भगवान दादा (Bhagwan Dada) हिंदी सिनेमा के ऐसे चर्चित नाम हैं, जिनके सिने गलियारे का साढ़े छह दशक का जीवन धूप-छाँव की कहानी है. भगवान दादा के हिस्से 298 फिल्में बतौर अभिनेता और 34 फिल्में बतौर निर्देशक रहीं. उन्हें सिनेमा जगत का पहला डांसिंग, एक्शन हीरो होने का खिताब भी मिला. सिनेमा उनका पहला महबूब रहा, जिसके इश्क में उन्होंने परेल के मिल की नौकरी से शुरुआत करके रजत पट पर अपने तरह के अभिनय की एक ऐसी लकीर खींची, जिसके प्रभाव से आगे के कई एक्टर्स नहीं बच पाए. भगवान आभाजी पालव उर्फ भगवान दादा ऐसे ही एक सिनेमाईं किरदार हैं जिनके बारे में कई किंवदंतियाँ फिल्मी सर्कल में पसरी हुई हैं. वेटरन एक्ट्रेस और टीवी प्रेजेंटर तबस्सुम अपने एक कार्यक्रम में भगवान दादा से जुड़ा किस्सा बताती हैं कि “भगवान दादा शूटिंग के दौरान अपने मेकअप रूम में आश्चर्यजनक रूप से आँखें खोलकर सो जाया करते थे.” वहीं एक राष्ट्रीय दैनिक के एक खबर की माने तो “अपनी एक फ़िल्म के एक दृश्य में उन्होंने असली नोटों की बारिश करवाई थी.”- इतना ही नहीं हॉलीवुड के मशहूर अभिनेता डगलस फेयरबैंक्स (द मार्क ऑफ जोरो, थ्री मस्कीटीयर्स, द थीफ ऑफ बगदाद, रॉबिनहुड फेम) की देखा-देखी अपने एक्शन सीन भी वह खुद ही किया करते थे. वह कुश्ती के भी शौकीन थे और राजकपूर उनके हाथापाई तथा अन्य एक्शन वाले दृश्यों को खुद करने के कारण उन्हें भारतीय डगलस कहा करते थे. कहा तो यह भी जाता है कि वह शेवरले कारों के इतने शौकीन थे कि उन्होंने अपनी एक फ़िल्म का नाम ही ‘शेवरले’ रखा.
भगवान दादा का जन्म 01 अगस्त 1913 को अमरावती में हुआ था. घर की स्थिति अच्छी नहीं थी. उनके पिता परेल, मुम्बई (तब बॉम्बे) के एक मिल में काम किया करते थे. भगवान दादा का मन पढ़ाई में नहीं लगता था सो उनकी पढ़ाई चौथी से आगे नहीं हुई और बहुत जल्दी ही वह भी पिता के साथ ही मिल में काम पर लग गए. पर उनका मन सिनेमा की ओर आकर्षित था तो वह काम के बाद आसपास के स्टूडियोज में चक्कर काटा करते थे. वहीं उन्होंने सिनेमा की बारीकियाँ और एक्टिंग के गुर सीखे. यह सीखत संगत से आई थी. तीस का दशक उनके एक्टिंग डेब्यू का है. उनके सिनेमा का दौर मूक सिनेमा का दौर था. उनकी शुरुआती दौर की फ़िल्मों में ‘क्रिमिनल’ और ‘बेवफा इश्क’ हैं. हालांकि उनकी शुरुआत मूक सिनेमा से हुई पर उनकी पहली बोलती फ़िल्म ‘हिम्मत-ए-मर्दा’ थी. इसमें उनकी हीरोइन ललिता पवार थीं..बेहद कम समय में उन्होंने सिनेमा में अपनी जगह बनाई और 1938 से 1949 तक लो बजट फिल्मों में काम भी किया और उनका निर्माण भी क़िया. लेकिन सिनेमाई इतिहास के लिए यह बेहद दुखद खबर है कि गोरेगाँव के जिस गोडाउन में उनके इस दौर के सिनेमा के टेप थे उसमें आग लग गयी थी और उनकी उस समय की तमाम फिल्में जल कर खत्म हो गईं.
