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सिनेमा देखने के शौक ने बना दिया अभिनेता :रवि चौहान

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-गौरव

मन के हारे हार है मन के जीते जीत. वो कहते हैं न इंसान अगर एक बार कुछ कर गुजरने की ठान ले फिर देर-सवेर मंजिल को उसके कदम चूमने ही पड़ते हैं. कुछ ऐसी ही कहानी है रुपहले परदे के उभरते कलाकार रवि चौहान की. विपरीत परिस्थियों के बावजूद साढ़े क़दमों से लक्ष्य की ओर बढ़ते रवि हर उस स्ट्रगलर के लिए मिसाल हो सकते हैं जिन्होंने चुनौतियों से घबड़ाकर अपने रास्ते बदल लिए. फिल्मेनिया से खास बातचीत में रवि ने अपनी यात्रा की चुनौतियों और हौसले से लबरेज ज़िन्दगी की कई गिरहें खोली.

शाहजहांपुर के छोटे से गाँव कनेंग के लड़के के जेहन में मुंबई जैसे बड़े शहर का ख्वाब कैसे घर कर गया?

– क्या कहूं, यह भी एक इत्तेफाक ही है. बचपन में ऐसा कोई ख्वाब जेहन में था ही नहीं. 12वीं के बाद एनडीए की तैयारी कर रहा था. पर जल्द ही समझ आ गया कि एनडीए मेरे वश की बात नहीं. एक दिन अचानक मैं और मेरा दोस्त धर्मेंद्र भविष्य की इसी उधेड़बुन में थे तभी बातों-बातों में अभिनय की बात चल निकली. दोनों ने भावावेश में तय कर लिया कि अब एक्टिंग ही करना है. तब कहां पता था कि क्षणिक उमंग में लिया गया वो निर्णय मुझे रुपहले परदे पर ला खड़ा करेगा.

पर उस क्षण दिमाग में आये अभिनय के उस ख्याल का बीज कहीं तो पड़ा होगा?

– ईमानदारी से कहूं तो ठीक-ठीक मुझे भी नहीं पता, पर कहीं ना कहीं यह लगता है कि वो बीज बचपन से सिनेमा देखने की दीवानगी के वक़्त ही पड़ गया था शायद. घर में फिल्में देखने का जबरदस्त माहौल था. बड़े भाई साहब तो थिएटर में फिल्म देखने के लिए शहर तक चले जाते थे. मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो मुझे भी स्कूल बंक कराकर साथ ले जाने लगे. अब लगता है शायद उसी दीवानगी ने मेरे अंदर भी अभिनय का बीज बो दिया.

ख्यालों की मुंबई से हकीकत वाली मुंबई को कितना करीब पाते हैं?

– (हँसते हुए) ख्यालों वाली मुंबई का पहला भ्रम तो उसी रोज टूट गया था जब पहली बार थिएटर की दुनिया में कदम रखा. अलोक सक्सेना जी के निर्देशन में थिएटर ज्वाइन करते वक़्त ही समझ आ गया कि असल अभिनय और ख्वाबों के मुम्बईया हीरो वाली छवि का कोई तालमेल नहीं है. फिर जब मुंबई आया तो ऑडिशन की कतारों और सीनियर्स की डरावनी चेतावनियों ने भ्रमजाल ही तोड़ दिया. समझ आ गया ख्वाबों की मुंबई से इतर हकीकत वाली मुंबई में अगर टिकना है तो जी तोड़ मेहनत के अलावा कोई ऑप्शन नहीं है.

थोड़ा अतीत का रुख करते हैं, कुछ शुरूआती दिनों की यादें साझा कीजिये.

– जैसा पहले ही बताया बचपन गाँव में ही बीता. हम तीन भाई और एक बहन हैं. पिताजी मिलिट्री में थे. पर दादाजी के दबाव में मिलिट्री छोड़कर गाँव वापस आ गए. बचपन में सिनेमा देखने का शौक खूब रहा. इंटरमीडिएट साइंस से था सो घरवाले एनडीए या पॉलिटेक्निक पर जोर दे रहे थे. पर होनी को कुछ और ही मंजूर था. इंटरमीडिएट के बाद थिएटर का जो चस्का लगा उसने सीधा मुंबई पंहुचा दिया.

गवर्नमेंट जॉब का सपना पाले घरवालों को कैसे कन्विंस किया ?

– इसकी भी बड़ी रोचक कहानी है. अभिनय की बात पर घर में और किसी को तो बहुत परेशानी नहीं थी बस पिताजी हत्थे से उखड गए. बड़े भाई के सपोर्ट के बाद मेरी थिएटर वाली जर्नी शुरू तो हुयी पर अगले दो साल मेरे और पिताजी के बीच कोल्ड वॉर ही चलता रहा. यहाँ तक कि मेरा सपोर्ट करने की वजह से बड़े भाई को भी पिताजी का कोपभाजन बनना पड़ा. पर पहली बार जब पिताजी ने मुझे स्टेज प्ले में देखा और गाँव में मेरे अभिनय की तारीफ सुनी फिर पिघल गए. उसके बाद उन्होंने खुले मन से मेरे सपनों को स्वीकार लिया.

