“हां मुझे नफरत हो रही है अपने पेशे से… मुझे नफरत हो रही है खुद से…”
पहली बार, हां ज़िन्दगी में पहली बार मुझे नफरत हुई अपने पेशे से. और वजह आप हैं “खान साहब”. ऐसा नहीं था यह पहली बार हुआ, पहले भी कई बार हो चुका है, पर कभी अपने पेशे से नफरत नहीं हुई थी. जब आप अपनी गाड़ी में हॉस्पिटल की ओर रवाना हो रहे थे ना, और जब यह दुनिया आपकी टूटती सांसों को अपनी दुआओं के दम पर फिर से जोड़ देने को आमादा थी ना, उस वक्त, उस वक्त मेरा पेशा मुझसे आपके बारे में डाटा इकट्ठी करवा रहा था, मेरा हाथ अपने लैपटॉप पर आपके चेहरे की लकीरे उकेर रहा था. जब इस वैश्विक त्रासदी के बीच सारी दुनिया अपने घरों में बंद होने को मजबूर थी ना, उस वक्त मैं भी अपने कमरे में अकेला बैठा आंखों से उमड़ते समंदर के बीच कुछ वैसा कर रहा था जो शायद ताउम्र मेरी आत्मा पर एक बोझ सा चस्पा रहेगा. मैंने पहले भी कहा यह पहली बार नहीं था, ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है. कई शख्सियतों के सांसों की डोर उखड़ने से पहले हमारा पेशा हमसे आगे होने वाले अनहोनी का हवाला दे वह सब करवा चुका है. पर तब कभी इस कदर ना रोया था अपने पेशे की बेबसी पर. जी करता है चीख-चीख कर आपसे पूछूं ऐसा क्या था आपकी शख्सियत में जो सालों से मेरे पैशन भरे पेशे से मुझसे ही नफरत करवा बैठा. कोई तो नहीं था मैं आपका, कोई तो नहीं थे आप मेरे, ना मैं आपसे कभी मिला, ना आप मुझसे कभी मिले, फिर क्यों? क्यों बार-बार मेरा कीबोर्ड मेरे आंसुओं से गीला हुआ जा रहा है. क्यों बार-बार मेरे हाथ मेरा ही साथ छोड़ने पर आमादा हैं. पर खान साहब, आप तो सुनेंगे नहीं, क्योंकि आप तो मुझे इस बंद कमरे में इतना अकेला छोड़ गए हैं जहां मेरी सिसकियां और मेरी चीख भी इन बेजान दीवारों से टकराकर मुझ तक ही लौट आ रही है. कैसे कोई शख्स इस कदर निष्ठुर हो सकता है खान साहब, जो यह भी देखने के लिए नहीं रुक सका कि कहीं कोई शख्स उसके लौटने के इंतजार में अपनी मेहनत के बर्बाद हो जाने की दुआएं मांग रहा था. हां सही सुना आपने, अगर आप सुन रहे हैं तो सुन लीजिए, आपको तो यह बखूबी पता होगा कि अपना किया गया काम सब को कितना प्रिय होता है. पर मैं था, हां मैं था जो हर बीते पल के साथ यही दुआ मांग रहा था कि मेरे यह सारे किए हुए काम बेकार चले जाएं. लैपटॉप के रिसायकल बिन से होते हुए परमानेंट डिलीट हो जाए. पर आप कहां सुनने वाले थे. आपने तो जैसे तय कर लिया था कि मेरे अंदर मेरे पेशे के लिए इतनी नफरत पैदा कर जाएं जो ताउम्र मेरे दिल में टीस बनकर चूभती रहे.
माफ करना खान साहब, पर किसी को अपना बना कर बीच राह अगर इस कदर छोड़ ही जाना था तो बेहतर होता हमारे अंदर अपने लिए इतनी मोहब्बत पैदा ही ना करते. किसी गैर को अपनाना, और अपना बना कर उसे फिर से छोड़ जाने का दर्द…उफ्फ!! आप तो इस दर्द के सहारे ही जिंदगी काटने को छोड़ गए खान साहब. अब तो वक्त का शायद ही कोई मरहम इस दर्द को कम कर पाए.
कल फिर सुबह होगी, दुनिया फिर अपनी रफ्तार में होगी. पर यकीन जानिए, इस 10*12 के कमरे की दीवारों से टकराकर लौटती सिसकियां, उन सिसकियों के भंवर में उपलाती मेरी आंखों की पुतलियां, और उन पुतलियों से लिपटे दर्द के अमरबेल मेरी दुनिया की रफ्तार कभी पहले जैसी नहीं होने देंगे.
नहीं जानता इस बोझ को लेकर अपने पेशे के साथ मैं कितना आगे जा पाऊंगा. पर एक बात तो तय है जब-जब अपने पेशे को लेकर पहले की तरह नाज करूंगा, आपका जाना उस गर्व से उठे चेहरे को धीमे से उसकी झुकी जगह याद दिला देगा.
आपको पता है खान साहब,आधी रात के इस सन्नाटे में जब सारी दुनिया नींद की आगोश में अंगड़ाइयां ले रही है ना, मैं बेचैनी की चादर लपेटे करवटें बदल रहा हूं. लगता है जैसे सदियों की उनिंदी, बोझिल पलकों पर अपने साम्राज्य का विस्तार कर देना चाह रही हो. पर मैं सोना चाहता हूं, एक गहरी नींद सोना चाहता हूं खान साहब, इस उम्मीद के साथ कि शायद जीवन-मरण और पुनर्जन्म जैसे कालखंड से भी लंबी और गहरी नींद के उस पार जब मैं अचानक सोकर जगूं तो मुझे झटके के साथ यह एहसास हो कि आपका जाना केवल और केवल मेरे किसी बुरे सपने का हिस्सा था. क्योंकि जाना बुरा नहीं है साहब, पर किसी अपने के जाकर वापस ना आने के दर्द के साथ जीना शायद मौत से कहीं बदतर है.
पर मेरा सवाल अभी भी अपने उत्तर की प्रतीक्षा में है खान साहब कि आखिर क्या रिश्ता था अपना, जो आपके ना होने का दर्द अब तक की जिंदगी में मिली खुशियों पर भारी पड़ गया. और इस उत्तर की तलाश में मैं आऊंगा, आऊंगा आपसे मिलने, समय-जीवन-मरण सारे कालचक्रों को पार कर आप की दुनिया में. और फिर वहां आप मुझसे नजरें नहीं चुरा सकेंगे. वहां आप मुझे यूं दर्द की सफेद चादर में लपेट कर नहीं जा सकेंगे, क्योंकि अगर गए तो आप भी उसी जगह खड़े होंगे जहां आज इस वक्त मैं खड़ा हूं…
जवाब के साथ इंतजार कीजिएगा खान साहब
जल्द ही मुलाकात होगी
आपका (रिश्ते की तलाश में) 🙏🖤🥺🙏©
✍️ गौरव