बहरहाल, बीते बरस पंकज त्रिपाठी अभिनीत एक फ़िल्म आयी थी – लूडो . इसमें उनके सिनेमाई यात्रा की सर्वाधिक कमाई करने वाली आइकोनिक फ़िल्म ‘अलबेला’ का एक गीत दिखाया गया था और यह जल्दी ही दर्शकों के जुबान पर चढ़ गया. इस गीत के ओरिजिनल वर्जन को भी लोगों ने ढूँढकर देखा . वह गीत था – “ओ बेटा जी, अरे ओ बाबूजी, किस्मत की हवा कभी नरम, कभी गरम.” जिंदगी का खेल भी अजीब है. भगवान दादा के इस मशहूर फिल्म के गीत की तरह ही उनका जीवन भी रहा. एक दौर था जब उनकी एक अदा पर दर्शकों की भीड़ बॉक्स ऑफिस पर टूट पड़ती थी और एक दौर वह भी रहा जब उन्होंने सब कुछ गँवाकर अपने उसी चॉल में, जहाँ से जीवन शुरू किया था, में आम मौत पाई.
‘अलेबला’ 1951 की तीसरी सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म रही. इसी वर्ष राजकपूर की ‘आवारा’ और गुरुदत्त की ‘बाजी’ भी रिलीज हुई थी. सबसे कमाल की बात तो यह रही कि इन तीनों फिल्मों का गीत-संगीत दशकों बाद भी जबरदस्त हिट है. ‘अलेबला’ के गीत ‘शोला जो भड़के दिल मेरा तड़पे’ और ‘भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे’ आज भी उतने ही प्रसिद्ध हैं जितने अपने दौर में थे. यह पीढ़ियों में लोकप्रिय है. ‘भोली सूरत दिल के खोटे’ गीत से एक किस्सा यह जुड़ा हुआ है कि ग़ुरबत के दिनों में भगवान दादा जिस चॉल में रहते थे, वहाँ से इलाके की गणपति विसर्जन की टोली गुजरते समय उनसे जब तक इस गाने पर ठुमके न लगवा लेती तब तक आगे नहीं बढ़ती थी. भगवान दादा मेहनतकश और जुनूनी थे साथ ही किस्मत के धनी भी . किस्मत ने उन्हें चॉल से निकालकर हफ्ते के हर दिन के हिसाब से कारों का तोहफा भी दिया और जुहू जैसे पॉश इलाके में पच्चीस कमरों का बंगला भी. पर उसी किस्मत ने एक रोज पलटी खाई. किसी सितारे के फर्श से अर्श तक पहुँचने और फिर अर्श से फर्श पर गिरने का सटीक उदाहरण हैं – भगवान दादा.
आमतौर पर भगवान दादा ने हल्की-फुल्की विषयों पर कॉमेडी वाली फिल्में बनाई पर उन दिनों एक तमिल फिल्म ‘वनमोहिनी’ (1941) भी उन्होंने बनाई थी. इसमें हीरोइन श्रीलंकाई अभिनेत्री के. थवमनी थी. समीक्षकों के अनुसार यह फ़िल्म हॉलीवुड के निर्देशक हैरी फ्रेसर की फ़िल्म ‘जंगलमैन’ से प्रभावित थी. वनमोहिनी के क्रेडिट्स में उस हाथी के नाम का जिक्र भी था जिसने उस फिल्म में काम किया था.
उन्होंने एक खास तरीके के नाच की शैली को डेवलप किया जिसे बाद में फिल्म समीक्षकों ने माना कि उनकी नकल पर अमिताभ बच्चन, गोविंदा,मिथुन, ऋषि कपूर जैसे दिग्गजों तक ने नाचा. सिनेमा के नृत्य गुरुओं की जुबान में यह नाचने का यह स्टाइल भगवान दादा स्टाइल डांस के नाम से प्रचलित है.