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शाहजहांपुर से आगे की यात्रा कैसी रही ?

– शहर से निकलकर मैं दिल्ली पहुंचा. वहां रोबिन सर के नेतृत्व में थिएटर की शुरुआत हुयी. एनएसडी में वर्कशॉप का भी मौका मिला. वही से गुंजन दादा के संपर्क में आया जिनके साथ रंगमंच के अगले पड़ाव के रूप में बिहार के बेगूसराय पहुंचा. उनसे मुझे इतना प्यार मिला कि बेगूसराय में रहने का ठिकाना नहीं होने पर चार सालों तक उन्होंने मुझे अपने घर में रखा. वहां रहकर तकरीबन चार साल कई नाटक किये. इन चार सालों के दौरान रंगमंच के सिलसिले में दिल्ली, शाहजहांपुर और बेगूसराय के बीच काफी भागदौड़ की. फिर फाइनली 2014 में मुंबई आ गया.

मुंबई की शुरुआत कैसे की ?

– एक के बाद एक ऑडिशन से मुंबई की जर्नी शुरू हुयी. शुरू में तो कई लोगों ने ही काफी डरा दिया था. पर मैं भी जिद ठाने बैठा था, लगा रहा. धर्मेंद्र सिंह और आलोक पांडेय जैसे थिएटर के कुछ दोस्त थे. चूँकि हम सब एक ही गाँव के थे तो एक-दूसरे का हौसला बढ़ाते रहते थे. जब पहली बार मुंबई पंहुचा था तो जम कर बारिश हो रही थी. उस बारिश में आलोक पांडेय ही थे जो मुझे रिसीव करने स्टेशन पहुंचे थे. तब लगा अनजान शहर में दोस्तों का होना कितना जरूरी है. फिर 2015 की शुरुआत में स्टार प्लस के सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’  के चार-पांच एपिसोड में काम करने का मौका मिला. पहले सीरियल का ही अनुभव काफी खुशगवार रहा. जब खुद सीरियल के डायरेक्टर ऋषि मंडियाल जी ने तारीफ़ कर ये कहा कि रवि तुम जितने अच्छे एक्टर हो उतने ही सुलझे हुए इंसान भी हो. उम्मीद है हम फिर साथ में कोई बड़ा काम करेंगे. तब लगा कि अगर ईमानदारी से मेहनत की जाए तो सफलता पाने से कोई नहीं रोक सकता. उस सीरियल के बाद कुछेक शार्ट फिल्म्स हाथ आयी. पर असली पहचान मिली रिलायंस फ्रेश के ऐड और बिंदास टीवी के शो गर्ल इन द सिटी से. रिलायंस फ्रेश के ऐड की डायरेक्टर तरन्नुम जी ने भी मेरी काफी तारीफ़ की और कहा कि जब भी मैं कोई फिल्म बनाउंगी हम जरूर साथ काम करेंगे. अभी एक सीरियल सब टीवी के लिए कर रहा हूँ ‘बावले-उतावले’. जिसमें मेरा किरदार शीतल कुमार भी दर्शकों को खासा पसंद आ रहा है. संयोग देखिये इस सीरियल के निर्देशक भी ऋषि मंडियाल ही हैं जिन्होंने मुझे पहले सीरियल में डायरेक्ट किया था और आगे भी साथ काम करने का वादा किया था. एक-दो फिल्में भी हाथ में हैं. पर अभी उनकी चर्चा नहीं कर सकता.

संघर्षों के दौरान कभी ऐसा नहीं लगा कि अब बस. अब लौट जाना ही बेहतर है.

– सच कहूं तो दूसरों से भले लौटने कि बात कर लेता था पर खुद से कभी वापस ना जाने की ठाने बैठा था. इतना पता था कि भले देर लगे पर मेहनत जाया नहीं जाएगा. हर कामयाब इंसान को देखकर खुद से कहता था जब वो कर सकता है तो मैं क्यों नहीं. इस एक लाइन ने मेरे अंदर की उम्मीद को हमेशा जिन्दा रखा. अभी तो ये मेरी शुरुआत है. अब तक कि यात्रा में निर्देशकों, सह कलाकारों और दोस्तों का प्यार और विश्वास ही है जिससे आगे बढ़ने का हौसला मिलता है. सब कहते हैं डर के आगे जीत है, मैं कहता हूं ज़िद के आगे जीत है.