-गौरव
प्रतिभा किसी परिचय की मोहताज नहीं होती. इंसान की लगन और मेहनत तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद उसे लक्ष्य तक पहुंचा कर दुनिया की नजरों में ला ही देती है. कुछ ऐसा ही किस्सा है बिहार के निर्मली गांव में जन्में बॉलीवूड के फेमस सिनेमेटोग्राफर असीम प्रकाश बजाज का. कैमरे के पीछे होने की वजह से नाम भले कम लोग जानते हों, पर काम ऐसा कि थियेटर में बैठा हर दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाए. सन ऑफ सरदार, डबल धमाल, चमेली और गोलमाल जैसी फिल्मों और सेक्रेड गेम्स जैसी वेब सीरीज में बतौर सिनेमेटोग्राफर और बहुचर्चित फिल्म पार्च्ड और राजमा चावल के प्रोडय़ूसर असीम का सिनेमायी सफर भी किसी स्क्रिप्ट से कम नहीं रहा. फिल्मेनिया से चंद घंटों की खास बातचीत में असीम ने इसी सफर को फिर से जीने की कोशिश की.
निर्मली जैसे छोटे से गांव से निकलकर पटना और दिल्ली होते हुए असीम बजाज की यात्रा उन्हें उनके लक्ष्य मुंबई तक ले गयी. बचपन पिता के सानिध्य से महरूम रहे. फिल्मों के काम करने वाले पिता के पास पहुंचने की जिद ऐसी कि खुद फिल्मों की यात्रा शुरू कर दी. यात्रा के हर पड़ाव में लक्ष्य हासिल करने के लिए मेहनत दोगुनी होती गयी. और आज आलम ये कि पिता के सानिध्य के साथ-साथ कई नेशनल और इंटरनेशनल ट्रॉफी बिहार के छोटे से गांव के इस शख्स के कमरे की शोभा बढ़ा रहा है. एक बार इनसे मिलने वाला व्यक्ति असीम और उनके काम का मुरीद हो जाता है. बातचीत की शुरुआत ही उनके सबसे प्यारे साथी (कैमरे) की बात से हुई.
-शुरुआत कैमरे की बात से करते हैं. एक्टर बनने के ख्वाब ने अचानक कैमरे के साथ जादूगरी कैसे शुरू कर दी?
-कैमरे से दोस्ती अचानक तो नहीं कह सकते, हां इसके प्रोफेशनल इस्तेमाल की कोई प्लानिंग नहीं थी. गांव का बच्चा था तो शुरुआत में परदे पर दिखने को ही फिल्मों में आने का माध्यम समझता था. इसी वजह से इस सफर की शुरुआत अभिनय से हुई. पर इस फ ील्ड में इंट्री के साथ समझ आया कि फिल्म निर्माण की कितनी सारी प्रक्रियाएं और विधाएं हैं. तब फ ोटोग्राफी से जो लगाव मन के अंदर कहीं दबा था वो उभर कर सामने आ गया. और तब से कैमरे के साथ का सफर अबतक जारी है.
-कैमरे से दोस्ती की शुरुआत की कुछ बातें बताएं?
-कैमरा थामना मुझे हमेशा से पसंद था. पर ये नहीं सोचा था कि मुझे इसे ही प्रोफेशनली इस्तेमाल करना है. धुंधला-धुंधला सा याद आता है 1991-92 के दौरान जब मैं पटना में रहता था. अशोक राजपथ के अलंकार ज्वैलर्स के मालिक के बेटे थे रवि. उन्हें अपनी तस्वीरें खिंचवाने का काफी शौक था. मैं उनकी तस्वीरें लेता और बदले में वो मुझे तब 50 रुपये प्रति तस्वीर देते थे. उस वक्त टाइम्स ऑफ इंडिया के सीनियर फ ोटोग्राफर थे प्रभाकर जी, जो मुझे फ ोटोग्राफी को ले काफी प्रोत्साहित करते थे. और मै कह सकता हूं कि इस विधा के वह मेरे पहले गुरु थे. तब से कैमरे के प्रति रुझान और समझ बढ़ी.
