-पुंज प्रकाश
चरित्र होना और चरित्र बनना और चरित्र बनाना : तीनों अलग-अलग बात है. अभिनय पर गंभीरता से काम करनेवाले लोग इस सत्य से भलीभांति परिचित हैं. किसी भी इंसान का मूल चरित्र एक ही होता है बाकी भिन्न-भिन्न कारणों से अलग-अलग रूप धारण करता है. कभी वो बनता है, कभी बनाता है. वैसे बनने का असली मज़ा ही बनाने में है और यही बनने का चरम लक्ष्य भी है. अब अभिनेता का काम ही होता है अलग-अलग रूप को धारण करना तो इसके लिए वो कठिन श्रम, जप, तप करता है ताकि उसका चरित्र विश्वसनीय लगे. एक ज़माना था जब लोग अति-नाटकीयता के शिकार होते थे. ऐसा करना वक्त की ज़रूरत भी थी. फिर मेथर्ड एक्टिंग का आगमन हुआ दुनियां में और उसने दुनियां भर के अभिनेताओं और रसिकों को ख़ूब प्रभावित किया. लोगों ने मेथर्ड एक्टिंग सीखने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत की. कुछ कुशल शिक्षक हुए तो कुछ कुशल प्रशिक्षक तो कुछ कुशल विद्यार्थी. कुछ ने इसे सीखने में मुंह की भी खाई.
मेथड एक्टिंग में आप चरित्र बनने, बनाने और होने के बीच के फ़र्क को मिटाने की हरसंभव कोशिश करते हैं लेकिन ऐसा करते हुए भी अभिनेता का अपना निजी वजूद ख़त्म नहीं होता बल्कि उसकी पूरी रचना ही इस निजी वजूद पर खड़ा होता है. इस वजूद में उसके विचार, उसकी बौद्धिकता, उसकी सोच, उसकी समझ, उसकी शिक्षा, उसकी परवरिश, उसका इतिहास-भूगोल, उसकी इच्छा, उसका उद्देश्य आदि सब समाहित होता है. आप चरित्र की तरह हावभाव, भंगिमाएं, पहनावा-ओढावा, बात-विचार ही नहीं वरन उसी की तरह सोचने का प्रयत्न भी करते हैं. यह कोशिश जितनी सहज, स्वाभाविक, वैज्ञानिक और प्राकृतिक होती है, सहृदय दर्शकों का मन वो उतना ज़्यादा मोहती है और इसके लिए निरंतर अभ्यास और तकनीकी ज्ञान की भी आवश्यता पड़ती ही पड़ती है.
मेथड एक्टिंग में एक टर्म है जिसे हम solitude के नाम से जानते हैं. इसके लिए कुछ अभ्यास है जिसको बार-बार अभ्यास करके साधना होता है. solitude के मूलतः दो प्रकार हैं – private solitude and personal solitude. Personal solitude का प्रदर्शन आप लोगों के समक्ष करते हैं लेकिन private solitude का नहीं; क्योंकि इसका भेद अगर खुल गया तो आपका सारा अभिनय व्यर्थ समझिए. पर अभ्यास इसका भी होता है कि क्या और कैसे छुपाना है और क्या और कैसे दिखाना है.
इन दोनों solitude का संबंध अन्तः प्रदर्शन (दर्शकों के समक्ष) और उसका प्रभाव (आपकी गतिविधि का क्या प्रभाव देखनेवालों पर पड़ता है) पर ही होता है अन्तः. कहने का अर्थ यह कि सबकुछ केवल और केवल प्रभाव (नाटकीय) उत्पन्न करने का ही माध्यम होता है अन्तः. नाट्यकला कला में वैसे भी जो कुछ भी होता है वो दर्शकों को प्रभावित करने के लिए ही होता है, अब जीवन में इसका कितना महत्व है यह आप ख़ुद तय करें तो ज़्यादा अच्छा होगा. वैसे भी जैसी ही तीसरा पक्ष (कोई देखनेवाला, कैमरा या चाहे आंखे) शामिल होता है, तो दिखाने का पक्ष अपनेआप ही शामिल हो जाता है और आपके चाहने और ना चाहने से भी इस बात में कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता. वैसे दिखावा और दिखाने के बीच भी फ़र्क है, अगर हम इस फ़र्क में फ़र्क करना जाने तो. जो दिखता है या जो दिखाया जाता है वो सत्य का एक पहलू हो सकता है, पूरा सत्य नहीं. वैसे पूरा सत्य क्या है यह एक गहन विमर्श का विषय है इसके चक्कर में व्यक्ति राशोमन (कुरुसावा की एक फिल्म) हो जाता है.
स्तनिस्लावसी द्वारा खोजे गए मेथड एक्टिंग के इस विषय पर विश्वप्रसिद्ध अभिनय शिक्षक Strasberg अपने विचार व्यक्त करते हुए अर्ज़ करते हैं कि – “When the actor is on the stage, he is of course in a public theatre. But what he is doing on the stage should appear to the public to be private. When the actor creates this sense of privacy, he does not go out “to join the audience”, the audience comes to where he is. Private Moment exercise was not of value to actors who have no difficulty in involving themselves completely, without concern for the public, or for actors who love to do emotional things anyway, without regard for the public. I have found in my workshop that all of the actors can benefit from the Private Moment exercise, and assign it to each of them at various stages of their development.”
बहरहाल, मेथड एक्टिंग में आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य तथा दर्शक/कैमरा सब शामिल होता है, स्थान, दिनांक, काल, समय चाहे कोई भी हो और वर्तमान समय में हम सब अभिनय करते हैं, उद्देश्यपूर्ण अभिनय. वैसे सही समय से और सही सोच-विचार और रणनीति के तहत किया गया अभिनय अमूमन सफल ही होता है बशर्ते उसमें सत्व की अधिकता हो. वैसे सत्व और असत्व की परख तो परखी ही जानते हैं लेकिन अभिनय सब करते हैं; कोई कम, कोई ज़्यादा. हम सबके अभिनय का उद्देश्य अलग-अलग है. इनके लिए हम हर तरह के भाव का प्रदर्शन करते हैं. हम हंसते हैं, रोते है, चीख़ते हैं, चिल्लाते हैं, ख़ुश होते हैं उदास आदि भी होते हैं और उचित समय देखकर दिखावा भी करते हैं. जो होते नहीं वो होने का दावा करते हैं और जो दावा करते हैं वो कभी हम शायद होते भी नहीं है और होना भी नहीं चाहते. लेकिन क्या करें, अनेकानेक स्थितियां-परिस्थितियां हमें ऐसा करने को विवश करती हैं तो कई बार हम अपने मन से ऐसा करते हैं क्योंकि यही हमारा मन है और यही हम हैं. जिसका अभिनय जितना स्वाभविक होगा, उतना ही वो सत्य जैसा प्रतीत होगा