‘जाके ससुरारिया गरब जन करिह
सबके बिठा के पलक कोठे रखिह
बड़के आदर दिहा छोट के सनेहवा
इहे बा सकल जिनगी के हो सनेसवा
दुनु कुल के इजत रखिह
बोलिहा जन तींत बोलिया..’
पैदा होते ही परंपरा से भर दिए गए इसी भाव-बोध के साथ एक लड़की,उसी तरह विदा होकर मायके से ससुराल आती है.और सारी उम्र अपने उस नए घर को सँवारने में अपनी जिंदगी की सार्थकता मान लेती है.’धरती मईया’इसी भावबोध की कहानी है.एक स्त्री के उच्चतम आदर्शों की छवि की कहानी.कमाल की बात है कि मेनस्ट्रीम फ़िल्मी फ्रेम के भीतर यह आदर्श उभरता है. ब्रजकिशोर,कुनाल,पद्मा खन्ना,श्रीगोपाल अभिनीत और कमर नार्वी निर्देशित भोजपुरी फिल्म ‘धरती मईया'(1981)अपने दौर की सफलतम फिल्मों में से एक है.अपने पति को दिए वचन के अनुसार ताउम्र उसको निभाने में नायिका(पद्मा खन्ना)का जीवन संघर्ष अंततः जीतकर सुखान्तकी रचता है.उपरी तौर पर कहें तो अपनी सीमाओं के साथ यह फिल्म भोजपुरी की मदर इंडिया है पर दुखांतक नहीं.वैसे भी जिस तरह से हालीवुड की फिल्मों का प्रभाव हमारी हिंदी फिल्मों में रहता है उसी तरह क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों पर भी हिंदी फिल्मों का प्रभाव बेहद होता है.ऐसा होना स्वाभाविक भी है.
‘धरती मईया’की कहानी और उसमें वर्णित समाज-व्यवस्था भले ही सामंती ढाँचे और सोच में ढली रही हो,परन्तु उससे टकराने तथा उसमें अपने होने के अर्थ को तलाशकर उस ढाँचे को तोड़ने की तत्परता भी इसमें है. मंगल(राकेश पाण्डेय)एक विधुर किसान हैवह अपने लड़के राम की अच्छी परवरिश की खातिर दूसरी शादी कौशल्या(पद्मा खन्ना)से करता है.सुहाग की सेज पर वह अपनी पत्नी से वचन लेता है कि वह राम की सगी माँ बन जाये और इस वचन से आबद्ध हो कौशल्या उस बिन माँ के बच्चे की माँ बन जाती है.इसी गाँव में लाला /महाजन भी है,जो गरीब किसानों को क़र्ज़ देकर न केवल अपनी जमीन कौड़ियों के मोल हथिया लेता है बल्कि उन्हें बंधुआ मजदूर भी बनके अपनी गिरफ्त में ले लेता है.जब नायक मंगल पर उसकी दाल नहीं गलती तब वह उसे मरवा देता है और जिस नयी-नवेली औरत के पाँव की महावर भी अभी नहीं छूटी वह एक बच्चे को गोद तथा दुसरे को गर्भ में धारण किये जीवन संघर्ष के रण में उतर जाती है.’धरती मईया,यहीं से रफ़्तार पकडती है.
लाला नायिका के दोनों बैलों को मरवा देता है. किसान के बैल उसके जवान बेटों की तरह होते हैं जिनके कन्धों पर वह जिंदगी का जुवा रखकर खेती करता है और अपने लाल पसीने से उसे सींचता है.बैलों के मरने पर भी नायिका का हौसला नहीं मरता,वह जुवे को अपने कन्धों पर उठती है और अपने दोनों बच्चों की परवरिश करती है और इतना ही नहीं अपनी एकमात्र ननद की शादी भी कराती है.वह कहती है-‘हम तहार भउजी ना हईं,अब तू हमरा के आपन भईया समझिह.’-ननद नायिका के पैरों में झुक जाती है कहती है-‘हम अपना माई के नईखीं देखले तू जाउन कईलू उ ता आपनो माई ना करीत’-यहीं से नायिका का चरित्र और उदात्त रूप धर लेता है और नायिका का चरित्र सबको भरने वाली माई के तौर पर उभर के सामने आता है.अंततः दुःख के दिन बीतते हैं और दोनों बेटे युवा होतें हैं.नायिका को अपना संघर्ष समाप्त होता दीखता है परन्तु सौतेले बड़े भाई के प्रति माँ का विशेष राग देखकर लखन(कुणाल)लाला के बहकावे में आकर बंटवारा करवाता है परन्तु लाला की असलियत सबके सामने खुल जाती है कि मंगल(नायिका का पति)को उसीने मरवाया था.गाँव का एक बैल लाला को अपनी सींगो से मार-मारकर मौत देकर ‘पोएटिक जस्टिस’की पुष्टि कर देता है और एक बेहतरीन बनी फिल्म अपनी पूर्णता को पाती है.