-थोड़ा पीछे चलते हैं. निर्मली से मुंबई तक के सफर को कैसे याद करेंगे?
-तो गाना-वाना भी हो जाता था. फिर दिल्ली में एक्ट वन के लिए एन के शर्मा जी के साथ काम किया. काफी रंगमंच किये. एक तरह से कह सकते हैं कि रंगमंच की जो बुनियाद पटना में पड़ी थी वो दिल्ली पहुंचकर और पुख्ता हो गयी. और आखिर में मुंबई पहुंचा.
-जेहन में कहीं याद आता है कि सिनेमा के लिए पहला आकर्षण कब महसूस हुआ?
-नौ साल की उम्र में. वो दिन मै कभी नहीं भूल सकता. अंतर्मन में शायद पहले से हो, पर सार्वजनिक रूप से अपने नौवें जन्मदिन पर इसे स्वीकार किया था. मुझे याद है एक मार्च का दिन था, जब मेरे जन्मदिन पर रिश्तेदारों ने मुझसे पुछा बड़े होकर क्या बनना है? तब मैंने शान से जवाब दिया था फिल्मों में जाना है. सिनेमा के लिए खुद की वह पहली स्वीकरोक्ति थी. दूसरी आकर्षण की एक बड़ी वजह मैं अपने पिताजी(एनएसडी के पूर्व निदेशक रामगोपाल बजाज) को मानता हूं. जैसा कि सबको पता है कि मेरे बचपन में ही पिताजी और मां का अलगाव हो गया था. सात वर्ष की अवस्था में मैंने उन्हें पहली बार देखा था. उन्हें फिल्मों में देखकर मन में कहीं यह भाव बैठ गया था कि अगर मैं भी फिल्मों में गया तो शायद पिताजी से मिल सकूंगा. सिनेमा मुझे उन तक पहुंचने का सबसे सशक्त माध्यम लगा. और मुझे लगता है यह सबसे मुख्य वजह रही मेरे सिनेमा से जुड़ाव की.
-योगदान की बात करें तो इस सफर में किन-किन का सहयोग मानते हैं?
-मैं तो हर उस शख्स का शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होंने मुझे कला के स्तर पर कभी भी सराहा या सुझाव दिया. फिर चाहे वो मेरे सहपाठी हों जिन्होंने मेरे हर गानों, मिमिक्री और नाटकों पर वाहवाही दी या फिर गांव के वे लोग जो किसी भी सार्वजनिक क ार्यक्रम में मनोरंजन के लिए गुड्डू (घर का नाम) का नाम सबसे पहले लेते थे. इन गतिविधियों और मस्ती में रुचि का आलम ये था कि बड़े भाई साहब (शांति प्रकाश बजाज) गुस्से में हमेशा ही ये कहते बड़े होकर गवैया, बजनिया और नौटंकी ही करोगे क्या? पर मेरी सफलता में सबसे अधिक सहयोग मेरे भाई साहब का ही रहा जिन्होंने तमाम गुस्से के बावजूद हर कदम पर प्रोत्साहित करते हुए ये भी कहा कि जो करो मेहनत और पूरी ईमानदारी से करो. इन सबके साथ-साथ मां और प}ी के सहयोग को तो भुलाया ही नहीं जा सकता.
-अभिनय, फ ोटोग्राफी, सिनेमेटोग्राफी, संगीत और फिल्मनिर्माण के क्षेत्र में आप पहले ही दखल दे चुके हैं. इन सब के अलावे असीम के अंदर और क ौन-कौन सी चाहतें हैं?
-कविताएं लिखना और सूनाना. मुझे लगता है ये शायद मुझे पिताजी से जेनेटिकली हासिल हुआ है. बचपन साथ नहीं गुजारने के बावजूद कविताएं पढ़ना, उनसे इश्क और मस्ती करना, फिर उतने ही असरकारी भावों के साथ सूनाना ये सब मुझे उनसे कहीं न कहीं जोड़ता है. -अजय देवगन की फिल्मों से खासा जुड़ाव रहा है. ये किस तरह की बांन्डिंग है?
