Wed. Apr 24th, 2024

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हंगामा है क्यों बरपा : “सुपर 30” टीजर

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filmania entertainment


-मुन्ना के. पांडेय

कल से “सुपर30” के टीजर पर भसड़ मची हुई है. मैं भी झटका खा गया कि एक्सेंट और किरदार का क्या खिचड़ी स्केच बनाया है मेरे प्रिय फिल्मकार विकास बहल ने. यह फ़िल्म मेरे अजीज कलाकारों से भरी हुई है पहले पंकज त्रिपाठी, दूसरे ऋतिक और तीसरे विकास बहल. सोचा कुछ न लिखूं पर मन न माना. कुछ सवाल जरूर हैं.
भाई विकास जी, आनंद कुमार खासे फेयर हैं और कोचिंग सेंटर चलाते हैं न कि कोइलरी में काम करते हैं जो ऐसा पोत दिया चेहरे को? यह एक खास किस्म की मानसिक संरचना है बिहार और बिहारियों को देखने की और शायद आप भी उसी झोंके में आ गए.
ऋतिक मेरे पसंदीदा हैं पर जिस किसी ने भी उनको बिहारी टोन की ट्रेनिंग दी है या जिसने उनके संवाद लिखे हैं, वह जरूर ‘ओकार’ से प्रभावित रहा होगा, हर बात को गोल बनाकर बोलना है माने 22 गज से आती हुई आवाज़ लगे, हद्द है. आलिया की बिहारी टोन कितनी टनमन है देखिए उड़ता पंजाब, लेकिन उसकी ट्रेनिंग पंकज त्रिपाठी जी की थी, उनकी मदद लेनी चाहिए थी.
बिहार को आजतक कपड़े का शउर नहीं, वह 90 के जमाने से निकला ही नहीं जहाँ हीरो पाजामे को पेट पर बेल्ट करता था और शूट शामियाने जैसा लटकन पहनता था. उन्होंने बेचारे ऋतिक को पेट पर बेल्ट करके ऐसा प्रस्तुत किया गोया यह धरती के उस हिस्से पर बसा है जहाँ अभी अभी लोगों ने केले की छाल, पते लपेटना छोड़ कपड़े पहनना शुरू किया हो. ऐसे लोग खुदाई में भी नहीं मिलते भाई, ऐसे मिले तो लोग पकड़ कर कार्बन डेटिंग शुरू कर देंगे उनका, समझे मियाँ.
जिस कलाकार से आपकी फ़िल्म को बूम मिलना है वह हैं पंकज त्रिपाठी, उनके फुटेज तो दाल में जीरे से भी कम है, पता नहीं क्यों? पंकज त्रिपाठी जी को जल्दी नए टीजर में डालिये . तुरुप का पत्ता वही हैं. लुका छिपी, स्त्री जैसी फिल्मों का इतिहास मालूम ही होगा. लोग जिसको देखना चाहते हैं उसको फुटेज दीजिए यह फ़िल्म के लिए भी बेहतर होगा. बाजार की इतनी हल्की समझ तो नहीं है आपको मुझे मालूम है.
यह तो हुई शिकायत, लेकिन यह एक दर्शक की निर्माताओं से निजी शिकायत है . व्यक्तिगत तौर पर ऊपरी बातों के अलावा मेरे लिए संतोषप्रद यह है कि विकास बहल बिहार के हिस्से का कुछ तो सार्थक दिखाने जा रहे हैं वरना लोगों ने तो अबतक रंगदारी, अपहरण, अपराध को ही बिहार का चेहरा बनाया हुआ है और उनमें से अधिकतर बिहार के ही हैं. ऐसे में विकास बहल और टीम को शुक्रिया बोलना चाहिए कि उन्होंने एक अलहदा परिवेश चुना. ऋतिक की परवरिश मुंबई की है न कि दिल्ली की. दिल्ली का कंपोजिट कल्चर अद्भुत है, यहाँ आप हर प्रान्त के लोगों से टकराते हैं और सीखते हैं. मैं मजाक में इसे आल इंडिया धर्मशाला भी कहता हूँ. तो इस आवाजाही में अलग-अलग हिस्सों की जबानों और देहभाषाओं से भी परिचय होता है. ऋतिक इससे महरूम रहे हैं, इसलिए भी उनसे सौ टका उम्मीद पालना भी उचित नहीं. मेनस्ट्रीम कलाकार कुछ प्रयोगधर्मी होना चाहता है तो हम उससे ‘दुर्र दुर्र बिल बिल’ करने पर आमादा हैं. प्रयोग होने दीजिए यह हिंदी सिनेमा का सबसे उर्वर दौर है. फ़िल्म आएगी हिट होगी फ्लॉप होगी सब बाद की बात है. मसला यह है कि लोग यह भी कह रहे है इसमें अमुक अलां फलाँ अभिनेता क्यों नहीं? मैं अभिनेताओं के बाजार वैल्यू पर बात नहीं करूंगा पर ऋतिक से कंगना (क्वीन, तनु वेड्स मनु, रिवाल्वर रानी वाला एक्सेंट) राजकुमार राव का यूपी वाला एक्सेंट (शादी में जरूर आना, बरेली की बर्फी) आयुष्मान (विक़्क़ी डोनर, दम लगाके हईशा) सुशांत, मनोज बाजपेयी, पंकज त्रिपाठी वाली उम्मीद न करें. न तो उनकी थियेटर वाली ट्रेनिंग है ना वह उस स्तर के अभिनेता हैं. आपका यह अप्रोच उनमें पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह जैसों को तलाश रहा है . वैसे भी सबने पसंदीदा नाम गिना दिये हैं (सबमें एक कास्टिंग डायरेक्टर पैदाईशी है) मनोज बाजपेयी, पंकज त्रिपाठी, सुशांत सिंह उड़ाए जा रहे हैं, आप दो चार नाम और जोड़ लीजिए. लेकिन ध्यान रहे कहीं आप अपने बेमिसाल कलाकारों को केवल बिहारी आइडेंटिटी के साथ ही जोड़े रखना तो नहीं चाहते हैं? या फिर उनका स्टैंडर्ड एक खास किरदारी पहचान से ऊपर भी देखते हैं? सोच लीजिए! फिर तो कोई बिहार का अभिनेता पंजाबी, हरियाणवी, दक्षिण भारतीय, मुम्बईया किरदार करेगा ही नहीं. उसको केवल अपने इलाके की कहानी का इन्तज़ार करना होगा. वैसे भी जिंदगी यूँ होता तो क्या होता में ही अधिकतर कटती है सो शायद सब ऐसा इसी वजह से कर रहे हैं . भूलियेगा नहीं मनोज बाजपेयी को मानसिंह और भीखू म्हात्रे के रोल ने एस्टबलिश किया, यह दोनों पुरबिया किरदार नहीं थे. पंकज त्रिपाठी के इंटरव्यू देखिए. जिस गुड़गांव के केहरी सिंह का वह बार बार जिक्र करते हैं वह हरियाणवी जाट किरदार है, सुशांत के हिस्से जिस पवित्र रिश्ता ने बड़ी पहचान दी वह मराठी बैकड्रॉप की थी. कंगना की तनु वेड्स मनु कनपुरिया है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि कलाकारों की यही तो खूबसूरती है कि वह बार-बार अपने निज को तिरोहित कर अपने क्राफ्ट को ब्रेक करता है और नया चेहरा ले आता है. ऋतिक ने कोशिश की है, उनकी कोशिश प्राथमिक तौर पर आपको जमती नहीं दिखती पर क्या पता फ़िल्म बढ़िया लिखी गयी हो, निर्देशन अच्छा हो, टोटलिटी में फ़िल्म की पैकेजिंग बढ़िया हो, विकास बहल अपने को पहले ही सिद्ध कर चुके हैं, तो क्या पता बाकी दिक्कतें भी धूमिल हो जाएं. आनंद कुमार ने लिखा है कि टीजर देखकर घर वालों की आंखों में आंसू आ गए. उनके बयान का आधार ही ले लीजिए. लिफाफा (टीजर)ठीक दिख रहा है उम्मीद है मजमून (फ़िल्म) भी बेहतर होगा. हालांकि ऋतिक अभिनेता अच्छे हैं और मेहनती भी. दरअसल समस्या क्या है कि ऋतिक में ‘कोई मिल गया’ वाले रोहित की इतनी मिमिक्री हुई है कि आमजन के जेहन में वह अच्छे या बुरे जो भी हो एक निश्चितभाव से बस गया है, एक नजरिये से यह ऋतिक की उपलब्धि मानी जानी चाहिए. मुझे तो वह अभिनेता की शक्ति लगती है, जो उनका कोई किरदार देखते हुए लोगों को उनका दूसरा किरदार और उसकी देहभाषा नजर आने लगी. वैसे क्या आपको नहीं पता कि बायोपिक्स में हम कितने प्रयोगशील हैं? कितने ईमानदार हैं? हम बॉक्स ऑफिस से प्रयोग करते ही नहीं इसलिए मेरीकॉम आम मसाला फ़िल्म बनकर रह जाती है. लेकिन सिनेमा के प्रेमी है तो फीनिक्स पक्षी की तरह उठ खड़े होने की आदत डालिए, हर बार नई उम्मीद पालिए. क्या पता दूसरे का प्रयोग अधिक कारगर लगे. खैर बातें है बातों का क्या. राजकपूर जैसे शो मैन का ड्रीम ‘मेरा नाम जोकर’ यथार्थ के धरातल पर मुँह के बल गिरा और औसत अमीर गरीब के प्रेम की कैशोर्य प्रस्तुति ‘बॉबी’ लोगों को नई लग गयी थी. जोकर के भीतर का मशखरा देखने की आम मानसिकता को जोकर का दर्द देखकर अपनी मानसिकता के जकड़न की टूटन बर्दाश्त न हुई थी. खैर किस्से बहुत हैं. फिलहाल इस टीजर के आते ही भोजपुरी की एक कहावत का भाव इतना बेसब्र होकर लोगों में पसरता दिखा है कि ‘भल मरलस भल पिलुआ पड़ गईल’ (ऐसा मारा कि मारते ही कीड़े पड़ गए.) यह तो ठीक बात नहीं.
