क्या यथार्थ-अयथार्थ के द्वंद्व को अस्वीकार करने पर कवि कल्पना की सुंदर चेतना के आश्रय में एक निर्द्वन्द्व की अनुभूति एक सार्वभौमिक यूनिवर्सल तत्व का संधान मिलता है? तो क्या फिर कवि की व्यक्तिगत अनुभूति की पार्टिकुलैरिटी इस सार्वभौमिकता का खण्डन नहीं करती? युवा फिल्मकार विकास झा की चर्चित शार्ट फ़िल्म कवि कल्पना के भीतर के उठते सवाल यही हैं. सी.एच. हरफोर्ड ने लिखा है कि विशेष के प्रति निष्ठा, अर्थात कवि का कल्पना स्वातंत्र्य, निर्विशेष को प्रतिष्ठित ही करता है. कवि कल्पना का यही निर्विशेष एकाएक विशेष में परिवर्तित हो जाता है. कीट्स ने लिखा है what is the imagination seizes as beauty must be truth, whether it existed before or not यानी कल्पना जिसे सुंदर समझती है, वह सत्य होने को बाध्य है – चाहे उसकी सत्ता पहले रही हो या नहीं. कवि कल्पना के बारे में जो धारणा बनती है वह यह कि जो लोकातीत है, अवास्तविक है, परंतु कवि के मन में वृहत्तर है अतिशय स्पष्ट और प्रत्यक्ष है. जिसे वह forms more real than living man कहता है. जिसे हम वास्तविक संसार कहते हैं उसके भीतर सृष्टि का समाज का जो गूढ़ रहस्य है कवि कल्पना उसका भेदन करके उसमें पैवस्त हो सकती है. इसी वजह से वह ऐसी वस्तु का निर्माण करती है जो विसदृश होने ओर भी अनुभूति के उच्चतर सोपान में असंगत नहीं लगती. इस रचना के क्रम में एक और बात स्पष्टतः सामने आती है की उत्कृष्ट कल्पना ही चित और जड़, आइडियल और रियल को एक सूत्र में आबद्ध करती है. एक कवि अपने एक रचनात्मक लेखकीय ब्लॉक से जूझते हुए अपनी पत्नी के साथ किसी कल्पनात्मक सूत्र की तलाश ले लिए वार्ता शुरू करता है. चर्चा के क्रम में उसके तमाम ओढ़े हुए आवरण, जिसके नीचे एक पुरूष सदियों आए बैठा है, की सीवन उधड़ने लगती है. कवि कल्पना वैसे तो एक छोटी फ़िल्म है लेकिन उसके भीतर के सवाल सामयिक और शास्त्रीय हैं. रचनाकार का व्यक्तिसत्य क्या उसकी रचना के केंद्र में पैठ सकता है य्या अनिवार्यतः उपस्थित होता है? क्या प्रत्येक रचनाकार के भीतर एक मूल अलग मन:स्थिति और विचार का भी बैठा होता है जो परिस्थितियों में अलग-अलग हो सकता है? विकास झा इन सवालों के बीहड़ों से गुजरते हुए एक काव्यात्मक रोचक प्रस्तुति देते हुए कम में जटिल बात को सरलता से दर्शकों पर मन मस्तिष्क पर छोड़ देते हैं. यह फ़िल्म यू टयूब पर उपलब्ध है और इसकी भाषा मैथिली है लेकिन दृश्य और प्रस्तुति इतनी प्रभावी है कि भाषा बाधक नहीं बनती. इसके लेखक विकास खुद ही हैं और पूरे संवाद पद्यात्मक हैं. इसे देखते हुए राजकुमार और प्रिया राजवंश वाली हीर रांझा के संवाद बरबस याद आते हैं. लेकिन यह केवल पद्यात्मक होने की वजह से है. जरूरी बात यह है कि यह जैसे भी हुआ हो बेहतर हुआ है. फ़िल्म के संवाद इस शार्ट फ़िल्म की एक और विशेषता है कि यह किसी वाद के घेरे या अवधारणात्मक खोल को ओढ़े बगैर जो बात कह देती है, वह दसियों पुस्तकों पर भारी है.
-मुन्ना के पांडेय
फ़िल्म का लिंक ये रहा–