धरती मईया का उत्तरार्द्ध तमाम फ़िल्मी फार्मूलों से बंधा होने के बावजूद कुछ जमीनी समस्याओं की पड़ताल करता है और उसका निदान भी सुझाता है.किसानों का,समस्या और बैलों की एक जोड़ी से अन्योनन्यास्र्य संबंद्ध हमेशा से रहा है चाहे वह कृषक भारत के किसी भी प्रांत का हो.नायक ने अपनी माँ के कन्धों पर जुवा देखा है ऐसे में उसके लिए व्याह प्राथमिकता में नहीं वरन ड्योढ़ी पर एक जोड़ी बैल हैं-‘माथा पर मऊर बान्हला से जियादे जरुरी बा दुआरी पर बैल बान्हल’-साथ ही,’धरती मईया’समाज में व्याप्त शराबखोरी,बाल-विवाह,विधवा विवाह आदि मुद्दों से भी दो-दो हाथ करती है.शांति बाल विधवा है और मनहूस के नाम से पूरे मोहल्ले में कुख्यात है.पर वह राम की बाल-सखी भी है,जिसके साथ राम ने कभी घरौंदे बनाये थे जीवन के मीठे ख्वाब बुने थे,.वह उसका हाथ थामता है और वह उसे स्वीकारता है और शांति की इस दशा के लिए रुढियों को को दोष देता है.’तहार कवनो दोस नईखे शांति. कसूर बा त इ प्रथा के बा जेकरा चलते तहार बचपने में बियाह हो गईल’-वह उसे तमाम विरोधों के बाद भी स्वीकारता है,इसमें उसकी माँ उसका साथ देती है.नायक के इस कदम से घर में बंटवारे की स्थिति आ जाती है और जब घर फूटते हैं तो गंवार लूटते हैं की लोक-कहावत साफ़ उभरकर सामने आ जाती है.इसी प्रसंग में लखन(कुणाल)ताड़ीखाने में ताड़ी पीने की वजह से पूरे समाज की नजरों में गिर जाता है.आज भी हमारे ग्राम्य-समाजों में शराब पीने वालोए को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता.
भारतीय ग्रामीण समाज सदा से ही विविध समस्याओं बाढ़,सूखा,महाजनी-सामंती फांस आदि का शिकार रहा है.अन्न उपजाने वाला खुद दो जून की रोटी को तरसता है,ऐसे समाज के लोगों द्वारा इस अभाव में भी भाव पैदा करने वाले कारणों की खोज कर ली जाती है और यह सांझ को चौपालों पर होते कीर्तनों में दीखता भिया है यानी ‘हारे को हरिनाम’.फिल्म में ‘संतोषी मईया’ का दैवीय चरित्र ऐसी स्थिति में इन गरीबों को आत्मबल देता है क्योंकि यह मईया’गरीबों के ‘कम खाओ ग़म खाओ’की मूर्तिरुपा है.इसलिए ‘धरती मईया’में संतोषी मईया को केन्द्रित करके एक गीत डाला गया है,जो नायिका के विपरीत परिस्थितियों में दर्शकों तक को संतोष देता है भगवन सब ठीक करेगा एक दिन.अनपढ़ जनता इसी भुलावे में तो जीती रही है आजतक. बहरहाल,यह गीत संभवतः तबकी जबरदस्त हिट फिल्म ‘जय संतोषी मईया’की सफलता से प्रेरित होकर डाली गयी होगी ऐसा कहना गैर मुनासिब नहीं होगा.
