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Criminal Justice 2 Review- सेंसिटिव मुद्दा, बेहतरीन परफॉर्मेंस पर फिर भी अधूरापन

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Criminal जस्टिस का पहला सीजन जब आया था तब बहुत शोरगुल के साथ आपके सामने नहीं आया था लेकिन इसके अच्छे कंटेंट की वजह से इसे दर्शकों ने हाथों हाथ लिया था. अब इसका दूसरा सीजन एक साल बाद फिर से बिना शोरगुल के हाजिर है. ईमानदारी से बताऊं तो इसे देखने से पहले मन मे बहुत शंकाएं थी क्योंकि ऐसा लगा बहुत जल्दबाजी में तो नहीं बना दिया गया है इस सीरीज को. कहीं पंकज त्रिपाठी को भुनाने की कोशिश तो नहीं?
पंकज त्रिपाठी और कीर्ति कुल्हारी जैसे बेहतरीन कलाकार तो हैं लेकिन क्या सिर्फ उनसे ही बात बन जाएगी? फिर विचार आया कि पूर्वाग्रह गुनाह है बंधु, देखो! फिर नापतौल करो. आखिर देख ही लिया, आइए अब करते हैं नापतौल..

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मुझे सबसे पहले ये कहना है कि ये सीरीज बहुत ही सेंसिटिव मुद्दे पर बनाई गई है. ऐसे विषयों पर फिल्में और सीरीज बनाने की हिम्मत दिखाई जा रही है वो काबिल-ए-तारीफ है. कहानी की बात करें तो अनु चंद्रा (कीर्ति कुल्हारी) विक्टिम हैं जैसा कि आपने ट्रेलर में देखा ही होगा वो अपने पति बिक्रम चंद्रा (जिसु सेनगुप्ता) की हत्या के जुर्म में पकड़ी जाती हैं. उनके पति देश के जाने माने वकील होते हैं. उनकी बेटी इस क्राइम की इकलौती गवाह है और उसने अपनी आंखों से मां को पिता का मर्डर करते देखा है. और आपको पता ही है बच्चे झूठ नहीं बोलते लेकिन क्या जो बच्ची ने देखा वो ही सच था या वो अधूरा सच था? इसी पूरे सच की खोज पुलिस और अपनी सुहागरात छोड़ कर वापस आये वकील माधव मिश्रा (पंकज त्रिपाठी) कर रहे होते हैं. इसमें एक पति-पत्नी की पुलिसिया जोड़ी है जो अलग-अलग विचार के साथ एक ही केस पर लगे हैं. माधव मिश्रा जो पैसे की लालच में केस लेते हैं लेकिन बाद में उनका पैसे का मोह अचानक से रफ्फूचक्कर हो जाता है. उनका साथ देने आती हैं उनकी पुरानी सहकर्मी निख़त हुसैन (अनुप्रिया गोयनका). दोनों इस बार अपनी वकील कम्युनिटी के खिलाफ केस लड़ रहे होते हैं. और उस रात उस बंद दरवाजे के पीछे क्या हुआ इस सच को सामने लाने की कोशिश करते हैं. सच को तो बाहर आना ही है लेकिन किस रूप में आएगा ये आप खुद सीरीज देखकर ही जानें तो बेहतर है.

ये सीरीज महिलाओं के उस डार्क साइड पर रौशनी डालती है जिसे बहुत सी महिलाएं अनजाने में ही अंतर्मन से बगावत करके जी रही होती हैं. कई बार उन्हें पता ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है? घरेलू हिंसा को हम अक्सर घर के अंदर हो रहे पति-पत्नी के बीच मारपीट के नजरिए से ही देखते हैं लेकिन घरेलू हिंसा के भी कई रूप हैं कई ऐसे अनकहे सच हैं जो बंद दरवाजे के अंदर की घुटते रहते हैं. लिखना बहुत कुछ चाहता हूं इसपर लेकिन इसपर ज्यादा लिखना आपके लिए स्पॉइलर हो सकता है. उनके बावजूद भी सीरीज में शुरू से ही कहीं न कहीं आपको अंदेशा होता है कि उस बंद दरवाजे में ऐसा कुछ हुआ होगा लेकिन वो किस प्रकार हुआ है वो जानने की उत्सुकता ही आपको क्लाइमेक्स तक ले जाती है. जब सच सामने आता है तो आपके रोंगटे खड़े कर देता है. लेकिन मेकर्स ने इस सच को सामने लाने के लिए काफी लंबी यात्रा तय कर दी है जो कहीं-कहीं आपके धैर्य की परीक्षा भी लेती है. आप जल्दी से क्लाइमेक्स तक पहुंचना चाहते हैं फिर एकदम से आखिरी एपिसोड में सबकुछ तेजी से घटने लगता है.