किम यशपाल (Kim Yashpal): हिंदी सिनेमा का विस्तृत चेहरा (4)
वह संभवत: हिंदी सिने जगत के शुरुआती दौर के पहले डांसिंग और एक्शन स्टार रहे. भगवान दादा खुद में फिल्मों का टोटल पैकेज थे. उनकी सिनेमाई यात्रा के पड़ाव में मुख्य/चरित्र अभिनेता, नर्तक, एक्शन स्टार, लेखक, निर्माता, निर्देशक तक की भूमिकाएं हैं. सिनेमा के अपने बेहतर दिनों में उन्होंने चेंबूर में जागृति फ़िल्म स्टूडियो की स्थापना की थी. अल्प समय के लिए ही सही वह वाकई किस्मत के धनी थे, जिनके लिए सिनेमा पैशन था और अपने इसी पैशन के लिए मेहनत करते हुए वह दादर के लालूभाई मेंशन चाल वाया परेल के मिल से चलकर जुहू के अपने 25 कमरों के बंगले और सात शानदार मोटरकारों के मालिक भी बने लेकिन यह इंडस्ट्री और इसका ढब भी अजब है. यह सब चार दिन की चांदनी की तरह आई और उसी तरह चली गईं.
राजकपूर भगवान दादा की प्रतिभा और लोकप्रियता से प्रभावित थे. उन्होंने ही भगवान दादा को सामाजिक संदेश वाली फिल्में भी बनाने को कहा था . दादा ने 1951 में अपनी सबसे मशहूर फिल्म ‘अलबेला’ बनाई जिसमें गीता बाली उनकी हीरोइन थी. इस फिल्म ने भगवान दादा को सफलता के सातवें आसमान पर चढ़ा दिया. इसकी लोकप्रियता भारत के पार अफ्रीकी देशों तक पहुँची. इसी फिल्म ने उनको खासी शोहरत, पैसा, गाड़ी, बंगला सब कुछ दिया. इस फिल्म के गीत खासे मशहूर हुए ‘शोला जो भड़के, दिल मेरा धड़के’, ‘शाम ढले, खिड़की के तले, तुम सीटी बजाना छोड़ दो’, ‘धीरे से आजा अँखियन में निंदिया आजा रे आजा’, – जैसे गीत लोगों की आज तक जुबान पर है.
पर इसके बाद की कहानी पीड़ादायक है. इसके बाद उन्होंने गीता बाली के साथ ही ‘झमेला’ और ‘लाबेला’ बनाई. यह दोनों फिल्में बॉक्सऑफिस पर औंधे मुँह गिरीं. बाद में उन्होंने एक फ़िल्म किशोर कुमार के साथ बनाने की शुरुआत की – ‘हँसते रहो’ पर यह फ़िल्म पूरी न हुई और यही सबसे अधिक रुलाने वाली भी सिद्ध हुई. इन असफलताओं से भगवान दादा इतने बिखरे कि सबको हंसाने वाले इस नायक का बंगला, उनकी सभी गाड़ियाँ बिक गयी और यहाँ तक कि उनको अपनी आइकोनिक फ़िल्म ‘अलेबला’ के प्रिंट तक गिरवी रखने पड़ गए. ज़िन्दगी जुए और शराब की संगत में ऐसी पड़ी कि उनको दादर के उसी लालूभाई मेंशन चॉल में जाना पड़ा जहाँ से उनकी सिने यात्रा शुरू हुई थी. बाद में सिनेमा का यह चमकीला सितारा, धूसर होकर अपने जीवनयापन के लिए सिनेमा में छोटे से छोटा किरदार जैसे ड्राइवर, वेटर, हवलदार, चौकीदार, नौकर, डांसर, मुंशी, शराबी आदि निभाया और उनकी अंतिम फ़िल्म 1996 में आई लॉरेंस डिसूजा की ‘माहिर’ रही.
