-पुंज प्रकाश
आर्टिकल 15 अर्थात निषाद मतलब संगीत के सात स्वरों में से अंतिम स्वर जो सबसे ऊँचा भी है.
चलिए फिल्म पर बात करने से पहले औकात पर बात कर लेते हैं. वैसे औकात का सीधा सम्बंध पैसा, पहुंच और श्रेष्ठता बोध से माना जाता है लेकिन एक औकात और होती है बुद्धि और विवेक से सच को स्वीकार करने की औकात और कम से कम इस औकात के मामले में हम अन्तः फिसड्डी ही साबित होते हैं. हम अपने आसपास रोज़ जिन चीज़ों को देखते हुए नहीं देखते हैं और जब वो कोई दिखा देता है तो हम उसकी पूजनीय माताजी, बहन, बीबी, बच्चों का स्मरण करते हुए अपनी मूढ़ता के घमंड (सामंती रस्सी जल गई पर ऐंठन अभी बाकी है वाली) में चूर होकर उसकी औकात बताने लगते हैं. क्या औक़ात के नाम पर हमने शोषण नहीं देखी है? नंगा करके पीटते हुए लोग नहीं देखें हैं? गटर साफ करते हुए और सिर पर मैला ढ़ोते हुए लोग नहीं देखे हैं? मॉब लिंचीग की ख़बरें नहीं पढ़ी हैं? यदि हम इन बातों से अनभिज्ञ हैं तो यही कहना होगा कि या तो हम ज़रूरत से ज़्यादा मासूम हैं या फिर हम ज़िंदा ही नहीं हैं और हमारी सारी अनुभव करनेवाली अनुभूतियां ना जाने कब की मर गई हैं. केवल सांस लेते रहने और खाते-पीते बच्चे जनते रहने को ज़िंदा रहना नहीं कहा जा सकता और अगर सबकुछ जानते बुझते हुए भी हम अनजान हैं और इसे संतुलन क़ायम करने के लिए किसी अदृश्य शक्ति द्वारा बनाया गया दिव्य क़ानून मानते हैं तो फिर आज के समय में इन बातों पर केवल ठहाका ही लगाया जा सकता है. सवाल यह है कि देश संविधान से संचालित होगा कि सैकड़ों साल पहले लिखी किसी अन्य पुस्तक से? यह फिल्म दरअसल इन्हीं पुस्तकों में से सही पुस्तक अर्थात संविधान की पुस्तक का चयन करने की कहानी है, जो सबको समानता का अधिकार देता है और किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं देता कि वो किसी की जाति, धर्म, समुदाय या सम्प्रदाय के आधार पर किसी को भी औक़ात बताए. लेकिन समस्या यह है कि लिख तो दिया पर व्यवहारिक रूप से लागू नहीं हुआ – अभी तक. तभी तो फिल्म का किरदार निषाद कहता है – “कभी हम हरिजन हो जाते हैं कभी बहुजन हो जाते हैं, लेकिन हम कभी जन नहीं हो पाए कि जन गण मन में हमारी गिनती हो जाए.
” यह मूलतः औक़ात बतानेवालों की असली औक़ात बतानेवाली फिल्म हैं. अब ऐसी फिल्म पर भावना तो आहत होगी ही और होने भी चाहिए क्योंकि यह करण जौहर और खान साहब और एनजीओ व सरकारी मुहिम वाली बक़वास तो है नहीं. नंगा यथार्थ की आग है तो कहीं ना कहीं जलन तो होगी ही होगी और होनी भी चाहिए लेकिन देश और लोकतंत्र की भलाई इसी में हैं कि वो सब के सब समझ लें कि देश संविधान और उसकी सत्यपरक व्यख्या से चले तो बेहतर है वरना अराजकता का साम्राज्य होने और वीभत्सता फैलाने से कोई रोक नहीं सकता. और जब आग लगती है तो उसकी चपेट से कोई नहीं बचेगा क्योंकि आग के सामने बड़े बड़े औक़ातवालों की भी कोई औकात नहीं होती. वहां सब बराबर हैं.
