely free that your very existence in an act of rebellion. इम्तियाज़ के यहाँ इश्क़ ही मज़हब है, वही इबादत भी और आज़ाद रूहों के विद्रोह की अभिव्यक्ति भी. यह पीढ़ी किस्मतवाली है कि उनकी दबी पीड़ाओं और अव्यक्त चुप्पियों को आवाज़ देता एक फ़िल्मकार उनके साथ खड़ा है.