मैं व्यक्तिगत तौर पर अपने अज़ीज़ अभिनेता पंकज त्रिपाठी जी के लिए थिएटर पहले जाऊँगा बाद में विकास बहल फिर ऋतिक के नाम से. ऋतिक ने बतौर निर्माता एक ऐसे विषय को चुना है जो उनकी ग्रीक योद्धाओं वाली देहयाष्टि के माकूल नहीं है पर उन्होंने इसे करना स्वीकार किया. यह इस फ़िल्म की उपलब्धि है. यह फ़िल्म मी2 जैसे प्रकरण से निकली है सम्भव है उसने भी इसकी पेस को कम किया होगा. अब इसको रिलीज डेट मिल गयी है तो कम से कम बिहार के इस तरह की सार्थक छवि को पेश करने की कोशिश को सलाम करने हौसला देने जाइयेगा. वरना बिहार की जिस छवि को भोपाल, मध्य प्रदेश, नासिक महराष्ट्र के हिस्से में शूट करके प्रकाश झा ने खड़ा किया है वही केवल बिहार का सच नहीं है. या वह जो ‘अपहरण’ वेब सीरीज ने किया है, उस पर कोई नहीं पूछने कूदा कि अरे मूर्खों! हरिद्वार ऋषिकेश के लोग कबसे बिहारी बोलने लगे? हमने वैसे भी चाशनी वाली चम्मच में से चम्मच को पकड़ लिया है और चाशनी देख भी नहीं रहे. और जिनको यह एक्सेंट चिढ़ाने वाला लग रहा है तो जान लीजिए इस टीम को बिहार को चिढ़ाना ही होता तो परंपरा से काम करते और यही विषय कहीं और कर बैकड्रॉप पर शिफ्ट करके शूट हो जाता और असल बिहारी एक्सेंट वाला क्रिमिनल, या रामू श्यामू या गॉर्ड बना दिया जाता. जीवन में हर चीज परफेक्ट होगी तो इम्प्रूवमेंट की संभावना ख़त्म हो जाएगी. ट्रेलर किंचित चुभता जरूर है लेकिन विषय अच्छा है, फ़िल्म प्रेमी हैं तो इसे टीम की कोशिशों के लिए देखिए. बजाय इसके कि शुरू में ही गर्दन टीप दें! “बिरवे (नन्हें पौधे) को उंगली दिखाकर नापा नहीं जाता, वह मर जाता है.” बिहार की इस लोकमान्यता को तो आप जानते ही हैं. मुट्ठी बनिये उंगली नहीं. हालांकि मेरा सवाल वही है ट्रेलर में पंकज त्रिपाठी जी का स्पेस खत्म करके ऋतिक बाजार को और ऑडिएंस को समझने में बड़ी भूल कर रहे हैं. सनद रहे ऋतिक को एक अदद बड़े हिट की जरूरत भी है. तब तक हंगामें की जरूरत नहीं जान पड़ती. टीजर महज लिफाफा है और जो यह दावा करता है कि मैं लिफाफा देख मजमून भाँप लेता हूँ, उसे आदमी नहीं गुरुघंटाल कहा जाता है. शुभकामनाएं टीम सुपर30