बीजू खोटे (Viju Khote) : हिंदी सिनेमा का विस्मृत चेहरा (3)
मधुजा मुखर्जी की किताब ‘ द मिसिंग स्टोरी ऑफ ललिता पवार’ में भगवान दादा का एक मशहूर वाक्या अभिनेत्री ललिता पवार से भी जुड़ा हुआ है. साल 1942 में फ़िल्म ‘जश्न-ए-आजादी’ के सूट में एक दृश्य को फिल्माते वक्त उन्होंने ललिता पवार को गलती से तेज थप्पड़ मार दिया. यह चोट इतनी गंभीर थी कि ललिता पवार की एक आंख हमेशा के लिए खराब हो गई. हालांकि इस बात के लिए भगवान दादा को उम्र भर मलाल रहा लेकिन ललिता पवार जो कि एक उभरती हीरोइन थी, इस घटना के बाद वह हिंदी सिनेमा की चरित्र अभिनेत्री बन कर रह गई.
भगवान दादा के बारे में एक और खास बात यह भी मशहूर है कि जिन दिनों विभाजन के कारण देश में दंगे हो रहे थे, उन दिनों उन्होंने अपने यहां ढेर सारे मुस्लिम कलाकारों, तकनीशियनों को शरण दी क्योंकि उनका मानना था कि कलाकार का कोई मजहब नहीं होता.
भगवान दादा की कहानी एक लीजेंड के आम से खास और फिर खास से आम बनने की दर्दनाक कहानी है. जिस चॉल से उनका सितारा मुंबई के आकाश में चमका था, उसने जुहू के पॉश इलाके के बड़े बंगले में बेहद कम समय तक चमककर, उसी पुराने चॉल में जाकर अपना देह त्याग दिया. उन्हें 04 फरवरी, 2002 को दिल का दौरा पड़ा था. लालू भाई मेंशन से जब इस अजीम फनकार का जनाजा उठा तो सिनेमा जगत का कोई बड़ा चेहरा सामने नहीं दिखा. हालांकि उस चॉल में उनसे मिलने आने वालों में उनके मित्रों में संगीतकार सी. रामचंद्र, ओमप्रकाश और गीतकार राजेन्द्र कृष्ण जैसे दोस्तों के ही नाम रहे. अपने आसमानी ऊंचाई के दिनों में उन्होंने सी. रामचंद्र, आनंद बक्शी और हेमंत कुमार तक को सिनेमा जगत में पैर जमाने में मदद की थी.
पर कॉमेडी के किंग और असल जीवन में भी मस्तमौला इंसान भगवान दादा के बारे में यह भी सच है कि उनके बुरे दिनों में भी उन्होंने अपनी इस स्थिति का अफसोस नहीं मनाया. उनकी शराबखोरी की लत को देखते हुए कहने वाले मजाक में यहाँ तक कहते थे कि भगवान दादा ने उस दौर में इतनी शराब पी थी कि उन शराब की खाली बोतलों को बेचकर जुहू में एक बंगला खरीदा जा सकता था. भगवान दादा की फिल्मों की सूची खासी लंबी है लेकिन उनकी महत्वपूर्ण फिल्मों में झनक झनक पायल बाजे, फिर वही रात, मुक्ति, फरार, शंकर शंभू, खेल खिलाड़ी का, चाचा भतीजा, शिक्षा, साहस, कातिलों के कातिल, दर्द-ए-दिल, बिंदिया चमकेगी, झूठा सच, लवर बॉय, फर्ज़ की जंग, गैर कानूनी आदि है. पर चलते चलते यह जान लीजिए कि हिंदी की पहली हॉरर फिल्म ‘भेदी बंगला(1949)’ भगवान दादा ने ही बनाई थी और हाँ! भगवान दादा के साथ भले हिंदी सिनेमा जगत ने न्याय नहीं किया पर मराठी सिनेमा इंडस्ट्री ने अपने तरीके से इस हरफनमौला कलाकार को सिनेमाई श्रद्धांजलि दी है. मराठी निर्देशक शेखर सारटंडेल ने उनपर ‘एक अलबेला’ (2016) नामक बायोग्राफिकल फ़िल्म बनाई. इसमें मंगेश देसाई ने भगवान दादा और विद्या बालन ने गीता बाली की भूमिका निभाई है.