– चंद्रकांता
आज से अपना हिंदुस्तान आज़ाद होता है.
1954 की फिल्म बूट पॉलिश बच्चों की गरीबी, बेरोज़गारी, बाल श्रम , बेगारी, शारीरिक शोषण,सामाजिक सुरक्षा और अशिक्षा पर खुलकर बात करती है . होमलेस या स्लम में पलने-बढ़ने वाले बच्चों पर हिन्दी सिनेमा में मीरा नायर की सलाम बॉम्बे ( 1988 ), डैनी बॉयल व लवलीन टंडन की स्लमडाग मिलिनेयर ( 2008 ) और संदीप सिह बावा की दी स्लम स्टार्स ( 2017 ) जैसी फिल्में भी बनी हैं लेकिन सामाजिक यथार्थ को जिस तरीके से बूट पॉलिश उघाड़ती है वह अनूठा है .
‘बूट पॉलिश’ फिल्म की शुरुआत अंधेरे से होती है . शहर भर में हैजा फैला हुआ है. एक अंजान व्यक्ति भोला और बेलू नाम के दो बच्चों के साथ एक गन्दी बस्ती में कमला नाम की किसी महिला को खोज रहा है . कमला की अनुपस्थिति में वह व्यक्ति उन बच्चों को कमला के पड़ोसी जॉन के पास छोड़ जाता है . रात को कमला घर वापस आती है उसे बच्चों की जानकारी मिलती है और एक ख़त भी . जिससे उसे मालूम होता है की उन बच्चों की माँ हैजे से मर चुकी है और पिता को कालापानी की सजा हो गयी है. ख़त में कमला से अनाथ हो चुके उन बच्चों की ज़िम्मेदारी लेने की प्रार्थना की गयी है . दरअसल कमला उन बच्चों की चाची है . एक समय था जब उन बच्चों के माता-पिता ने कमला का तिरस्कार किया था. कमला अब भी प्रतिशोध की अग्नि में झुलस रही है . अपने इसी बदले को पूरा करने के लिए वह बच्चों से दुर्व्यवहार करती है, उन्हें मारती-पीटती है और भीख मांगने के काम पर लगा देती है.
कमला भोला ( रतन कुमार ) और बेलू ( बेबी नाज़ ) को भीख मांगने का प्रशिक्षण देती है ताकि वो अधिक से अधिक कमाई लाकर उसके हाथों में दे सकें . हालात के मारे मासूम भाई-बहन आखिरकार लोकल ट्रेन में कभी गाना गाकर तो कभी अपनी जहालत का वास्ता देकर लोगों से भीख माँगना शुरू करते हैं . धीरे-धीरे जब उन्हें लोगों की उलाहना और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है तब उन्हें समझ आता है की भीख माँगना बुरी बात है . अपने रोज़ाना के अनुभव से भोला की यह समझ विकसित होती है की एक सम्मान भरी ज़िंदगी जीने के लिए उसे कोई काम-धंधा करना चाहिए. अपने एक जानकार लड़के को ट्रेन में बूट पॉलिश करते देख कर वह भी यही काम करने की ठान लेता है. भोला और बेलू कमला चाची की पैनी नजर से पैसे बचाकर उन्हें जमा करना शुरू करते हैं . एक रुपया और कुछ आने जमा हो जाने पर दोनों भाई-बहन एक लाल पॉलिश, एक काली पॉलिश और दो ब्रश खरीदकर लाते हैं. ऐन इस वक़्त बच्चों का एक संवाद देखिये –
भोला- आज से अपना हिन्दुस्तान आज़ाद होता है .
भीख माँगना बंद .
बेलू- काम करना चालू .
भोला- महात्मा गांधी की जय .
बेलू- जवाहरलाल नेहरु की जय .
भोला- देखना बेलू आज से मैं कितने पैसे रोज कमाता हूँ !
बेलू – फिर तू मुझे बेर ला देगा न !
भोला- अरे बेर ही नहीं फिर मैं तुझे फ्राक भी लाकर दूंगा बेलू- लाल वाली फ्राक !