‘धरती मईया’में भोजपुरी लोक कहावतें भी बहुतायत में हैं जो संवादों को और अधिक असरदार बनाती हैं मसलन-‘ना नव मन तेल होई ना राधा नचिहें/जल्दी के बियाह कनपटी में सेनुर/गोदी में लईका नगर में ढिंढोरा/रसरी जर गईल बाकी अईठल ना गईल/मीठ सम्बन्ध से दुश्मनी ख़तम हो जाला-इत्यादि कुछेक ऐसी कहावतें हैं जो भोजपुरिया जनजीवन के दैनंदिन वार्तालाप में चटनी का काम करती है. 1980 के शुरूआती वर्षों से लगभग 1986-87 तक भोजपुरी फिल्मों का एक बेहतरीन दौर है.इन फिल्मों की पृष्ठभूमि और ट्रीटमेंट खालिस औडिएंस को ध्यान में रखकर बनायीं जाती थी यही कारण है कि फिल्मों में आज भी भोजपुरिया जनता नोस्टाल्जिया में चली जाती है.’धरती मईया’उसी कड़ी की गोल्डेन जुबली मना चुकी एक भोजपुरी क्लासिक है. भारतीय फिल्मों का दर्शक वर्ग गीत-संगीत के बिना फिल्म की कल्पना नहीं करता,यह उनके भीतर तक पैठा हुआ है.ग्रामीण समाज में भिन्न-भिन्न त्योहारों, फसलों, मौसमों, संस्कारों, आयोजनों आदि के गीत गाये जाते रहे हैं और जनता की इसी चित्तवृति को इन फिल्मों ने पकड़ा.’धरती मईया’इस एंगल से भी मजबूत फिल्म है,लक्ष्मण शाहाबादी के गीत और चित्रगुप्त के खांटी पूर्वी संगीत की जुगलबंदी ने बॉक्स-ऑफिस पर तहलका मचा दिया-‘जल्दी जल्दी चलs रे कहारा,सुरुज डूबे रे नदिया/ फूट जाई हमरी गगरिया ना/पूजिंले ले चरण तोहार ऐ संतोषी मईया/आपण सुख के सुख ना बूझे,सबके दुःख अपनावे,हमार धरती मईया/केहू लुटेरा केहू चोर हो जाला आवेला जवानी बड़ा शोर हो जाला/ना जा ना जा ना कर लरिकैया बलम/जाने कईसन जादू कईलू मंतर दिहलू मार/हाथवा में मेहँदी,पांवे महाबर,मथवा टिकुलिया सजा दsबलमू ‘-जैसे गीत आज भी भोजपुरी की शक्ल बिगाड़ते भौंडे और अश्लील गीतों की बहुतायत के बीच बड़े चाव और गर्व से सुने-सुनाये जाते हैं.कोई गीत कितनी खूबसूरती से स्त्री देह की मांसलता और सौंदर्य को,सौन्दर्य के खांचे में ही रखकर फिल्माया जा सकता है,यह’फूट जाई हमरी गगरिया नाs भउजी दिहें हमरा के गरिया ना’-गीत में नायिका के नाभि-दर्शना साड़ी, भींगे आँचल और नायिका के (हिंसक) नृत्य के बावजूद कुशल निर्देशकीय का ही कमाल है जो यह गाना अश्लील होने से बच जाता है,जिसकी पूरी सम्भावना थी.वरना थोड़ी सी चूक से यह गाना अश्लील हो सकता था.’धरती मईया’ इसी बारीकी से बुनी और रची गयी फिल्म है यही वजह है कि आज भी यह फिल्म न केवल अपने कथ्य में बल्कि प्रयोग में भी पुरानी मालूम नहीं पड़ती.यह आज भी भोजपुरी समाज की तस्वीर लेकर सामने आती है,जिसमें भोजपुरी के अपने संस्कार हैं,जो आजकल की भोजपुरी फिल्मों से नदारद होता जा रहा है.
हिंदी सिनेमा का विस्मृत चेहरा : सुधीर (Sudhir) उर्फ भगवान दास लूथरिया
हमारे देहातों में आज भी ‘न्यूक्लियर फैमिली’का कांसेप्ट पूर्णतया स्वीकार्य नही है.’धरती मईया’जैसी फिल्में इसी आदर्श स्थिति की भूमिका रचती हैं.वर्तमान की भोजपुरी फिल्मों से वह सहजता तथा जमीनी जुड़ाव गायब है.आज जरुरत है थोड़ा-सा ज़मीनी समस्याओं और यथार्थ से जुड़ने की,वरना जितनी तेज़ी से आज का भोजपुरी फिल्म जगत उभरा है,उसे बुझने में देर नहीं नहीं लगेगी.’धरती मईया’यूँ ही नहीं क्लासिक की परंपरा में आई है,आखिर आज की किस भोजपुरी सिनेमा में बच्चे ‘ओका बोका तीन तडोका’ खेलते हैं?यह लोकरंग गायब हो चला है और भोजपुरी फिल्में इस समाज और उसके सांस्कृतिक परिवेश से कटती जा रही हैं,मेरे जैसा सिनेड़ी भी भोजपुरी की नयी फिल्मों से डरने लगा है पर उम्मीद की लौ अभी भी जल रही है.
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