- गौरव
मेहनत अगर पूरी शिद्दत से की जाए तो किस्मत मेहरबान होती ही है. ये सोच है थियेटर के जरिये टीवी और फिल्मों में अपनी पुख्ता पहचान बना चुके सीवान के अभिनेता अखिलेंद्र मिश्र का. टीवी शो चंद्रकांता का क्रुरसिंह हो, सरफरोश का मिर्ची सेठ या फिर गंगाजल का भूरेलाल, हर अलहदा किरदार अखिलेंद्र की उम्दा क ाबिलियत बयां करता है. आर्मी बैकग्राउंड में जन्में और दस भाई-बहनों में सबसे छोटे अखिलेंद्र मिश्र की सिने यात्र भी कम दिलचस्प नहीं रही. व्यक्तित्व ऐसा कि मिलने वालों को चंद पलों में आध्यात्म और नेशनल व इंटरनेशनल सिनेमा के अपने ज्ञानपाश में बांध ले. मुलाकात के साथ ही गर्मजोशी से शुरू हुआ बातों का सिलसिला कला, संस्कृति, स्प्रिचुअलिटी, अभिनय व बिहार में संभावनाओं के गलियारे होता हुआ ऐसे सफर पर निकला कि कब घंटों बीत गए पता ही नहीं चला. फिल्मेनिया से खास बातचीत में अखिलेंद्र मिश्र ने अपने जीवन की कई गिरहें खोली.
– दरौंदा(सीवान) से ही सफर की शुरूआत करते हैं.
– दरौंदा मेरी जन्मस्थली है. पर होश संभालने के बाद मेरा ज्यादातर जीवन शहरों में ही बीता. मेरे पिताजी सेकेंड वर्ल्ड वार का हिस्सा थे. वार खत्म होने के साथ ही बटालियन डिजॉल्व की दी गयी और पिताजी को आर्मी या फिर सिविल सर्विसेज का ऑप्शन मिला. दादाजी की इच्छानुसार पिताजी ने कस्टम सेंट्रल एक्साइज ज्वाइन कर लिया. जॉब ट्रांसफरेबल होने की वजह से हमारा बचपन भी कई शहरों में बीता. वैशाली, गोपालगंज और छपरा में हाईस्कूल तक की पढ़ाई हुई. शहरों में रहने के दौरान भी हम हर साल दशहरे में गांव (दरौंदा) जरूर जाते थे. जहां हर साल पूजा के दौरान भोजपूरी और हिंदी नाटक होते थे. ऐसे ही एक नाटक गौना की रात में एक चाइल्ड आर्टिस्ट की जरूरत पड़ी और मुङो चुन लिया गया. मेरा तो दिमाग सातवें आसमान पर था. और आप यकीन नहीं करेंगे, उस उम्र में भी कई पेज की स्क्रिप्ट एक दिन में रट्टा मारकर मैं नाटक के लिए तैयार हो चुका था. वहीं से अभिनय की शुरूआत हुई. जो आगे चलकर इप्टा और टीवी से होता हुआ सिनेमा के रूपहले परदे तक पहुंचा.
– नाटकों और थियेटर की बातों को जरा विस्तार दें.
– कई साल दशहरे में नाटक के उपरांत छपरा में एक एमेच्योर ड्रेमेटिक एसोसियेशन से जुड़ाव हुआ. ये ग्रुप प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के बड़े भाई बाबू महेंद्र प्रसाद द्वारा बनाया गया था. यहां मुङो प्रो. रसिक बिहारी वर्मा, उदय शंकर रुखयार, वाचस्पिति मिश्र और मोहम्मद जकारिया जैसे लोगों का सानिध्य मिला. वहां मैंने शरद जोशी का एक था गदहा उर्फ अलादाद खां जैसा बड़ा नाटक किया. वहीं से मेरी सोच का विस्तार शुरू हुआ. आगे मेरी इच्छा एनएसडी जाने की थी. पर मोहम्मद जकारिया के सुझाव पर मैंने मूंबई जाकर इप्टा ज्वाइन कर लिया. फिर दो-तीन सालों के थियेटर के बाद टीवी शोज हाथ आये.
