-पुंज प्रकाश
लोकतांत्रिक ही नहीं बल्कि किसी भी व्यवस्था में सच्ची, समर्थ, उचित, ईमानदार, सामाजिक हित, अधिकार, निर्भीक और कलात्मक अभिव्यक्ति की महत्वपूर्ण उपस्थिति से हम चाहकर भी इंकार नहीं कर सकते और ना ही उसकी बेबाक उपस्थिति और ज़रूरत को ही कोई सजग इंसान अस्वीकार कर सकता है. वैसे स्वीकार तो अन्तः उनको भी करना होता है जो हमसे असहमत होते हैं। वैसे भी असहमति लोकतांत्रिक प्रणाली की ख़ासियत है, कमज़ोरी नहीं. एक ऐसे समय में जब असहमति को विद्रोह या देशद्रोह से जबरिया जोड़ने की चेष्टा और शुतुरमुर्ग बनाने की साजिश बड़े ही ज़ोरदार तरीक़े से फ़र्ज़ी देशभक्ति के आवरण में लिपटकर हमारे सम्मुख उपस्थित हो रही है, ऐसे समय में गिरीश कार्नाड होना एक गौरवपूर्ण बात है. वो ना केवल एक रचनाकार स्वरूपा थे बल्कि ज़रूरी और लोकतांत्रिक मूल्यों के समर्थक एक्टिविस्ट भी. जब ज़रूरत पड़ी तब किताबों, फिल्मों और रंगमंच की दुनियां से बाहर निकलकर हस्तक्षेप करने में उन्होंने कभी अपनी हिचक प्रदर्शित नहीं की. गिरीश कार्नाड केवल इसलिए महत्पूर्ण नहीं थे कि वे हमारे समय के प्रतिनिधि नाटककार थे बल्कि उनकी महत्ता इसलिए भी थी कि वे हमारे समय के प्रमुख निर्भीक लोकतांत्रिक आवाज़ों में से एक थे और हमें आज के समय में ऐसी आवाज़ों की ज़रूरत सबसे ज़्यादा है.
नाटककार, निर्देशक, अभिनेता, कवि गिरीश रघुनाथ कार्नाड का जन्म 19 मई 1938 माथेरान, ब्रिटिश भारत (वर्तमान में महाराष्ट्र, भारत) और निधन 10 जून 2019 (उम्र 81) बैंगलोर में हुआ. उन्होंने अपना पहला नाटक कन्नड़ में लिखा जिसे बाद में अंग्रेज़ी में भी अनुवाद किया गया. साथ ही उनके नाटकों में ‘ययाति’, ‘तुग़लक’, ‘हयवदन’, ‘अंजु मल्लिगे’, ‘अग्निमतु माले’, ‘नागमंडल’ और ‘अग्नि और बरखा’ रक्त कल्याण, काफी प्रसिद्ध रहे हैं. ययाति – गिरीश कार्नाड का चर्चित नाटक.
गिरीश कर्नाड को 1994 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, 1974 में पद्म श्री, 1992 में पद्म भूषण, 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1992 में कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार और 1998 में उन्हें कालिदास सम्मान से सम्मानित किया गया है. 1980 फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार – सर्वश्रेष्ठ पटकथा – गोधुली (बी.वी. कारंत के साथ) इसके अतिरिक्त कई राज्य स्तरीय तथा राष्ट्रीय पुरस्कार.
गिरीश कर्नाड ने कर्नाटक आर्ट्स कॉलेज से मैथेमेटिक्स और स्टेटिक्स में किया था बैचलर ऑफ आर्ट्स. ऑक्सफोर्ड से हासिल की फिलॉसफी, पॉलिटिकल साइंस और इकोनॉमिक्स में मास्टर ऑफ आर्ट्स की डिग्री. 1974 से 1975 तक फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के डायरेक्टर रहे. 1988 से 1993 तक संगीत नाटक अकादमी के चैयरमैन पद को संभाला.
जब कभी भी लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन हुआ इन्होंने अपनी आवाज़ बतौर एक लेखक, बुद्धिजीवी, कलाकार और नागरिक बुलंद की, इस बात की परवाह किए बगैर कि इसका अंजाम क्या होगा. वो हमारे समय के बसवन्ना थे. बसवन्ना अर्थात इनके ही नाटक रक्त कल्याण का वो ऐतिहासिक चरित्र जो 12 वीं सदी में कट्टरपंथी विरोध और सुधार आंदोलन, लिंगायतवाद के प्रमुख योद्धाओं में एक रहे थे.