फिल्म यह संदेश देती है की भीख व बेगारी एक निंदनीय कर्म है और इनसे मुक्त व्यक्ति ही सही मायनों में आज़ादी है . श्रम और सम्मान से कमाई गयी रोटी से अधिक अनमोल इस दुनिया की कोई वस्तु नहीं है . जिस दिन भूख, मुफ़लिसी और बेगारी से हमारा भारत मुक्त हो जाएगा वह दिन सच्चे मायनों में आज़ादी का होगा .
दो पैसे आ जाने के बाद भी भोला और बेलू की आसक्ति केवल इतनी है की वे बेर खा सकें. जीवन की सबसे कठोर स्थितियों में भी अनावश्यक संचय का विचार उनके मन में नहीं आता . ऐसी कोमल कल्पना केवल बाल मन ही कर सकता है .
खुशी में डूबे हुए भोला और बेलू जॉन चाचा के घर पहुँचते हैं और बूट पॉलिश का सामान लाकर जीसस की तस्वीर के साथ रख देते हैं. यह दृश्य-विन्यास बेहद सुखद, भावनात्मक और सांकेतिक है . यह दृश्य आपको विश्वास दिलाता है की ‘कर्म ही पूजा है’ . यह बच्चों के उस अबोध मन का खुलासा करता है जहां बच्चे ईश्वर और मनुष्य में भेदभाव नहीं करते.
भोला और बेलू बूटपॉलिश का काम शुरू करते हैं जिसे सिखाने में जॉन उनकी मदद करता है . जॉन का किरदार अभिनेता डेविड अब्राहम नें निभाया है . जान चोरी और शराब का अवैध कारोबार करता हैं लेकिन मन से सहृदय है . जब-जब कमला दोनों बच्चों के साथ हिंसा करती है तब-तब जॉन चाचा उन्हें ममता भरा आश्रय देते हैं. जॉन चाचा बस्ती के लोगों को भी समझाते हैं की भीख माँगना बुरी बात है और लोगों को इसकी जगह कोई काम करना चाहिए.
फ़िल्म की रफ्तार आगे बढ़ती है . बरसात का मौसम आ गया है , बरसात में लोग जूता पॉलिश करवाने में रुचि नहीं लेते. उधर पुलिस अवैध शराब के काम के चलते जॉन की धर-पकड़ करती है और उसे जेल में डाल देती है इधर भोला और बेलू को खाने के लाले पड़ जाते हैं. भाई बहन पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ता है और वे एक दूसरे से रेलवे स्टेशन पर बिछड़ जाते हैं . एक नि:संतान दंपत्ति को बेलू बेसुध हालत में ट्रेन में मिलती है . वह दंपत्ति कमला की स्वीकृति से बेलू को गोद ले लेते हैं. बेलू अब पढ़ने लगती है . कमला बेलू को यकीन दिला देती है की भोला अब इस दुनिया में नहीं रहा . उधर हालात का मारा भोला जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहा है. वह काम माँगता है लेकिन कोई उसे काम नहीं देता और अंततः वह पुनः भीख मांगने को मजबूर हो जाता है .
फ़िल्म क्लाइमैक्स तक पहुँचती है. भोला स्टेशन पर भीख मांग रहा है इस बात से अनजान बेलू उसे भीख देने को हाथ आगे बढ़ाती है और देखती है की वह और कोई नहीं उसका प्यारा भाई भोला ही है. यह दृश्य बेहद हृदय-विदारक है आपको महसूस होने लगेगा कि बच्चों की ऐसी स्थिति के लिए कहीं न कहीं हम सब अपराधी हैं . . अंततः दोनों भाई बहन मिलते हैं. अंत में, दोनों भाई-बहनों को स्कूल जाते हुए दिखाया गया हैं. फिल्म इस संदेश के साथ खत्म होती है कि बच्चों के कोमल हाथ भीख मांगने के लिए नहीं, किताबें थामने के लिए हैं. यह फ़िल्म आपको समाज की गहन विषमता और बच्चों के अधिकारों पर सोचने पर मजबूर करती है .
