-चंद्रकांता
हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल कर
इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल कर .
सिनेमा हमारे समाज का आईना है . कोई भी फिल्म एक सुंदर रचना तभी बनती है जब मनोरंजन के साथ उसमें कुछ सार्थक भी कहा गया हो. 1954 की फ़िल्म ‘जागृति’ ( The Awakening ) अपरम्परागत तरीकों से बच्चों को शिक्षा देने की थीम पर बुनी गयी है. संभवतः यह इस तरह का संदेश देने वाली पहली हिंदी फिल्म थी. शिक्षा एक संस्कार है जो व्यक्ति को इस काबिल बनाता है की वह अपने भीतर के शुभ और अशुभ को समझ सके. शिक्षा एक संभावना है जिसके माध्यम से व्यक्ति खुद को अभिव्यक्त करता है. अभिव्यक्ति के इसी स्कोप को फिल्मकार ‘जागृति’ के माध्यम से अन्वेषित करता है . ‘जागृति’ बंगाली फिल्म ‘परिवर्तन’ ( 1949 ) का हिंदी रूपांतरण थी . इन दोनों ही फिल्मों का निर्देशन सत्येन बोस ने किया. यह फिल्म स्टारडम, बाजारवाद और आभासी दुनिया की चमक-धमक से दूर ऐसा संसार बुनती है जो हमारे जीवन और परिवेश का सच है. यह आपको ‘लार्जर देन लाइफ’ से परे एक साधारण दुनिया में ले जाती है जहां कहानी के पात्र और उन पात्रों की संवेदनाएँ सब वास्तविक हैं. इस फिल्म की उपलब्धि है कि यह बगैर राजनीतिक हुए शिक्षा के मुद्दे पर अपना पक्ष रखती है इसका सहज और सपाट कथानक आम दर्शकों के सिनेमा बोध पर खरा उतरता है .
फिल्म की कहानी एक गाँव से शुरू होती है . अजय ( राजकुमार गुप्ता ) एक बेहद शरारती बच्चा है . उसके परिवार में एक माँ ( मुमताज़ बेगम ) हैं और एक ताऊजी रमापति बाबू ( बिपिन गुप्ता ) हैं. अजय की शरारतों से पूरा गांव परेशान है. उसकी हरकतों से बड़े बाबू को अक्सर सबके सामने शर्मिंदा होना पड़ता है. रमापति बाबू अजय को खूब लाड करते हैं लेकिन उसकी बिगड़ैल तबियत उन्हें नागवार गुजरती है. थक हारकर वे अजय को बोर्डिंग स्कूल भेजने का निर्णय लेते हैं. लेकिन वहां भी अजय की शरारतें जारी रहती हैं जिसके फलस्वरूप स्कूल के सुपरिटेंडेंट को स्कूल छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है.
स्कूल में एक नए सुपरिटेंडेंट शेखर ( अभि भट्टाचार्य ) की नियुक्ति होती है. शेखर बच्चों से मार-पिटाई या बल प्रयोग में विश्वास नहीं रखता . वह नए तरीके की शिक्षा पद्ति का पक्षधर है. वह ‘ सत्य से प्रयोग’ करता है और बच्चों को देश की संस्कृति और मूल्यों को संभाल कर रखने की सीख देता है ताकि वे एक आदर्श नागरिक बन सके. यह फिल्म पाठ्यक्रम का बोझ बढ़ाने की बजाए मूल्यपरक शिक्षा का समर्थन करती है. फिल्म हास्य रस से भी भरपूर है. फ़िल्म में कई बाल-सुलभ हास्य दृश्य हैं जो आपको खूब गुदगुदाएंगे. फिल्म में महमूद, धूमल और मोहन चोटी भी संक्षिप्त भूमिकाओं में हैं.
स्कूल में ही अजय की मुलाकात शक्ति से होती है जिसकी भूमिका रतन कुमार ने निभाई है. शक्ति एक गरीब परिवार से है उसकी माँ लोगों के घर चूल्हा-चौका कर अपनी आजीविका चलाती है. शक्ति को पोलियो है जिसकी वजह से उसे चलने के लिए बैसाखियों का सहारा लेना पड़ता है . वह अजय के एकदम विपरीत एक आज्ञाकारी और कर्तव्यनिष्ठ बालक है. शक्ति और अजय में गहरी दोस्ती हो जाती है . शक्ति अजय को सुधारने के खूब जतन करता है लेकिन अजय पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता. एक दिन फ़ुटबॉल मैच के दौरान अजय जानबूझकर एक बच्चे को चोट पहुंचता है. दंड स्वरूप शेखर बाबू एक सप्ताह के लिए सभी छात्रों को उससे बात न करने सजा सुनाते हैं. गुस्से से भरा हुआ अजय जब स्कूल छोड़कर जाने की कोशिश करता है तो शक्ति उसे रोकने का प्रयास करता है. गाड़ियों से भरी सड़क पर अजय को रोकते हुए शक्ति अपनी जान गंवा बैठता है. इस पूरे घटनाक्रम के बाद अजय में बदलाव आता है. उसे आत्म – ग्लानि होती है और वह शक्ति की मृत्यु के लिए खुद को दोषी समझता है . अजय वापस स्कूल जाता है और एक अच्छा छात्र बनकर दिखाता है. अपनी मेहनत और लगन के बल पर वह शिक्षा और खेल दोनों में अपने स्कूल का नाम रोशन करता है. अंततः शिक्षा पद्ति में बदलाव को लेकर शेखर का संकल्प सफल होता है. उस दौर की लगभग सभी फिल्में गांधीजी के आदर्शवाद और हृदय परिवर्तन से प्रभावित थीं जागृति पर भी इसका प्रभाव है.