इस सीरीज का इमोशनल पक्ष बहुत मजबूत है. बेटी का पिता के लिए तड़पना, मां का बेटी के लिए तड़पना और बेटी का पिता की हत्यारी मां के लिए बेहिसाब नफ़रत इनसब को अच्छे से स्क्रीन पर दिखाया गया है लेकिन चूक हुई है इनके साथ जुड़े अलग-अलग किरदारों के भावों के स्पष्ट दिखा पाने में. जेल के सीन तो टुकड़ों-टुकड़ों में ही हमारे भाव को जगा पाते हैं. जेल वाले पार्ट पर अच्छे से ज्यादा ध्यान देने के बजाय रेगुलर ही रखा गया है. ऐसे ही अधिकतर जगहों पर अधूरापन सा लगा है, जहां लगा कि थोड़ा और थोड़ा और. काश इस पक्ष को और मजबूत कर लेते. यहां तक कि पुलिस इन्वेस्टिगेशन और कोर्ट रूम में भी जिस लेवल का इंटरेस्ट चाहिए वो नहीं बन पाता. कुछ पूरा था तो वो था कीर्ति कुल्हारी का बेहतरीन अभिनय और पंकज त्रिपाठी का स्क्रीन प्रेजेंस. स्क्रीन प्रेजेंस इसलिए क्योंकि पंकज त्रिपाठी का अपना एक तरीका है अभिनय का. जिसमें वो मिलावट नहीं करते खुद को हूबहू सामने रखते हैं जिसकी वजह से हम उनसे ज्यादा जुड़ पाते हैं. वो जब-जब स्क्रीन पर आते हैं आपको एक अलग सी राहत के साथ खुशी मिलती है. मैं उनको देखते-देखते अचानक से महसूस कर रहा था कि मैं धीमें-धीमें मुस्कुरा रहा हूँ. इस बार उनकी पत्नी के किरदार में आई खुशबू आत्रे ने पंकज त्रिपाठी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कमाल की एक्टिंग की है.

कीर्ति कुल्हारी एक डिप्रेस्ड महिला के रोल में है जो अपने अंदर बहुत से राज दबाए बैठी है. वो अपने पति से प्यार करती है लेकिन फिर भी उसपे चाकू चला देती है. एक बेटी की मां है और एक बच्चे को पेट मे पाल रही है. मुजरिम भी है जेल में खुद के और अपने पेट मे पल रहे बच्चे के लिये लड़ भी रही है. इनसब को कीर्ति ने स्क्रीन पर ईमानदारी से जिया है. अनुप्रिया गोयनका ने पंकज त्रिपाठी के सहयोगी की भूमिका में प्रभावी लगी हैं. जिसु सेनगुप्ता कम टाइम के लिए आये लेकिन उनका किरदार रहस्यमयी था. परफॉर्मेंस सबकी अच्छी रही है चाहे वो इंस्पेक्टर के रोल में कल्याणी मुलाय हो या कैदी के रोल में शिल्पा शुक्ला. मीता वशिष्ठ, दीप्ति नवल और आशीष विद्यार्थी जैसे दिग्गज कलाकार भी छोटे पर महत्वपूर्ण रोल में अपने अनुभव को स्क्रीन पर अच्छे से दिखाया है.

कुलमिलाकर ये सीरीज एक संवेदनशील मुद्दे को दिखाती तो है लेकिन दर्शकों के सब्र का इम्तेहान भी लेती है. परफॉर्मेंस को छोड़ दें तो लगभग हर विभाग में थोड़ी-थोड़ी कमी सी लगती है. रोहन सिप्पी और अर्जुन मुखर्जी का निर्देशन ठीक रहा है पर स्क्रीनप्ले में थोड़ी चूक हो गयी है. इस सीरीज के विषय के अलावा पंकज त्रिपाठी बड़ी वजह हो सकते हैं इसे देखने की. उनका ऑनस्क्रीन वैवाहिक जीवन खूबसूरत और मजेदार है. वो इस बार पुराने अंदाज में ही सही लेकिन आपको पूरा संतुष्ट करते दिखेंगे. सीरीज के सिर्फ स्लो होने को कमी नहीं बताया जा सकता सीरीज होता ही है इत्मीनान से देखने के लिए लेकिन कहीं आपका इंटरेस्ट बनते-बनते रह जाए तो वहां थोड़ी निराशा होती ही है. इसे देखने के दौरान कई बार ऐसी फीलिंग आती है.

दिव्यमान यती