–पुंज प्रकाश
किसी भी बात पर जज़्बाती हो जाना, बिना जाने समझे ज्ञानी बनना, बिना इतिहास भूगोल जाने फतवा जारी करना, बिना समझे दूसरों को समझाना एक अतिप्राचीन फैशन है. लेकिन सबकुछ जान-समझकर शालीनतापूर्वक और कलात्मक और काव्यत्मक तरीक़े से अपनी बात रखना एक अद्भुत कला है और इस कला में बहुत ही कम लोग हैं जो उस्ताद हैं. निदा फ़ाज़ली का एक शेर याद आ रहा है –
कभी कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है
इस काम में एक से एक उस्तादों की कभी कोई कमी नहीं रही और सोशल मीडिया ने तो इनकी उस्तादी में जैसा चार चांद लगा दिया है. रही सही कसर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पूरा कर दिया है. बात मीडिया की चली है तो ज़रा उसी की बात कर लेते हैं. आजकल वेव का ज़माना है. तो वेब सीरीज का भी ज़माना आ ही रहा है धीरे-धीरे. अभी तक यह प्लेटफॉर्म सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेशन से दूर है. इसका नुक़सान भी है और लाभ भी. लेकिन तत्काल इसका लाभ उठाकर बहुत से लोग लगभग कूड़ा परोसने में लगे हैं. वहीं गोलीबारी है, सेक्स है. लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इसका लाभ बड़े ही संवेदनशील मुद्दे को उठाने में ले रहे हैं. ऐसी ही एक कोशिश का नाम है हामिद.
2018 में सारेगामा की यूडली फिल्म द्वारा निर्मित यह फिल्म मोहम्मद अमीद भट्ट द्वारा लिखित नाटक “फोन नंबर 786” का शानदार सिनेमाई रूपांतरण है. एजाज खान निर्देशित सन 2018 में यह कुछ गिने चुने सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो पाई थी लेकिन जैसा कि भारत में शानदार फिल्मों की नियति है, यह कब आई और कब चली गई पता ही नहीं चला. वर्तमान में यह नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है और यहां लोग इसे बड़े शिद्दत से देख रहे हैं. जिन्हें कश्मीर में जरा भी दिलचस्पी है उन्हें यह संवेदनशील और मासूम फिल्म जरूर देखनी चाहिए. बस निवेदन केवल इतना है कि किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह को दिमाग से निकालकर यह फिल्म देखें तब शायद समझ में आए कि आज कश्मीर कहाँ खड़ा है और उसकी वर्तमान में मूल समस्या क्या है. और अगर आपने इस फिल्म के बिंबों, प्रतीकों और संवाद के भीतर विद्दमान गूढ़ अर्थ (सब-टेक्स्ट) को पकड़ लिया तो आपका आनंद दुगुना हो जाएगा. तब शायद यह भी समझ में आए कि सिनेमा और किसी भी अन्य प्रकार की कला केवल बेसिर पर का पैसा कमाऊ उपकरण नहीं बल्कि समाज को सोचने, समझने और संवेदनशील व जागरूक बनाने का एक शानदार माध्यम भी है. अब आख़िर में एक दृश्य का ज़िक्र करना चाहूंगा (वैसे ऐसे दृश्य पूरी फिल्म में भरे पड़े हैं) कि 7 साल का हामिद अपना मेहनताना मांगता है तो उधर से जवाब मिलता है कि तुम अभी काम सीख रहे हो. बदले में यह मासूम जवाब देता है कि सीखने में भी मेहनत लगती है. बहरहाल, कश्मीर की ख़ूबसूरती और भयावहता को शानदार विम्बों और प्रतीकों के सहारे काव्यत्मक कथा कहती इस फिल्म को देखिए और कश्मीर व कश्मीरियों की असल समस्या को पूर्वाग्रह और भावना और आस्था रहित होकर समझने की चेष्टा कीजिए, इसी में सबकी भलाई है. बाकी राजनीति का क्या है उसके लिए तो हम सब केवल और केवल सत्ता प्राप्ति के साधन मात्र हैं. इससे ज़्यादा बात करने से कला का आनंद जाता रहेगा. अब ख़ुद देखिए और अपने बुद्धि और विवेक से तय कीजिए कि यदि आप या हम ऐसे हालात में रहते तो सच में क्या करते? बाकी किसी भी विषय पर कुछ भी बोल देने का क्या है, उसमें कोई पैसा थोड़े ना लगता है.