“Just when you think you know something, you have to look at in another way. Even though it may seem silly or wrong, you must try.” – dead poet society (Cinema).
सन 2000 में मोहब्बतें आई थी. बहुत्ते मज़ा आ गया था ई फिलिम (Cinema) देखकर. लगा था कि वाह! सिनेमा हो तो ऐसा वरना न हो. खान साहेब और बच्चन साहब एक साथ थे तो ले डायलॉग दे डायलॉग भी था और नाच गाना, अभिनेत्रियों से प्रेमालाप, कम से कम कपड़े और फिर हैपी एंडिंग सब था. बीच-बीच में खान साहब का एकांत और ऐश्वर्या का ऐश्वर्य प्रदर्शन सब था. फिर यशराज का यश भी था. तो पागल होना ज़रूरी था. 190 करोड़ की इस फिल्म ने 900 करोड़ का बिजनेस किया था विश्वभर में. वैसे हमारी फिल्मों का विषय चाहे जो हो लेकिन फिल्म में अमूमन एक लक्ष्य यह होता है कि अभिनेत्रियों पर डोरे डालना, उनसे प्यार जैसा कुछ होना और अंत में हाथ पकड़के झूमते हुए निकल जाना.
फिर कहीं रॉबिन विलियम्स की फिल्म Dead Poet Society (1989, Cinema) देखने को मिली, प्रचंड बोर हुए और सो गए. किसी ने बताया कि मोहब्बतें का मूल मंत्र इस फिल्म से अपहृत किया गया था तो मुझे लगा कि वाह, हमारा सिनेमा कितना महान है कि नकल मारके भी कमाल करता है. लेकिन अब आलम यह है कि जब डेड पोएट सोसाइटी देखता हूँ तो ——
ख़ैर जाने दीजिए कि मैं क्या महसूस करता हूँ क्योंकि लिख दिया तो भावनाएं आहत हो सकती हैं. हाँ इतना ज़रूरी है लिखना कि जो विमर्श डेड पोएट सोसाइटी ने रची थी वो मोहब्बतें में बस छटांक मात्र है, क्योंकि अब हमारी आदत है किसी भी विषय पर गंभीर विमर्श से पल्ला झाड़ने की. पता नहीं किसने और कब हमारे दिमाग में यह सोच घुसा दिया है कि कला का काम किसी भी प्रकार इंसान के दिमाग को कुंद बनाकर बॉक्स ऑफिस कलेक्शन करना मात्र है.
बहस कलेक्शन पर नहीं, अच्छे-बुरे पर हो
OTT प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने के कारण गुलाबो सिताबो के ऊपर बॉक्स ऑफिस के कलेक्शन का शोर नहीं है. बल्कि बहस यह है कि फिल्म अच्छी है या बुरी. यह एक बहुत ही ज़रूरी बात है क्योंकि अच्छी फिल्में पैसा भी ख़ूब कमाए यह कोई ज़रूरी नहीं है. यह बात ठीक वैसी ही है जैसे अच्छे लोग चुनाव हार ही नहीं जाते बल्कि कई जगह उनकी जमानत भी जब्त हो जाती है और एक से एक महानुभाव अपने ऐतिहासिक कारनामों के साथ बड़े ही शान से चुनाव न केवल जीतते हैं बल्कि मंत्री-संतरी भी बनते हैं. हम भी उनकी भक्ति में कोई कमी नहीं छोड़ते.
कुछ फिल्में वैसी भी होती है जो अच्छी और बुरी नहीं बल्कि बेहद बेहद ज़रूरी होतीं हैं. वो मात्र मनोरंजन नहीं बल्कि विमर्श पैदा करती हैं. वैसी ही एक फिल्म है dead poets society जो आइडिया ऑफ एडुकेशन की बात करती है, महान परम्पराओं को चुनौती देकर ख़ुद से दुनियां को परखने की बात करती है, एक नहीं बल्कि अनेक तरीक़े से. फिल्म (Cinema) का एक संवाद देखिए – “We don’t read and write poetry because it’s cute. We read and write poetry because we are members of the human race, and the human race is filled with passion. Medicine, law, business, engineering, these are noble pursuits and necessary to sustain life. But poetry, beauty, romance, love, these are what we stay alive for.”
एक बढ़िया सिनेमा आपको नई दृष्टि देती है और घटिया आपका मानसिक दोहन करके आपको लकीर का फ़क़ीर बनाती है. शानदार सिनेमा कभी यह नहीं कहता कि दिमाग लगाने की ज़रूरत नहीं है बल्कि वो यह कहता है कि बिना दिमाग लगाए आप यह फिल्म देख ही नहीं सकते. अब चयन आपका है कि आपको क्या पसंद है. इसी फिल्म का एक संवाद यह है – “When you read, don’t just consider what the author thinks, consider what you think.”
वैसे एक महानतम फिल्म और है जिसने पूरी दुनियां में एक नया विमर्श शुरू किया – dead man walking लेकिन उस पर बात फिर कभी.
अंत में, एक फिल्मकार का कथन याद आ रहा है. उनसे एक पत्रकार ने पूछा – आपकी फिल्में समझ में नहीं आती, लोग उसे क्यों देखें?
फिल्मकार का जवाब था – और जिन फिल्मों को लोग ख़ूब देखते हैं उनमें समझने के लिए क्या होता है? घिसीपिटी कहानियों में समझने को होता भी क्या है? वसीम वरेलवी कि दो पंक्तियां कुछ हूँ हैं –
कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा
एक क़तरे को समुन्दर नज़र आयें कैसे
-पुंज प्रकाश