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इफ्तेखार (Iftekhar) : हिंदी सिनेमा का विस्मृत चेहरा (2)

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 आलेख: मुन्ना के पांडेय
आलेख: मुन्ना के पांडेय

किशोर कुमार का एक गीत है – ‘जाना था जापान पहुँच गए चीन समझ गए ना’ – इफ्तेखार पर यह गीत सटीक बैठता है. इफ़्तेख़ार कौन अरे वही जो हीराबाई हिरामन के बीच का विलेन जमींदार बना था. इफ्तेखार की दुनिया अलहदा थी. रुचि पेंटिंग में, शौक गाने का और बन गए एक्टर – ये थे इफ़्तेख़ार .

वह विलेन बेहद प्यारा था. उसने एक ही किस्म के दो दो दर्जन से अधिक भूमिकाएं निभाई होंगी, फिर भी हर बार उतना ही भरोसे का जान पड़ता था गोया पिछले वाले रोल में कोई और ही रहा होगा. किरदारों में अधिकतर एक से होते हुए भी सैयदना इफ़्तेख़ार अहमद उर्फ इफ़्तेख़ार ने हिंदी सिनेमा में 400 के लगभग फिल्मों में जज, खलनायक, वकील, डॉक्टर, पुलिस कमिश्नर, इंस्पेक्टर, जैसे रोल निभाए. 22 फरवरी 1920 में जालंधर, पंजाब में पैदा हुए इफ़्तेख़ार ने लखनऊ कॉलेज ऑफ आर्ट्स से डिप्लोमा इन पेंटिंग किया था. बीस साल की खासी युवा उम्र में के एल सहगल की गायकी से प्रभावित होकर तबके मशहूर संगीतकार कमल दासगुप्ता को ऑडिशन देने कलकते जा पहुँचे. गायकी तो नहीं पर इफ़्तेख़ार की पर्सनालिटी से प्रभावित होकर दासगुप्ता साहब ने मुम्बई की सूझ थमा दी. अशोक कुमार से उनका परिचय कलकते वाला था, थोड़े मेहनत के बाद बात बन गयी. इफ़्तेख़ार को मुम्बई रास आ गयी. रास भी ऐसी वैसी नहीं हिंदी सिनेमा के गोल्डन कहे जाने वाले पीरियड से 1990 तक के चार से ऊपर दशकों तक इफ़्तेख़ार हिंदी सिनेमा में एक चर्चित उपस्थिति हो गए थे. 1967 में उन्होंने अमेरिकन टीवी सीरीज ‘माया’ और दो अंग्रेजी फिल्में ‘बॉम्बे टॉकीज(1970), और सिटी ऑफ जॉय(1990)’ में भी काम किया. ये सब कुछ केवल जानकारियां भर  हैं पर मेरे लिए इफ़्तेख़ार दो मामलों में अधिक जंचते हैं (वैसा तीसरा, दो पर एक फ्री बिल्कुल फ्री जैसा है) या ये कहें कि इन दो भूमिकाओं में कालजयी भूमिकाओं में हैं. किन वजहों से कालजयी यह मत पूछियेगा क्योंकि उसमें आपको शायद कुछ कालजयी जैसा कुछ न दिखे पर मेरा मानना है कि हिरामन के अपनी टप्पर गाड़ी में से उलट के पीछे देखकर “तीसरी कसम खाने और टेशन पर बिचारी हीराबाई के लौट जाने के बीच यदि कोई शत्रु जान पड़ता था तो वह यह ठाकुर बने इफ़्तेख़ार ही थे.