शिक्षा वह क्षमता है जो आपमें स्वतंत्रता को बरतने का विवेक पैदा करती है . जिस दिन व्यक्ति ने इस विवेक का आलोक पा लिया उस पर अनुशासन थोपने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी. यह विवेक ही आत्म-अनुशासन को उत्पन्न करता है और व्यक्ति के अराजक होने ही संभावनाओं का निषेध करता है . ‘जागृति’ यही प्रस्तावना करती है . हालाँकि फिल्म पर एक आरोप यह बनता है कि यह ‘आज्ञाकारिता’ को एक गुण और ‘विद्रोही स्वभाव’ को अवगुण मानकर चलती है . एक हद तक इस बात से सहमत हुआ जा सकता है क्यूंकि ऐसा अनुशासन जो आपकी संभावनाओं को जड़ कर दे या आपको एक अच्छा अनुपालक बना कर छोड़ दे वह वंदनीय नहीं हो सकता . किन्तु, ऐसा विद्रोही स्वभाव जो आपको अराजक बना दे , वह भी निंदनीय है . यह सिनेमा के आदर्शवादी दौर की फिल्म थी उस कालखंड में ‘थ्री ईडियट’ जैसे थीम की अपेक्षा करना कुछ अधिक होगा. पुनः प्रकाश के. रे ने अपने एक लेख में 1951 की फिल्म इन्कवायरी की कमिटी की उस रिपोर्ट का जिक्र किया है जिसमें सरकार ने फिल्म उद्योग से यह अपेक्षा की कि हिन्दुस्तानी सिनेमा ‘राष्ट्रीय संस्कृति, शिक्षा और स्वस्थ मनोरंजन ‘ को ध्यान में रखकर कार्य करेगा. फ़िल्म जागृति को सिनेमाई सरोकार के इसी अलोक में देखा जाना चाहिए.
बहरहाल, बात जब देशप्रेम की आती है तो हिंदी सिनेमा भी पीछे नहीं रहा. वह समय समय पर देश के प्रति अपने प्रेम और देशभक्ति के जज़्बे को प्रस्तुत करता रहा है. बच्चों में देशप्रेम का संस्कार बोने वाली फिल्मों में 1954 की फिल्म ‘जागृति’ का स्थान महत्वपूर्ण है. ‘जागृति’ के लगभग सभी गीत देशभक्ति की भावना से भीगे हुए हैं जिन्हें कवि प्रदीप ने लिखा और हेमंत कुमार ने संगीतबद्द किया था. बच्चों को आज़ादी का मूल्य समझाने वाला गीत ‘हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल कर’ मोहम्मद रफी ने अपनी रूहानी आवाज़ में गाया है . ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की’ गीत को खुद प्रदीप ने अपनी आवाज़ दी. ‘दे दी हमें आजादी बिना खडक बिना ढाल’ ताई आशा भोसले ने स्वरबद्द किया है. ‘चलो चले माँ सपनों के गांव में’ माँ और बेटे की दारुण स्थितियों को उघाड़ता यह गीत आपको भावुक कर देगा , इसे भी आशा भोसले ने गाया है . इस फिल्म का प्रदर्शन भारतीय फिल्म निदेशालय और रक्षा मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों द्वारा 14 अगस्त 2016 को आज़ादी के 70 वर्षों के उपलक्ष्य में ‘स्वतंत्रता दिवस फिल्म महोत्सव’ में भी किया गया .
1954 में ‘जागृति’ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया. इसके अतिरिक्त फिल्म को फ़िल्मफ़ेयर में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म और सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता ( अभि भट्टाचार्य ) का पुरस्कार भी मिला. इस फिल्म के निर्माता सशधर मुखर्जी थे . फिल्मीस्तान के बैनर तले बनी इस फ़िल्म का संपादन शंकर विश्वनाथ ने और छायांकन एन. वी. श्रीनिवास ने किया. जागृति फिल्म से संबंधित एक खास बात यह है कि पाकिस्तान में इस फिल्म को ‘बेदारी’ ( 1956 ) नाम से बनाया गया. जिसमें कुछ शब्दों के फेरबदल के साथ जागृति फिल्म के सभी गीत शामिल किए गए. अभिनेता रतन कुमार जो सपरिवार पाकिस्तान चले गए थे उन्होंने भी ‘बेदारी’ में काम किया. क्रिटिक ने इस फिल्म की खूब सराहना की लेकिन, पाकिस्तान सेंसर बोर्ड ने कुछ ही दिनों में इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया.
इस फ़िल्म ने बाद के हिंदी सिनेमा के लिए मार्गदर्शक का काम किया. शिक्षा के व्यावसायीकरण और वैकल्पिक शिक्षा को लेकर वर्तमान समय में बॉलीवुड की जो फिल्में बनी हैं उनमें ‘तारे जमीं पर’ ( 2007 ), ‘थ्री इडियट्स’ ( 2009 ), ‘चल चलें’ ( 2009 ), ‘आई एम कलाम’ ( 2010 ), ‘पाठशाला’ ( 2010), ‘चॉक एंड डस्टर’ ( 2016 ) और ‘निल बटे सन्नाटा’ ( 2015 ) प्रमुख हैं. लेकिन शिक्षा के साथ-साथ देशभक्ति का मूल्य प्रस्तावित करने वाली यह एक अनूठी फ़िल्म है. कुल मिलाकर यह फ़िल्म बच्चों में शिक्षा के मूल्य और देशप्रेम को लेकर सकारात्मक मूल्यों की ज्योत जगाती है. हमारा लोकतंत्र ऐसी ही सम्यक चेतना के कारण अब तक बचा हुआ है.