फिल्म में कमला का किरदार अभिनेत्री चाँद बुर्के नें निभाया है . लगभग 200 कलाकरों के स्क्रीन टेस्ट के बाद कमला की भूमिका के लिए बुर्के का चुनाव किया गया था . आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा की चाँद बुर्के अभिनेता रणवीर सिंह की दादी हैं . अपने जमाने में उन्हें ‘डांसिंग लिली आफ पंजाब’ कहा जाता था . जॉन का किरदार निभाने वाले डेविड को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था . बूट पॉलिश, अभिमान और क्लासिक कॉमेडी फिल्म चुपके-चुपके अभिनेता डेविड की यादगार फ़िल्मों में से हैं .
फिल्म में रतन कुमार और बेबी नाज़ की टाइमिंग ग़जब की है . अनाथ हो चुके भाई-बहन की उपस्थिति एक दूसरे के जीवन में किसी उत्सव की तरह हैं . बाल सुलभ छेड़छाड़, शरारतें, सयानापन और गरीबी के दुख को बेजोड़ तरीके से दोनों कलाकारों नें पर्दे पर निभाया है . बेलू का किरदार निभाने वाली बेबी नाज़ आपको खूब प्रभावित करती हैं फिर चाहे वह उनका अपने भाई भोला के साथ शरारत करना हो , निराशा के क्षणों में उसे समझाना हो या फिर जान चाचा की चुटकी लेनी हो. फिल्म में गीतों पर थिरकती हुई और नाटकीय भाव-भंगिमाएं बनाती हुई नाज़ कमाल की लगती हैं जैसे एक गुड़िया में किसी अदृश्य शक्ति नें चाबी भर दी हो .
प्रेम और रोमांस की छाया से घिरे बालीवुड में बच्चों की गरीबी और बेगारी पर किसी फिल्म का कथानक बुना जाना निश्चय ही सुखद है. यह फिल्म निराशा से आशा तक का सफर तय करती है , श्रम की गरिमा पर बात करती है और बच्चों के लिए शिक्षा की पैरवी करती है ताकि उनके भविष्य को बेहतर बनाया जा सके. फिल्म के संवाद बेहद रचनात्मक, यथार्थवादी और मार्मिक हैं. एक दृश्य है जहां कमला बच्चों के मार-पीटकर घर से भागा देती है . जॉन चाचा उन्हें अपनी खोली में ले आते हैं और बेलू से पूछते हैं –
‘भूख लगी है !’
बेलू- हाँ चाचा, मुझे रोज भूख लगती है !!!
जॉन चाचा- ‘भोला तुम भीख मांगना बंद कर दो .
भगवान ने ये दो हाथ दिया है न इनमें बहोत ताकत है.
दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं जो ये दो हाथ नहीं कर सकते.’
वी. शांताराम की कालजयी फिल्म दो आँखें बारह हाथ का कथानक भी यही था .
आइये अब फ़िल्म के गीतों पर बात करते हैं. जिस तरह फ़िल्मो को समाज का आईना समझा जाता है ठीक उसी तरह गीत किसी फ़िल्म के कथानक का आईना होते हैं. बूट पॉलिश के गीतकार शैलेन्द्र साहब थे फिल्म में उनके द्वारा अभिनीत कुछ दृश्य भी हैं . फ़िल्म का संगीत शंकर जयकिशन ने दिया था. फ़िल्म का लोकप्रिय बाल गीत ‘ नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है’ रफ़ी साहब और आशा ताई ने गाया है. यह एक बेहद अर्थपूर्ण गीत है.
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ?
मुट्ठी में है तक़दीर हमारी हमने किस्मत को बस में किया है
भोली भली मतवाली आँखों में क्या है ?
आँखो में झूमे उम्मीदों की दिवाली आनेवाली दुनिया का सपना सजा है .