– अभिनय क्षेत्र में हाथ आजमाने की बात पर परिवार वालों का क्या रिएक्शन रहा?
– सच कहूं तो ये बिल्ली के गले में घंटी बांधने वाली बात थी. मां हमेशा से इंजीनियर बनाना चाहती थी. पर पढ़ाई के दौरान ही मुङो ये इल्म हो चुका था कि इंजीनियर और डॉक्टर बनना मेरे वश का नहीं है. फ ाइनली जब मूंबई जाकर अभिनय की ठानी तो घर में आफत आ गयी. मां ने हुलकते हुए कहा, ‘हूंह, इंजीनियर-डॉक्टर त बनलs ना अब एक्टर बनबs, ई एक्टर का होला (इंजीनियर-डॉक्टर तो बन नहीं पाये अब एक्टर बनने चले हो, एक्टर क्या होता है)’. मैंने मां को बड़ी चतुराई से बताया कि एक्टर बनने के बाद मैं जो चाहे (इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, दारोगा) बन सकता हूं. तब जाकर मूंबई जाने की परमिशन मिली. पिताजी का समर्थन भी मेरे अपेक्षा के विपरित था. इन सब को तो मैं भोलेनाथ का आशीर्वाद ही मानता हूं.
– आपके बातचीत में आध्यात्मिकता का प्रभाव सहजता से महसूस होता है. ये बीज आपके जीवन मे कहां से पड़ा?
– देखिए अध्यात्म मनुष्य के अंदर जन्म से ही होता है. कोई अगर ये कहे कि वो बिलकुल आस्तिक नहीं है तो या तो वो अज्ञानी है या झूठ बोल रहा है. आपके सांसों की डोर आध्यात्म से ही जूड़ी है. कर्म आप करते हैं पर फल पहले ही ऊपर वाले द्वारा तय किया जा चुका होता है. मैं जब बचपन में वैशाली के महुआ गांव में रहता था तो पिताजी ने अपने दोस्त की सलाह पर मेरा एडमिशन पास के ही एक गुरुकुल में करवा दिया. चार सालों तक मैं वहां रहा. सूबह चार बजे उठना, मंत्रदि पाठ ये सब मेरी दिनचर्या में शामिल था. मुङो लगता है ये बीज शायद वहीं पनप गया हो. आगे भी कर्म के साथ ध्यान और पूजन में निष्ठा की वजह से शायद वो बीज फ लित-फुलित होता रहा.
– कर्म की बात चली तो आपकी नजर में कर्म और नियति का सफलता में किस हद तक योगदान है?
– सारा योगदान कर्म का ही है. बस आपका कर्म ही है जो आपकी नियति बदल सकता है. विनोबा भावे ने भी कहा है, प्रयत्नहीन प्रार्थना प्रार्थना ही नहीं है. आपकी हर सफलता या विफलता आपके पूर्व में किये गये कर्मों का ही परिणाम होता है. जिस शिद्दत से, कर्मठता से आप मेहनत करेंगे किस्मत आपका भविष्य उसी अनुपात में संवारेगी.
– बिहार से जुड़ी कोई खास याद जो साझा करना चाहें.
– यादें तो कई हैं, पर एक घटना का खास जिक्र करना चाहूंगा. चंद्रकांता दर्शकों में फेमस हो चुका था. उसी दौरान एक बार भाई के तिलक समारोह में गांव जाने का मौका मिला. संयोग से उस दिन किसी घटना की वजह से बिहार बंद था. बस अड्डे पर केवल एक बस थी जो पैसेंजर्स से खचाखच भरी थी. लाख मिन्नतों के बावजूद कंडक्टर ने भी ङिाड़क दिया. तब मैने उसे क्रुरसिंह के गेटअप वाली अपनी तस्वीर दिखायी और बताया कि मै ही चंद्रकांता का क्रुरसिंह हूं. उसके आश्चर्य की सीमा न रही. फिर तो उसने पूरी खातिरदारी के साथ मुङो गांव तक छोड़ा.