-अजय जी का मैं हमेशा शुक्रगुजार रहूंगा. उनसे मेरा खास तरह का रिश्ता (दोस्ती और बड़े भाई जैसा) रहा है. पहली बार मैं उनसे जमीन फिल्म के दौरान मिला जो रोहित शेट्टी की पहली फिल्म थी. तब मैं बिलकुल फ्रेशर था. पहली मुलाकात में मैं काफी तैयारियों के साथ गया था. पर उन्होंने मुझसे सिर्फ इतना पुछा, ‘काम कर लोगे ना?’ और हां के साथ ही फिल्म मेरे हाथ में थी. तब से शुरू हुआ रिश्ता उनकी नयी फिल्म शिवाय तक जारी है जिसमें मैं डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी) था.
-इतने सारे नेशनल और इंटरनेशनल क ामयाबी के बाद बिहार की सांस्कृतिक विरासत को खुद के अंदर कहां पाते हैं?
-देखिए मेरा मानना तो यह है कि आप चाहें तो बिहार से बिहारियों को निकाल सकते हैं, पर बिहारियों के अंदर से बिहार को कभी नहीं निकाल सकते. मैं कहीं भी चला जाऊं मेरे अंदर का बिहार नहीं मर सकता. मैं इंटरनेशनल लेवल पर क ार्यक्रम में भी बिहारी संस्कृति की छाप लेकर ही शिरकत करता हूं. मेहनत, लगन और हक की लड़ाई हम बिहारियों की खास पहचान है, जो हर बिहारी के अंदर ताउम्र जिंदा रहता है.
-बिहार से जुड़ी कोई खास याद?
-यादें तो इतनी है कि वक्त कम पड़ जाए बताने को. पर अतीत की एक घटना जो अब तक मेरे साथ है वो है लाइट और शैडो का खेल. मुझे याद है जब भी कोई हवाईजहाज मेरे गांव के ऊपर से जाता तो मैं उसकी परछाई का पीछा करता. कुछ दूर भागने के बाद मैं पीछे रह जाता और वो परछाई नदी, नाले और मैदान होता हुआ दूर निकल जाता. परछाई नहीं पकड़ पाने की कसक के साथ लाइट और शैडो के इस खेल ने मेरे अंदर फ ोटोग्राफी क्वालिटी को जिंदा कर दिया. आज भी जब कभी हवाईजहाज पर चढ़ता हूं वह अहसास अंदर तक रोमांचित करता है.
-पार्च्ड जैसी संजीदा फिल्म के बाद बिहार से जुड़ी विषय पर फिल्म बनाने की कोई योजना?
-है, बिलकुल है. और आपको बता दूं मैंने कोशिश भी की थी. सम्राट अशोक पर फिल्म बनाने के लिए मैं तीन साल पहले इरफान खान के साथ मुंगेर आया था. हमने दो दिन की शुटिंग भी की थी. पर कुछ फ ाइनेंशियल प्रॉब्लम्स की वजह से चीजें वर्कआउट नहीं कर पायीं. तमन्ना है और विश्वास भी कि एक न एक दिन वह फिल्म करूंगा जरूर. क्योंकि इस फिल्म के साथ-साथ एक फिल्म मिथिला में मुझे करनी ही करनी है.
-अपने अबतक के जर्नी में खुद को कहां पाते हैं?
-शुरुआत है. बड़ा अचीवमेंट तो नहीं कहूंगा. क्योंकि चालीस की उम्र में न्यूटन को देखें तो खुद की अचीवमेंट बौनी नजर आती है. हां अचीवमेंट बस इतना है कि निर्मली, पटना और दिल्ली का असीम आज भी मेरे अंदर जिंदा है. बाकी तो मैं इसे शुरुआत ही मानता हूं.