यह एक हौंसला बढ़ाने वाला गीत है. यह गीत गहन आशा और संभावनाओं से भरा हुआ है . बच्चों की बड़ी बड़ी आँखों में उदासी नहीं सपने होने चाहिए उनके कोमल हाथों में मज़दूरी के औज़ार नहीं कलम होनी चाहिए. लेकिन समाज की विषमता और उसका रवैया इन कोमल हाथों को भीख मांगने पर मजबूर कर देता है . फ़िल्म में एक और खूबसूरत गीत है जिसे आशा भोंसले और तलत महमूद ने स्वरबद्ध किया है .
चली कौन से देश गुजरिया तू सज-धज के
जाऊँ पिया के देश ओ रसिया मैं सज-धज के .
इस गीत की खास बात यह है की इसे गीतकार शैलेंद्र पर भी फिल्माया गया है . 1957 में आई ‘मुसाफ़िर’ फ़िल्म का गीत ‘टेढ़ी टेढ़ी हमसे फिरे सारी दुनिया ‘ भी शैलेंद्र पर फिल्माया गया था .
बूट पॉलिश की गीतमाला उम्मीद के गीतों से सजी हुई है. फ़िल्म में मन्ना डे का गाया एक गीत है जिसका कोरस बेहद खूबसूरत बन पड़ा है .
रात गई फिर दिन आता है इसी तरह आते-जाते ही,
ये सारा जीवन जाता है
कितना बड़ा सफ़र दुनिया का एक रोता, एक मुस्काता है.
इस गीत में बुलबुल तारा इन्स्ट्रुमेंट का प्रयोग किया गया है . जॉन चाचा के जेल प्रवास के वक़्त एक हंसी-ठिठोली भरा गीत आता है . इस गीत को मन्ना डे ने अपनी आवाज़ दी है .
लपक जपक तू आ रे बदरवा सर की खेती सूख रही है
बरस बरस तू आ रे बदरवा.
इसे आप एक किस्म का ‘कॉमेडी गीत’ कह सकते हैं. बहुत खोजने पर मालूम हुआ की यह राग अडाना में गाया गया है . ऐसा कोई गीत गा सकना मन्ना डे के ही बस की बात है . फिल्म में एक और महत्वपूर्ण गीत है जो समाज की पोल खोलता है-
ठहर ज़रा ओ जानेवाले, बाबू मिस्टर गोरे काले
कब से बैठे आस लगाए, हम मतवाले पालिशवाले
पंडित को पाँच चवन्नी है, हम को तो एक इकन्नी है
फिर भेद भाव ये कैसा है, जब सब का प्यारा पैसा है
ऊँच नीच कुछ समझ न पाए, हम मतवाले पालिशवाले .
इस गीत को आशा भोसले, मन्ना डे और मधुबाला झवेरी ने गाया है . मधुबाला झवेरी ने अधिकांश डुएट मन्ना डे के साथ ही किए हैं . फिल्म में दो और भी गीत हैं पहला ‘मैं बहारों की नटखट रानी / सारी दुनिया है मुझपे दीवानी’. इसे इसे चाँद बुर्के पर फिल्माया गया है इस गीत को आशा भोसले ने अपनी आवाज़ दी है . और दूसरा गीत ‘तुम्हारे हैं तुमसे दया माँगते हैं/ तेरे लाडलों की दुआ माँगते हैं’. इस गीत को रफी साहब ने अपनी दर्द भरी आवाज़ में आशा भोसले के साथ गाया है . यह गीत मास्टर निसार पर फिल्माया गया है . निसार साहब मूक फिल्मों के अभिनेता रहे हैं . उर्दू भाषा पर उनकी पकड़ काफी अच्छी थी आपको जानकार आश्चर्य होगा की 1930 के दशक में लोगों में उन्हें लेकर बेपनाह दीवानगी का आलम था .
