एक दौर था – रामगोपाल वर्मा का. कुछ भी बनाते तो दर्शकों को उनकी कोशिशें नजर आतीं थी. वर्मा जी के साथ आने वाले उस समय के बड़े साथी थे – अनुराग कश्यप, सौरभ शुक्ला, रजत कपूर जैसे नाम. फिर जैसा कि हर ऑटो एक दिन वॉल्वो बनना चाहता है, सारे साथी वर्मा जी की फैक्ट्री से निकल गए, अपनी कहानी कहने. क्रिएटिव ब्रेन तो चले गए, अब फैक्ट्री थी तो वर्मा जी ने दर्शकों को मूर्ख मानकर इफरात में आलू सुथनी टाइप दर्जनों प्रोडक्ट परोस दिए, परिणाम हम सबको पता है. फिर कुछ सालों बाद ऐसे ही एक किस्म का फार्मूला पकड़ कर सफलता की घुट्टी पी चुके अक्षय कुमार साहब उभरे. साल में चार फिल्में, हिट पे हिट. अक्षय कुमार भी साल में चार के हिसाब से फैक्ट्री बन गए है, पर लगता है उनके सलाहकार साथी अपने बॉस के स्टारडम में उनसे सच नहीं बोल रहे हैं. इसी की बानगी रही – बच्चन पांडेय, जिसको उनकी टीम ने शायद सर्जियो लियोनी के काऊ बॉय जैसी एपिकल फ़िल्म होने वाली है , बताकर साइन करवाई होगी. फिर आयी पृथ्वीराज जिसमें अक्षय को देखकर दया के अतिरिक्त कुछ और नहीं आयी और फिर सुनील शेट्टी की साल 2000 में आई क्रोधनुमा किसी फिल्म की उधार की छौंक लिए , दिल्ली के चांदनी चौक के बैकड्रॉप वाली भाई बहन ड्रामा फ़िल्म ‘रक्षा बंधन’. यह बॉक्स ऑफिस पर अपनी रक्षा न कर पाई.
हिंदी सिनेमा एक हिट फार्मूले को पीट पीट कर जब तक पटुआ नहीं बना देता , उसको घसीटता रहता है. पुरानी परंपरा जो ठहरी. खैर अब इधर के दिनों में एक और जमात जाग गयी है, जिसको इन दिनों बॉयकॉट गैंग कहा जा रहा है. इन दिनों असल मिस्ट्री यह भी है. यह सबकी लंका लगाने में लगा हुआ है. पर बॉयकॉट गैंग से हमें क्या?
अक्षय ने बाजार की हवा जान इस मामले में समझदारी दिखाई हैं जो वह ओटीटी पर गए. बहरहाल, यह सब बातें हैं, बातों का क्या? हम सीधे-सीधे हालिया रिलीज ‘कट पुतली’ पर आते हैं. यह फ़िल्म शुरुआत से अपने खात्मे तक कई सस्पेंस लेकर ही चलती है कि ये आख़िर क्यों था?- आप निश्चिंत रहें, मैं यह बिल्कुल नहीं बताऊंगा कि काजोल ही हत्यारी है. कहानी मसूरी – सॉरी कसौली में बेस्ड है, संस्पेंस है. एक गाने के दृश्य से कई समीक्षकों को लंदन दिख रहा है , इसे संस्पेंस समझिए. हालांकि फिल्म का सेटअप किया टाउन चीख-चीख कर कह रहा है ये मसूरी है और वो मसूरी का लन्दौर, बार्लोगंज, सेंट जॉर्जेस, पर नामालूम क्यों निर्देशक इस जगह को हिमाचल का परवाणू और कसौली बताने पर लगे हैं – संस्पेंस है! तो कहानी यह है कि स्कूल जाने वाली टीनएज लड़कियों की बुरी तरह एक खास पैटर्न में हत्या हो रही है. पुलिस को हत्यारा एक तरह से चैलेंज दे रहा है. हर हत्या के साथ एक छोटा बॉक्स भी जुड़ा है जिसमें सिंड्रेला डाल का मुखड़ा है . डॉल भी वैसे ही क्षत-विक्षत, जैसी कि लड़की की बॉडी होती है. यह फ़िल्म का टेकऑफ है.