Iftekhar

लेकिन दूसरी वजह प्यार वाली है. दीवार में यह वही डावर साहेब बने जिसने अमिताभ के बारे में बेशक किरदार वाली सलीम-जावेद की लिखी लाइनें बोली हों पर अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई अमिताभ के लिए. याद कीजिए यश चोपड़ा की इस कल्ट ब्लॉकबस्टर को, जिस पर विनय लाल ने दीवार नामक अंग्रेजी किताब ही लिख मारी. प्रो. विनय लाल यूसीएलए में इतिहास और एशियाई अमेरिकी अध्ययन विभाग के प्रोफेसर हैं. वह औपनिवेशिक और आधुनिक भारत के इतिहास और संस्कृति पर व्यापक रूप से लिखते हैं, भारत में लोकप्रिय और सार्वजनिक संस्कृति (विशेषकर सिनेमा) पर उनका खासा काम है. बहरहाल, वापिस इफ़्तेख़ार के उस अमर वचन पर, जहां उन्होंने बोला तो अमिताभ के केरेक्टर के लिए ओपनिंग सिनेमाई संवाद, पर ठीक उसी क्षण सरस्वती उनकी ज़ुबान पर आकर बैठ गयी थी. उस फ़िल्म के खास दृश्य में वह अपने साथी कलाकार सुधीर से कहते हैं – “जयचंद! ये लंबी रेस का घोड़ा है. तुमने इस लड़के के तेवर देखे? यह उम्रभर बूट पॉलिश नहीं करेगा, जिस दिन ज़िंदगी के रेस में इसने स्पीड पकड़ी, ये सबको पीछे छोड़ देगा. मेरी बात का ख्याल रखना.” – अमिताभ के बारे में ये बात आज भी सौ टका सच है. कहाँ तो वह काम के लिए शुरू में कोई भी रोल करने को बेताब बैठे थे और कहाँ बाद का किस्सा. तो इफ़्तेख़ार के इस हिस्से में हमारा बचपन अपनी पेंच फंसाये बैठा रहा है.

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तीसरा फ्री वाला किस्सा “तीसरी कसम” से जुड़ा हुआ है. हीराबाई के सामने इफ़्तेख़ार वाले जमींदार का रोल झांसी के तरफ के कोई असल वाले जमींदार कर रहे थे. वह निर्देशक और निर्माता के मुंहलगे भी थे. पर सिनेमा का उनको कुछ खास ज्ञान न था, उधर जमींदार का रोल कंट्रास्ट के लिए रचा गया था सो निर्देशक ने एक्शन बोला हीराबाई उर्फ वहीदा रहमान ने नजाकत से पान ऑफर किया. सीन था कि जमींदार हीराबाई से कहता है आप अपने हाथों से ही ख़िला दीजिए ना! कैमरा रोलिंग हुआ जीवन के असल किरदार वाले उस जमींदार ने वहीदा जी के पान ऑफर करने पर संवाद बोला और सीन पूरा हुआ कि निर्देशक ने ‘कट’ बोला तभी अकबकाकर असल जीवन के जमींदार ने वहीदा जी की उंगली दांतों से काट ली. उनको लगा कट इसीलिए बोला होगा. हुआ हंगामा, बड़ी मुश्किल से वहीदा जी दुबारा काम के करने को मानीं और भाई जमींदार बाबू फ़िल्म से बाहर हुए, अभिनेता इफ़्तेख़ार अंदर हुए. अच्छा हुआ जो जमींदार इफ़्तेख़ार ही आए वरना, कहानी का क्या तियाँ पांचा होता. अलबत्ता, अपने लिए तो आज तक इफ़्तेख़ार हीराबाई और हीरामन की लव स्टोरी के अधूरेपन की मूल जड़ लगते हैं. तो खैर ये फसाना भी फिर कभी! चलते-चलते इफ़्तेख़ार के प्रति हिंदुस्तानी सिनेमची समाज को इसलिए भी कृतज्ञ होना चाहिए कि पुलिस की समाज में चाहे जो छवि हो पर लोगों को यह समझ इफ़्तेख़ार के रोल से ही आई कि ” अपने आपको पुलिस के हवाले कर दो/ पुलिस ने तुम्हें चारो ओर से घेर लिया है “- क्या मजाल जो हम कभी इन संवादों को किसी और से सुन पाते. हिंदी सिनेमा के सबसे शानदार चरित्र अभिनेता इफ़्तेख़ार का जन्म 22 फरवरी, 1920 को हुआ और 04 मार्च 1995 को उन्होंने इस दुनिया से विदाई ली. जाते-जाते यह जान लीजिए कि चंद्रा बरोट वाले डॉन में सारी भसड़ इफ़्तेख़ार, ‘जो उस फ़िल्म में डीएसपी बने हैं’ कि लाल डायरी की वजह से ही हुआ था जो अमितभवा उर्फ विजईया बनारस वाले को बीच मंझधार में फंसा कर निकल लिए थे. इफ्तेखार हिंदी सिनेमा में एक समय का वह चेहरा थे, गोया भोजन में नमक हो और आप तो जानते ही हैं नमक बिना स्वाद कहाँ .

हिंदी सिनेमा का विस्मृत चेहरा : सुधीर (Sudhir) उर्फ भगवान दास लूथरिया

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