– आपने खल चरित्रों से शुरुआत की. क्या वजह मानते हैं आज के फिल्मों से क ालजयी नकारात्मक किरदारों के वर्चस्व खत्म होने की?
– मुझसे पुछेंगे तो मैं कटु शब्दों में कहूंगा कि अब लेखकों की कलम से वैसे किरदार निकलते ही नहीं. गब्बर और मोगैम्बो जैसे क ालजयी किरदार आज सिनेमायी रजत पटल से अगर ओझल हैं तो कहीं न कहीं आज का हिंदी सिनेमा इसका जिम्मेदार है. भारतीय सिनेमा की कहानी शुरू से ही परंपरा और दायित्व पर आधारित रही है. जो आज के दौर में गुम नजर आता है. हम वेस्टर्न सिनेमा के पीछे भागने लगे हैं. जहां परंपरा और दायित्व के बदले अधिकारों का प्रदर्शन होता है. वो खुद ही कन्फ्यूज्ड हैं कि संबंधों की जटिलता या सामाजिक जिम्मेदारी को वे किस रूप में परोसें. और उनके कन्फ्यूजन के पीछे भागते-भागते हम खुद को जड़ों से क ाटते जा रहे हैं. यही वजह है कि अब हमारी कहानियों में भी किरदार नहीं अधिकार गढ़ें जा रहे हैं.
– आपने लगभग हर स्टेट में थियेटर किया है. बाकी राज्यों की तुलना में बिहार के फिल्मी कल्चर को कहां पाते हैं?
– ईमानदारी से कहूं तो काफी कुछ करने की आवश्यकता है. हमारे यहां आज भी फिल्मों को हेय दृष्टि से ही देखा जाता है. हम मनोरंजन के लिए रुपये तो खर्च करते हैं पर फिल्मी गतिविधियों में हिस्सेदारी के नाम पर सबकी निगाहें टेढ़ी हो जाती हैं. जरूरी है सिनेमा को सिलेबस बनाने की. जबतक आम आदमी सिनेमा के प्रति शिक्षित नहीं होगा उसकी महत्ता को समझ ही नहीं पायेगा, उसके इम्पैक्ट को नहीं समझ पायेगा. और इसके लिए फिल्मी बिरादरी से पहले सरकार को आगे आना होगा.
– भोजपूरी सिनेमा के गिरते साख को किस नजर से देखते हैं?
– आत्मा रोती है जब भोजपूरी सिनेमा के पोस्टर्स और गानों पर ध्यान जाता है. मैं समझ नहीं पाता कि शब्दों का ये भौंडापन हमें किस दिशा में ले जा रहा है. क्या सिनेमा केवल पैसा कमाने का जरिया भर रह गया है. आप मेरी व्यथा और विडंबना का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि भोजपूरी नाटकों से क रियर की शुरुआत करने वाला शख्स आज तक एक अदद अच्छी भोजपूरी कहानी को तरस रहा है, जिस कहानी के साथ वो भोजपूरी फिल्मी क रियर शुरू कर सके. और यकीन मानिये ये तबतक बंद नहीं हो सकता जबतक किसी दृढ़निश्चयी सरकार की इसपर नजर ना पड़े. कठोरता और सजा ही ऐसी ईलता का समापन कर पायेगा.
– आज के यूवाओं में मंजिल पाने की अजीब जल्दबाजी दिखती है. ऐसे यूवाओं को क्या कहना चाहेंगे?
– देखिए चीजें जितनी जल्दी हासिल होती है उतनी ही तेजी से छिन भी जाती है. लिफ्ट से ऊपर जाने वाला उसी तेजी से नीचे भी आता है. पर सीढ़ियों से परिश्रम के जरिये ऊंचाई पर जाने वाला व्यक्ति ऊंचाई से उतरता भी उसी रफ्तार में है. तो मेहनत का कोई विकल्प नहीं है. सफलता के लिए बस दो ही बातें सबसे महत्वपूर्ण हैं, खुद पर विश्वास और धैर्य के साथ मेहनत.