फिल्म अपने डिक्लिरेशन में काल्पनिक होने की मजबूरन घोषण करती है लेकिन यह काल्पनिक नहीं बल्कि हमारे समाज की नंगी सच्चाई है. ना बलात्कार के बाद पेड़ से टांगकर मार देने की घटना काल्पनिक है, ना बांधकर पीटे जाते लोग, ना छुआछूत, ना जाति के नाम पर भेदभाव, ना जाति और धर्म का राजनीतिक घालमेल, ना व्यवस्था की असफलता, ना सीबीआई का अपने हित में इस्तेमाल, ना ताकतवर का खेल और ना ही पुलिस और अपराधियों का गठबंधन और ना ही सत्ता के लिए धर्म और जाति के मिश्रण का खेल. यह सब है तभी इस फिल्म की महत्ता है और इसे बनाने और प्रदर्शित करने का साहस भी.
वैसे भारतीय संविधान अनुच्छेद 15 (Article 15) में मूलरूप से धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध की बात करता है. वो कहता है कि (1) राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध के केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा. (2) कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर–(क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या (ख) पूर्णतः या भागतः राज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के संबंध में किसी भी निर्योषयता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा. (3) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी. (4) इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी.
अब कौन नहीं जानता है कि जाति, धर्म, समुदाय, सम्प्रदाय के नाम पर हमारे यहां क्या क्या नहीं हुआ है और क्या क्या वर्तमान में नहीं हो रहा है. अब अगर कोई कलाकार इन बातों के ऊपर फिल्म बनाने, नाटक खेलने, कविता, कहानी, उपन्यास लिखने का साहस करता है तो उसका स्वागत किया किया जाना चाहिए ना कि ट्यूटर और फेसबुक पर ट्रोल और धमकियां देनी चाहिए. अगर हमारे भीतर यह सब बुराई नहीं है तो हमें बुरा क्यों लगेगा और अगर है और कोई कह रहा या बता रहा है कि है तो हम सबको उसे ठीक करना चाहिए, ना कि बुराई को बढ़ावा देने के लिए बुराई को बतानेवाले को ही कटघड़े में खड़ा करना चाहिए.
दुनियां मूलतः दो वर्गों में विभाजित है – शोषित और शासक. शासक की तादाद हमेशा से ही मुट्ठी भर रही है और शोषितों की बहुत ज़्यादा. जब जब शोषितों ने आवाज़ उठाई है, उसे धन, बल, छल, मोह, माया, अवतारवाद आदि से फंसकर शोषकों ने बड़ी चालाकी से अपने कब्ज़े में रखा है. वहीं ऐसे लोगों की भी कोई कमी नहीं जो शोषित वर्ग से आते तो हैं लेकिन ताकतवर होते ही ख़ुद को शोषक में बड़ी आसानी से तब्दील कर लेते हैं और यह भूल जाते हैं कि असली संघर्ष शोसक की जगह पर बैठने और ख़ुद मुख्य हो जाने की नहीं है बल्कि असली संघर्ष बराबरी का है. किसी के साथ भी किसी भी वजह से गैरबराबरी होना, अन्याय है, अमानवीयता है, ग़लत है. आज ज़रूरत केवल इसकी व्याख्या मात्र करने की नहीं बल्कि इसे बदलने की है और यह समझने की है कि जन्म से हम केवल एक मनुष्य होते हैं बाकी कुछ नहीं. धर्म और जाति के बिना भी एक मनुष्य आराम से जी सकता है.
बहरहाल, फिल्म आर्टिकल 15 उतनी दूर तक को नहीं जाती लेकिन जहां तक भी जाती है उसे सार्थक ही कहा जा सकता है. वैसे भी “तोरा कहब त लग जाइ धकक से” से लेकर चंद्रशेखर आज़ाद की तरह मूंछों पर ताव देने और यह सपना दिखाने की कि “हम आखिरी नहीं है और भी आएगें” का रास्ता व्यर्थ हो ही नहीं सकता. इसके लिए फिल्म से जुड़े तमाम लोगों को बधाई. निर्देशक अनुभव सिंन्हा ने तुम बिन, आपको पहले भी कही देखा है, दस, तथास्तु, कॅश, रा.वन, गुलाब गैंग, तुम बिन जैसी फिल्मों में समय बर्बाद करने के बाद मुल्क और आर्टिकल 15 जैसी फिल्मों से फ़िलहाल जो राह पकड़ी है वो उन्हें सफलता की ओर ना भी ले जाए तो भी सार्थकता की ओर तो ले ही जाएगी; और एक कलाकार को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए सफलता से ज़्यादा अपनी सार्थकता की चिंता होने चाहिए. एक सार्थक कला व नहीं है जो बेसिरपैर का मसाला फेंककर अपने दर्शकों को सांस्कृतिक रूप से बीमार करके अपनी तिजोरी भरती है बल्कि एक सार्थक कला वो है जो अपने समय को सही और मानवीय नज़रिए से परिभाषित करती है. इस राह में हमेशा से ही रुकावट है, अब वो हैं तो हैं उसकी चिंता क्या करना. यहां कबीर को भी कूटा जाता है और खाए अघाए खलिहार लोग गांधी की भी रोज़ पुंगी बजाते रहते हैं.