आर. के. फिल्म्स के बैनर तले बनी इस फिल्म का निर्देशन प्रकाश अरोड़ा ने किया . हालांकि सिनेमा के साहित्य में कहीं कहीं इस बात का जिक्र भी मिलता है की राजकपूर प्रकाश जी के काम से संतुष्ट नहीं थे और उन्होने इस फिल्म को फिर से री-शूट किया था . फिल्म में रेलगाड़ी के एक दृश्य में खुद राजकपूर दिखाई पड़ते हैं . बूट पॉलिश को साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के पुरस्कार से नवाजा गया. तारा दत्त को सर्वश्रेष्ठ छायांकन के लिए और डेविड को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला.
निराशा की बात है की आज बच्चों की पसंदीदा फिल्मों की सूची से बाल फिल्म, बाल कलाकार और बाल गीत लगभग अदृश्य हैं . बाल समस्या उठाने वाली फिल्मों पर एक नजर डालें तो शेखर कपूर की ‘मासूम’, प्रकाश झा की ‘राहुल’, आमिर खान की ‘तारे जमीन पर’ जैसी फिल्में कुछ उम्मीद जगाती हैं इनकी कहानी ठोस है और इनमें बाल मनोविज्ञान का स्पर्श भी है . लेकिन इन फिल्मों की मुख्य चिंता अविभावकों द्वारा बच्चों की जिम्मेदारी सार्थक तरीके से नहीं उठा पाने की अधिक है. पिछले एक डेढ़ दशक में विविध विषयों पर बनी बाल फिल्मों में ‘ब्लू अम्ब्रेला’, ‘तहान’, ‘चिल्लर पार्टी’, ‘लिलकी’, ‘थेंक्स माँ’, ‘धनक’, ‘स्टेनली का डब्बा’, ‘गट्टू’, ‘आइ एम कलाम’ और ‘नन्हें जैसलमर’ जैसी फिल्मों ने कुछ उम्मीदें जरूर पैदा की हैं . लेकिन ऐसी फिल्मों की संख्या और बच्चों तक इनकी पहुंच सीमित है. बाल मन से संवाद कर सकने वाला सिनेमा अभी अपनी शैशवावस्था में ही है.
हिंदी सिनेमा में बाल फिल्मों की प्रवृत्ति मूल रुप से संदेशपरक अधिक रही हैं. अधिकाँश फिल्मों में बच्चों के स्वभाव का चंचलता वाला पक्ष अधिक हावी है. बच्चों के मन के खाली कोनों को या उनके कोमल और संवेदनशील मन को ठीक तरह से उघाड़ने की कोशिश कम ही हुई है . यह विडंबना ही है कि बाल सिनेमा में या तो आभासी दुनिया के चरित्र हावी रहे हैं या फिर मिथकीय और संदेशपरक . बच्चों के मनोरंजन का मतलब ऐनिमेशन की आभासी दुनिया हो गया है . मनोरंजन के नाम पर इतने खतरनाक गेम परोसे जा रहे हैं की बच्चे हिंसक होने लगे हैं और आत्महत्या करने लगे हैं . चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी आफ इंडिया ( सी. एफ़. एस. आई. ) की स्थापना के पीछे यब उद्देश्य था कि स्वदेशी एंव विशेष सिनेमा के सहयोग से बच्चों की रचनात्मकता, करुणा और विवेकपूर्ण सोच को प्रोत्साहित किया जा सके. लेकिन वर्तमान में ‘लार्जर देन लाइफ’ के आकर्षण ने बच्चों के सिनेमा को एनिमेशन या आभासी दुनिया तक सीमित कर दिया है.
सिनेमाई कंटेंट के इस अभाव में ‘बूटपालिश’ निश्चय ही एक मार्गदर्शक फिल्म है जो बच्चों के मनोविज्ञान को पकड़ती है और उनके संघर्ष को यथार्थ की ज़मीन पर दिखाती है . बूट पॉलिश एक फिल्म नहीं है, एक सीख है जो हमें अंधेरे से लड़ना और सम्मान से जीना सिखाती है . यह बच्चों का एक उत्कृष्ट सिनेमा है . एक मजबूत स्क्रिप्ट वाली यह फिल्म आपको हँसाएगी, आपको रुलाएगी और आपको अपनी कर्मठता पर भरोसा करना सिखलाएगी .