अच्छे बन सकने वाले प्लाट पर फिसली फ़िल्म : ऑड कपल (Odd Couple)
एक लड़का है अर्जन सेठी (अक्षय कुमार), जो सात साल से साइकोपैथ किलर्स पर एक फ़िल्म की कहानी लेकर घूम रहा है, पर स्टीरियोटाइप कहानियों को दिखाने के मारे मेकर्स इसमें इंट्रेस्ट नहीं दिखाते. उन्हें कॉमेडी चाहिए, कुछ नया खेल चाहिए ( काश इस फ़िल्म के मेकर्स यह समझ पाते). हीरो का एक अतीत है. उसके पिता पुलिस में थे और उनकी थोड़ी सी पेंशन आती है उसी से उनका खर्च चल रहा है. पिता की पेंशन माताजी तक ही रह जाती है अब फ़िल्म में माताजी तो नहीं दिखती है पर बेटे को कैसे पेंशन आ रही है? -सस्पेंस है. खैर जाने दीजिए. तो वह पुलिस वाले जीजा (अपने ही हमउम्र किंतु दिखने में पिता जैसे चंद्रचूड़ सिंह) और दीदी (हृषिता भट्ट, वही ‘हासिल’ और ‘अशोका’ वाली, नहीं याद आया ? जाने दीजिए) के कहने पर अनुकंपा टाइप नौकरी पर पुलिस में दरोगा बहाल हो जाते हैं. लेखक बना दरोगा, तो दरोगागिरी में भी लेखक की बुद्धि तो चलेगी ही. सो इस पहाड़ी शहर में हो रही सीरियल किलिंग्स में थोड़े ऑफिशियल दिक्कतों के बाद वह इन्वॉल्व हो जाते हैं. फ़िल्म में एक मैथ्स का टीचर है जो अपराधी लगते-लगते दर्शकों के जेहन में ‘आखिर यह क्यों था’ में तब्दील हो जाता है. जाने दीजिए.
निर्देशक रंजीत एम तिवारी की अक्षय के साथ बॉन्डिंग ‘बेलबॉटम’ से है. उन्होंने यहाँ कुछ साल पहले आई तमिल फिल्म ‘रतसासन’ से प्रेरणा लेकर ‘कट पुतली’ बना दी है. यह फिल्म हॉटस्टार पर रिलीज हुई है . अब संस्पेंस थ्रिलर की जान उसकी कहानी और बैकग्राउंड म्यूजिक होता है तो म्यूजिक तो ठीक है पर कहानी – कई दफे एक ऐसी पटरी पर चलती है, जिस पर इसी साल कुछ समय पहले विक्रांत मैसी और राधिका आप्टे ने ‘विशाल फुरिया’ वाली अपनी ‘फोरेंसिक’ दौड़ाई थी – कहानी नहीं बताऊंगा, वादा जो किया है तो यहाँ भी सस्पेंस. हालांकि विक्रांत और राधिका वाली फिल्म एक मामले में ईमानदार है कि वह मसूरी को मसूरी ही बताते हैं. खैर वापिस ‘कट पुतली ‘ पर . सीरियल किलर धीरे-धीरे हीरो के बनाये पैटर्न में फँसता है और फिर जो होता है उसको देखकर दर्शक हक्का-बक्का रहा जाता है कि आखिर उसने अपने लगभग दो घन्टे इस फ़िल्म को क्यों दिए. राजीव रवि की सिनेमाटोग्राफी औसत है. ‘लापता, रब्बा, साथिया जैसे गीत भी हैं जो चीख-चीख कर अपने भूल जाने की अपील कर रहे हैं.
