कलाकार: कार्तिक आर्यन, विजय राज, राजपाल यादव
निर्देशक: कबीर खान
निर्माता: साजिद नाडियाडवाला, कबीर खान
रेटिंग: **** (चार स्टार)
दूरदर्शन के शुरूआती दिनों में परमवीर चक्र के नाम से एक शो आता था जिसके जरिये दर्शक परमवीर चक्र विजेता उन तमाम real हीरोज की गाथा से रुबरु होते थे जिनसे वे तब तक अनजान थे. बाद के दिनों में कुछ और शोज भी आये. ऐसी कहानियां समय-समय पर देखी और दिखाई जाती रहनी चाहिए जिनके जरिये हमारा वर्तमान उन इतिहास के पन्नों में गुम हो चुके नायकों की गाथा से रूबरू होने के साथ-साथ उनसे मोटिवेट होकर अपना भविष्य संवार सके. और कबीर खान की Chandu Champion उसी खास किस्म की फिल्म है जिसे कहने की हिम्मत और माद्दा जुटा पाना भी अपने आप में काबिले तारीफ़ है.
अब बात करते हैं चंदू चैंपियन की. पैरालंपिक तैराकी में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीतने वाले मुरलीकांत पेटकर की कहानी चंदू चैंपियन सोशल मीडिया के इस पथभ्रामक दौर में देखने वालों के लिए उस बूस्टर डोज सरीखा है जो सवा दो घंटे में उसके भीतर सपनों के पीछे भागने की जिद, लक्ष्य के प्रति समर्पण और उसे पाने के लिए कठिन परिश्रम जैसे जज्बों का संचार कर देता है. चंदू चैंपियन सिर्फ खुद देखी जाने वाली फिल्म नहीं है, यह वो फिल्म है जिसे आपको खुद के साथ-साथ अपने परिवार के हर व्यक्ति को निश्चित तौर पर दिखानी चाहिए. ये फिल्म देखी जानी चाहिए मुरलीकांत पेटकर की जीवटता देख उससे इंस्पायर होने के लिए, ऐसी कहानी को तलाश कर उसे परदे तक लाने की हिम्मत करने वाले निर्देशक कबीर खान के लिए, पेटकर की छवि को अपने उम्दा और समर्पित अभिनय के जरिये परदे पर एकाकार करने वाले कार्तिक आर्यन के लिए और ऐसी फिल्मों के साथ मजबूती से खड़े रहने वाले निर्माता साजिद नाडियाडवाला के लिए.
कहानी मुरलीकांत पेटकर की है जो महाराष्ट्र के एक छोटे से अभावग्रस्त गाँव में पल-बढ़ कर भी ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने का सपना पाल लेता है. गाँव में घटनाक्रम कुछ ऐसे होते हैं जिसकी वजह से उसे गाँव छोड़ कर भागना पड़ता है. पर उस सपने के पीछे भागते हुए भी उसके मन में एक ही ख्याल आता है कि एक रोज वो इस गाँव में ओलम्पिक गोल्ड के साथ ही लौटेगा. अपने इस प्रयास में वो आर्मी ज्वाइन कर लेता है. जिसके जरिये उसे ओलम्पिक में बॉक्सिंग रिंग में उतरने का अपना सपना सच होता नज़र आता है. ओलम्पिक से पहले वर्ल्ड चैंपियनशिप में वो भटकाव का शिकार हो जाता है और मुकाबला हार जाता है. वो वापस से दोगुनी मेहनत करता है पर उसका ओलम्पिक का सपना तब अधूरा रह जाता है जब पाकिस्तान के साथ 1965 कि लड़ाई में उसे नौ गोलियां लगती हैं. दो साल बेहोशी कि हालत में रहने और रीढ़ की हड्डियों के बीच गोली फंसने की वजह से उसके कमर से नीचे का हिस्सा काम करना बंद कर देता है. उसे अपना सपना ख़त्म होता नज़र आता है. ऐसे वक़्त में उसके बॉक्सिंग कोच उसे पैरालम्पिक गेम्स के बारे में बताते हैं और उसे स्विमिंग के लिए प्रोत्साहित करते हैं. मुरली को एक नया मौका मिलता है खुद के सपनो को एक बार फिर से जीने का. वो वापस उसी जीवटता के साथ स्विमिंग पूल में गोता लगाता है और 1972 पैरालम्पिक गोल्ड के साथ बाहर आता है.
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कबीर खान ने फिल्म की बुनावट इस कदर मजबूत रखी है कि आप थिएटर में उससे बाहर नहीं आ पाते. कई मौकों पर आप परदे का वो जोश और जूनून गूसबम्प्स के साथ अपनी रगों में बहता हुआ महसूस करते हो. और बाकी का काम कार्तिक आर्यन की अदाकारी कर जाती है. कार्तिक की मेहनत और किरदार में उतरने के लिए की गयी तैयारी परदे पर कमाल करती है. मुरलीकांत के रूप में उन्हें देखना उनकी काबिलियत के एक बेहतरीन मुजायरे जैसा है. कार्तिक के अलावा विजय राज भी अभिनय की रवानगी में बहा ले जाते हैं.
आखिर में बस इतना कहूंगा कि अच्छी कहानियों को बनते रहने के लिए जरूरी है दर्शक उसे जरूरी काँधे का सहारा दें. तो जाइये और देखिये, देखिये ये फिल्म अपने सपनों के साथ खुद को जिन्दा रखने के लिए और सबको दिखाइए एक मेहनतकश और लक्ष्य के प्रति समर्पित खूबसूरत समाज के निर्माण के लिए.