चलो, छपाक छपाक हो ही जाए अब तो
1 min read-पुंज प्रकाश
जो असहमति का जवाब तर्क के बजाए हिंसा और एसिड (मानसिक-शारीरिक और कैमिकल) से दे वो मानसिक रूप से बीमार है, और हिंसक होना कमज़ोर होने की पहचान है, ताकतवर और लोकतांत्रिक होने की तो बिल्कुल ही नहीं. दीपिका पादुकोण का JNU जाना फिल्म प्रमोशन का एक अहम अंग हो सकता है लेकिन यह अपनेआप में एक बहुत ही बड़ा, बेहद ज़रूरी और हिम्मत का काम भी है. भारतीय कलाकार समय समय पर ऐसे हिम्मत दिखाते रहते हैं, इतिहास गवाह है. मैं व्यक्तिगत तौर पर दीपिका का मुरीद नहीं हूं लेकिन इतना जानता हूँ कि वो उस प्रकाश पादुकोण की लड़की है जिन्होंने भारतीय बैडमिंटन को यह सिखाया कि चीनियों का मुकाबला कैसे किया जा सकता है. नियंत्रण और सटिकता का इस्तेमाल करते हुए वे खेल को धीमा करके अपनी गति पर ले आते थे और उनकी चतुराई उन्हें डगमगा देती थी. 1981 में कुआलालंपुर में विश्व कप फाइनल में हान जियान को 15-0 से ध्वस्त कर दिए थे. ये लगातार नौ साल 1971 से 1979 तक वरिष्ठ राष्ट्रीय चैंपियन रहे. कहने का अर्थ यह कि उसकी परवरिश एक खिलाड़ी के घर में हुई है, जो अपने दिमाग और तनिक और मेहनत और काम से विपक्ष को जवाब देता है, ना कि गालियां देकर या ट्रोल करके या देशद्रोही या पाकिस्तानी का बक़वास करके.
अब उस फिल्म की बात करते हैं जिसको आजकल दीपिका प्रमोट कर रही है. फिल्म है – छपाक. फिल्म को मेघना गुलज़ार ने अन्तिका चौधरी के साथ लिखा और निर्देशित किया है, जिसमें दीपिका ना केवल अभिनय कर रही है बल्कि उसकी निर्माताओं में से एक भी है. मेघना प्रसिद्ध शायर और गीतकार गुलज़ार और अभिनेत्री राखी की बेटी है, तो यह भी तय है कि उसकी भी परवरिश किसी कूढ़मगज परिवार में नहीं हुई है. जिसने भी मेघना की फिल्म फ़िलहाल, जस्ट मैरिड, दस कहानियां, तलवार और राज़ी जैसी फिल्में देखीं हैं वो यह बात भलीभांति जानते हैं कि दर्शकों का दोहन करके बेसिरपैर की फिल्म बनानेवाली फिल्मकार नहीं है. राज़ी तक आते आते वो जिस प्रकार निखरके आती है और भारतीय हिंदी सिनेमा को जो सार्थकता देती है, वो अपनेआप में बड़ा ही सार्थक है एयर सुकूनदायक है.
उसकी वर्तमान फिल्म छपाक एसिड अटैक सर्वाइवर्स की वास्तविक जीवन और संघर्षों की कहानी पर आधारित है. अब यह घटनाक्रम क्या है और देश में इस तरह की कितनी घटनाएं हुई हैं, उसे गूगल करके आसानी से पढ़ा जा सकता है.
दीपिका JNU गई और पीड़ितों से मिली तो उसके फिल्म के बहिष्कार, पोस्टर जलाना और फिल्म प्रदर्शन के दिन रोकने की कोशिश करना आदि घटिया मानसिकता का भी प्रदर्शन हो रहा होगा और अबतक दीपिका को शायद देशद्रोही भी साबित कर ही दिया गया होगा. ऐसी मानसिकता उसी सामंती और बीमार मानसिकता का समर्थन करती है जो एक एसिड अटैक करनेवाले बीमार दिमाग में उपजती है. फ़र्क केवल इतना है कि एसिड अटैक करनेवाला व्यक्ति किसी एक व्यक्ति को बदसूरत बनाता है, वहीं दूसरी प्रवृत्ति वाला विचार पूरे समाज को बदसूरत करने में लगा रहता है, लेकिन अगर मूल बात देखें तो दोनों एक ही हैं – बीमार और विषैले. बात समझ में ना आए तो नेताओं के भाषणों और उनकी जीहज़ूरी को छोड़कर ज़रा कवियों कथाकारों की शरण में जाना चाहिए. पटकथा नामक कविता में धूमिल लिखते हैं –
लेकिन मुझे लगा कि एक विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
बह रहा है
उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और
पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े
किलबिला रहे हैं और अन्धकार में
डूबी हुई पृथ्वी
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ाँव को चुपचाप सह रही है – – –
कुछ लोग होते हैं जो इस सड़ांध के ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत रखते हैं. हर सेक्टर के लोग बोल रहे हैं. शाहरुख खान ने भी बोला था और आमिर खान ने भी, जिन्हें कितना ट्रोल किया गया वो सबको पता है. आज बहुत सारे लोग सड़क पर आके बोल रहे हैं, हाँ कुछ महानायक मौनी बाबा भी बने हैं तो कुछ अनुपम अक्षय चापलूसी में भी लगे हैं, लेकिन इतना तो तय है कि वो भी किसी बर्बर और हिंसक समाज के पैरोकार तो नहीं ही हैं. वो गुमराह हैं गुनाहगार नहीं. बाकी कुछ बीमार लोग हर जगह है, कला का क्षेत्र में किसी बीमारी से अछूता तो नहीं ही है.बाकी जहां तक सवाल दीपिका और छपाक की है, तो दीपिका अगर JNU नहीं भी जाती तब भी छपाक जैसी फिल्मों को देखना और उसे प्रोत्साहित करना एक ज़िम्मेवारी का काम है. यह कम से कम इसलिए भी किया जाना चाहिए ताकि हिंदी सिनेमा के नाम पर कूड़ा करकट और सड़े गले बेसिरपैर की फिल्में बनना बंद हो. तो, चलिए छपाक करते हैं. हाँ, अगर फिल्म अच्छी बनी हो और कलात्मक के साथ ही साथ सार्थक भी हो और एसिड अटैक के मनोविज्ञान को केवल व्यक्तिगत और भावनात्मक ही नहीं बल्कि तार्किकता के साथ भी प्रस्तुत करती हो और सिनेमैटिक मापदंड पर भी खरी उतरने का प्रयास करती है तो वाह वाह भी किया जाएगा, नहीं तो यह भी कहने से नहीं चूकना है कि एक ज़रूरी सब्जेक्ट को छपाक करके डूबा दिया गया.