हालांकि ‘सुपरस्टार’ अक्षय कुमार सुपर कॉप बनने की पूरी कोशिश करते हैं ताकि एक बार फिर से बेबी, हॉलिडे वाला जादू जगा पाएं, पर भादो के महीने में रपटीली-चिकनी सड़क पर अक्षय दौड़ तो ऊपर की ओर रहे हैं पर अपनी हर कोशिश में फिसल कर नीचे ही आ जा रहे हैं. उनकी पिछली फिल्मी के जादू उर्फ बाला, बाला शैतान का साला उर्फ पृथ्वीराज ने दर्शकों के दिमाग का पहले ही दही किया हुआ था, अब इस फिल्म ने उस दही का ऐसा रायता बनाया है जिसे साफ होने में जाने कितना समय लगेगा. गुरप्रीत गुग्गी, रकुल ठीक ठाक रहे है पर यहाँ भी रकुल क्यों हैं, का सवाल वैसा ही जैसे वह प्रोड्यूसर भगनानी परिवार के क्लोज हैं तो उन्हें होना चाहिए, टाइप लगी है. हालांकि एसएचओ परमार की भूमिका में ‘सरगुन मेहता’ जमती हैं.
इफ्तेखार (Iftekhar) : हिंदी सिनेमा का विस्मृत चेहरा
बहरहाल, जैसा कि मैंने वादा किया था कि स्पॉइलर नहीं दूँगा तो नहीं दे रहा, बाकी इतना जरूर कहूँगा एक औसत किस्म की थ्रिलर, ‘सस्पेंस’ फ़िल्म देखनी हो तो ‘कट पुतली’ देख लीजिए. वैसे भी रामसे ब्रदर्स की एक जैसी कहानियों की भूतों वाली ‘डरावनी’ (कॉमेडी) फिल्में तो एक दौर में खूब देखी गयी हैं, मिथुन की फिल्में इसी कड़ी में हैं. फिर एक किस्म की फैक्ट्री अब अक्षय भी हैं. पर एक सलाह है याद दिलाने के लिए कि रोज-रोज आपका मनपसंद व्यंजन भी परोस दें तो आप ऊब जाएंगे, फिर यह तो फ़िल्म है, वह भी संस्पेंस (हहहहह) थ्रिलर (हूहूहूहू).
क्यों देखें, पूछेंगे तो कहूँगा समय बहुत हो और गुंडा जैसी ‘कल्ट’ फिल्में देख पाते हो तो जरूर या फिर रकुल, अक्षय और मसूरी उफ्फ़ कसौली को घर बैठे देखने के लिए, मन करे तो बीच-बीच में कहानी से फर्जी एक्साइटमेंट लेने के लिए. सच तो यही है कि असीम अरोड़ा के डायलॉग बेअसर, कहानी बेस्वाद है, जबकि रतसासन का अधिकतर मसाला मौजूद था पर हिंदी में वह फीका ही रहा. पानी-पानी का फर्क होगा शायद. सबसे बढ़ी समझदारी निर्माताओं की है जो इसे ओटीटी पर ले आए वरना, कहना ना होगा कि…. वैसे आपके महीने, साल का हॉटस्टार का सब्सक्रिप्शन खर्च करना हो तो देख लीजिए. पर बाद में पेनकिलर जरूर खाना पड़ेगा और यह संस्पेंस बिल्कुल नहीं होगा. वैसे क्या आप जानते हैं, लखनऊ सेंट्रल और बेलबॉटम वाले रंजीत बाबू ने यह फ़िल्म क्यों बनाई? उत्तर – संस्पेंस है. वैसे भी देखना ना देखना आपकी मर्जी पर है पर जब डिज्नी हॉटस्टार पर अपने केवल दो एपिसोड से ही सबसे अधिक देखे जाने का रिकॉर्ड बना चुकी पंकज त्रिपाठी की ‘क्रिमिनल जस्टिस’ का तीसरा सीजन मौजूद है और एशिया कप के मैच भी हैं, तब आपकी मर्जी, सस्पेंस देखिए हमें क्या? वैसे जल्दबाजी के मारे समीक्षकों ने ‘कट पुतली’ को कठपुतली लिखकर समीक्षा क्यों की है और स्टार कैसे बिठाए हैं ? -जाने दीजिए यह भी एक संस्पेंस है!