कुछ फ़िल्में देखकर मन उखड़ता ही है कि कोई एक जिंदा फ़िल्म फिर से सिनेमा से मुहब्बत को जवां कर देती है. नेटफ्लिक्स पर कुछ अच्छा ढूँढ रहा था, एक फिल्म का पोस्टर बार-बार सामने आता था, मैं इसका नाम पढ़ता था और यह सोचकर कुछ और खोजने लगता था कि उबाऊ सी होगी ये फिल्म. ऊब खुद की ऐब से पनपती है जब हम जिंदगी को बहुत ‘सेट’ जीने लग जाते हैं. इसकी अनिश्चितताओं को कतर कतर इसे बेजान बनाने की कोशिश में असफल भी हम होते हैं और सरपट जिंदगी के रोमांच से भी रह जाते हैं.
फिल्म ‘दो पैसे की धूप, चार आने की बारिश’ इस दम घोंटू ऊब, हांफती दौड़ और गहरे अकेलेपन की गहराईयों में उतरती है. बाजार, मुनाफे की नजर रखता है लेकिन सब तरह के सामान को एक दुकान जरूर मुहैया करा देता है. 2009 में एक फिल्म बनती है, तक़रीबन ग्यारह वैश्विक मंचों पर सराही भी जाती है लेकिन भारत में वाणिज्यिक तौर पर सिनेमाघरों में लगने को तरस जाती है. अपने पहले ही दृश्य से फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अपनी ताजी तासीर जता देती है लेकिन इसे सामान्य दर्शक तबतक देख नहीं सकते थे जब तक कि यह अपने बनने के दस साल बाद नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध नहीं हो जाती. बेहद प्रतिभाशाली चरित्र अभिनेत्री और इस फिल्म की लेखक व निर्देशक दीप्ति नवल, देवानंद साहब को यह फिल्म दिखाना चाहती थीं जो सम्भव न हो सका.
एक लाइन में तो फिल्म बस एक ही बात कहना चाह रही – इस पल में मौजूद खुशियाँ स्वीकारो. काश यह इतना आसान होता. रजित कपूर की अदायगी का अपना ही एक अलग ढब है. एक लंबे समय से वे सक्रिय हैं और शायद ही किसी फिल्म में उनके अभिनय को नजरअंदाज किया जा सके लेकिन इस फिल्म में उन्होंने खुद को हवा पानी सा बना लिया है, एकदम घुल मिल गए हैं वे उस इंसान की आत्मा में जो प्रेम करना जानता है, प्रेम खोजता है, साहसी भी है और अपने अंदाज और फैसलों में जिद्दी भी. और फिर वह इंसान अपने सफर में वह भी स्वीकार लेता है, जिससे उससे लगता रहा था कि उसका कोई राब्ता नहीं है. रजित को इस फिल्म में देखकर उनके अभिनय के लिए दिल में बेपनाह इज़्ज़त उभरती है.
मनीषा कोइराला की यह कमबैक फिल्म थी और सचमुच यह एक शक्तिशाली चरित्र है निभाने को. बहुत सहज लगी हैं मनीषा अपने अभिनय में. चेहरे पर फिरती उम्र का भी अगर कोई अपने अभिनय में इस्तेमाल इतनी संजीदगी से कर ले तो तारीफ तो बनती है.
एक छोटा व्हील चेयर पर बैठा बच्चा जिसे बोलना भी नहीं आता, जिसे गुस्सा भी है, दुख भी है, जिन्दगी में जिसके लाचारी भी है और प्यार की ललक भी, सिर्फ अपने चेहरे से बिना बोले यह सब जताना है फिल्म में और निर्देशक दीप्ति नवल ने अपने भतीजे सनाज नवल से यह सब बेहद प्रभावशाली ढंग से करा लिया है. मकरंद देशपांडे अपने अभिनय में जाने क्यों विविधता नहीं रखते, कुछ तो उन्हें जैसे रोल भी वैसे ही मिलते हैं. वे बेहद प्रभावी लगते हैं पर देखे सुने से लगते हैं.
गानों के बोल गुलजार के हैं और संगीत गुलजार और संदेश शांडिल्य का है. बोल तो उम्दा हैं और संगीत कम से कम एक दो गानों के तो अच्छे लगते ही हैं.
किसी सच्ची कहानी से प्रेरित हो पटकथा लिखी है दीप्ति नवल ने. अगर ठहरकर देखी जाय ये फिल्म तो लगता है कि बारिश की रिमझिम दुपहरी में कोई बढ़िया उपन्यास पढ़ा जा रहा हो. आखिर के एक सीन में प्यार के बारे में जो कहा गया, वही पूरे फिल्मांकन की आत्मा है. ‘प्यार उसे खोजना नहीं है जो आपको पूरा कर दे बल्कि उसे खोजना है जिससे अपने अपने अधूरेपन को साझा किया जा सके.’
-Dr shreesh pathak
Assistant professor political science
Amity university