अब आख़िर में मो. ज़ीशान अय्यूब के बारे में ना लिखूं तो न्याय ना होगा. विश्वप्रसिद्ध रंगचिंतक स्तनिस्लावस्की द्वारा संचालित मास्को आर्ट थियेटर का आदर्श वाक्य था – “कोई भी भूमिका छोटी बड़ी नहीं होती, केवल अभिनेता छोटा बड़ा होता है.” इस आदर्श वाक्य को दुनियां के कई सारे बेहतरीन कलाकारों ने समय-समय पर साबित भी किया है. ज़ीशान यह कारनामा इस फिल्म में भी अच्छे से करते हैं और इससे पहले भी अपनी पहली फिल्म नो वन किल्ड जसिका में मनु शर्मा की भूमिका में और कई अन्य फिल्मों में कर चुके हैं. हम रानावि में साथ पढ़े हैं तो इसकी प्रतिभा से भली भांति परिचित हूँ, जिसको भी ज़रा सा शक हो तो वो ज़िशन की फिल्म समीर देख लें. ज़ीशान बेहतर से बेहतरीन होने की ओर अग्रसर है बाकी, माना कि मुम्बई कि दुनियां का “गणित” कुछ और है लेकिन भाई ज़ीशान राह पकड़े चलो और कभी – कभी राह भटककर “स्टारों” के पीछे नाचनेवाली भूमिकाओं से परहेज़ करो, अगर कर सकते हो तो. वैसे भी निषाद का एक अर्थ यह भी है – संगीत के सात स्वरों में से अंतिम स्वर,जो सबसे ऊँचा भी है लेकिन अफसोस यह कि निषादों को आज भी अंडरग्राउंड रहना पड़ता है या फिर वो रोहित विमूला होने तक को अभिशप्त हैं!
फिल्म के अन्य भूमिकाओं में आयुष्मान खुराना, ईशा तलवार (अदिति), सयानी गुप्ता (गौरा), कुमुद मिश्रा (जाटव), मनोज पाहवा (ब्रह्मदत्त), नस्सर (पणिकर), रोहिणी चकर्बोरती (डॉ मालती राम), आशीष वर्मा (मयंक), सुशील पांडे (निहाल सिंह), आकाश दभांडे (सत्येंद्र), शुबराज्योति भारत (चंद्रभान) आदि अपनी अपनी भूमिकाओं में उचित ही हैं.
एक सार्थक फिल्म के लिए निर्देशक अनुभव सिन्हा, निर्माता ज़ी स्टूडियो और बनारस मीडिया वर्क, लेखक गौरव सोलंकी और अनुभव सिन्हा को बधाई और साथ ही साथ यह निवेदन की अगर आप चाहते हैं कि सवालों से टकराते हुए सार्थक सिनेमा और कला को बढ़ावा दिया जाय तो तमाम किंतु परंतु भूलकर सिनेमाहॉल में जाकर यह फिल्म ज़रूर से ज़रूर देखिए और भारतीय सिनेमा में आ रहे सार्थक बदलाव के मुहिम में अपनी भूमिका और ज़िम्मेदारी का निर्वाह कीजिए. अच्छी फिल्में फ़्लॉप हो जाती हैं और बेसिरपैर की बक़वास फिल्में 500 करोड़ कमाती है के शाप से भी मुक्त होने का समय आ गया है.