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हमारे समय का आईना है Short Film – ‘रंग’

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डॉ. एम. के. पाण्डेय
डॉ. एम. के. पाण्डेय

हिंदुस्तान का कोई एक क़स्बा है. उस क़स्बे के एक कोने में एक सायकिल मैकेनिक हमेशा की तरह या कहें कि अपने पेशेवर प्रजाति की तरह आम से थोड़ा नीचे की जिंदगी काट रहा है. रंग short film की कथा यही से शुरू होती है. एक सूचना है जिसमें दो भाइयों के बीच के तनाव की सूचना चेतावनी के अंदाज में है और वह सायकिल वाला कागजों पर भरे एक रंग लेकर सायकिल पर बैठकर देश की तीन रंगों और मनुष्यता का संदेश चुपके से दे जाता है. जमाने पहले हमारे देश में एक महात्मा हुए, जिन्होंने आज़ादी के बाद नेहरू के “Long years ago we made a tryst with destiny, and now the time comes…The ambition of the greatest man of our generation has been to wipe every tear from every eye.”  सुनने के बजाय उसके व्यवहारिक पक्ष को अपनाने के लिए नए आज़ाद किंतु जलते हिंदुस्तान के पक्ष में खड़ा होना स्वीकार किया था. असल में, आज़ादी की बुनियाद में जो बीज डाले गए थे, वह एकाएक साम्प्रदायिक रंगों में डूब गए थे, हर ओर पसरा रंग या तो गहरा स्याह रंग था या गाढ़ा लाल, चिपचिपा, जिसे देखने की आदत मनुष्यता की आँखों को तो कम से कम नहीं ही रही है.

short film

जीतेंद्र जीतू की कलम इसी रंग और उसकी हमारे जीवन में बन चुकी गैर जरूरी उपस्थिति पर सवाल उठाती है. जीतू की लिखत और उसकी संवेदना को सुनील पाल जब अपने दक्ष निर्देशन में पर्दे पर रचते हैं तो यह कथा अपने अंत तक आते-आते जमाल अहसानी के शेर की शक्ल अख़्तियार करता है “तमाम रात नहाया था शहर बारिश में/

वो रंग उतर ही गए जो उतरने वाले थे”- फिर इस रंग के बहाने जो अभिनय मानवेन्द्र त्रिपाठी ने किया है उसके कई शेड्स एक किरदार में दिखते हैं. मानवेंद्र के लिए एक सिंपल नैरेशन के किरदार में अपने किरदार की कितनी ही परतों को उभारना था, यह इसमें दिखता है और उन्होंने जिस संजीदगी से, बारीकी से इसको किरदार को जिया है, वह उनके थियेटर जीवन के समस्त सहेज का परिचायक है. जिन्होंने मानवेन्द्र को स्टेज पर देखा है वह जानते हैं कि उन जैसे अभिनेता के अभिनय कौशल का संसार कितना गहरा और विस्तृत है. यह मानवेन्द्र का उम्दा अभिनय का रंग भी है . उम्मीद है आने वाले समय में मानवेन्द्र के कुछ और रंग हमें देखने को मिले. बहरहाल, रंग शार्ट फ़िल्म है, पर उसका कहन हमारे समय की सबसे गंभीर और बड़ी बात है. रंग इस ओर इशारा है कि जब समाज में मनुष्य को मानुष धर्म के बजाय रंगों से तोला जाने लगे तो स्थिति कितनी गंभीर है.

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रंग एक जरुरी फ़िल्म है और उससे जरूरी इसकी लिखत, निर्देशन और अभिनय की तिकड़ी हमें हमारे जेहन में उतरने की टेर लगाती दिखती है, अन्तस् की टेर है यह , जिस ओर भागते दौड़ते हम देखना भूल गए हैं और इस अनदेखेपन में एक गहरी खाई अपने आसपास बनाते जा रहे हैं. ‘रंग’ यह बताती है कि यह देश जिन तीन रंगों से बना है वही हमारी पहचान है, तीन अलग-अलग रंग नहीं, वह बिखरने का सूचक है. अलग-अलग तो न हमारी पहचान मुकम्मल होगी, न मनुष्यता ही. 

असल में, ‘रंग दरकार थे हम को तिरी ख़ामोशी के/एक आवाज़ की तस्वीर बनानी थी हमें (नाजिर वाहिद) . बस इतनी-सी बात है, जिसे हमारे समय मे सबसे अधिक समझे जाने की जरूरत है और यह शार्ट फिल्म उसी का मुकम्मल बयान है. यह एक जरुरी फ़िल्म है और इसे जरूर देखा जाना चाहिए. यह शार्ट फ़िल्म मनुष्यता की आड़ में रंगों को ओढ़े समाज के लिए आईना भी है.