-मुन्ना पांडेय
एक बेहतर अभिनेता वह है जो अपने रचे हुए फार्म को बार बार तोड़ता है, उसमें नित नए प्रयोग करता है और अपने दर्शकों, आलोचकों के साथ-साथ समीक्षकों को भी चौंकाता है. पंकज त्रिपाठी ने लगातार इस तरह के प्रयोग करते हुए अपने ही रचे फार्म को बार-बार तोड़ा है. दर्शक जबतक पंकज त्रिपाठी के एक किरदार के मोहपाश से निकलने की जद्दोजहद में रहते हैं यह अभिनेता अपने अगले किरदार में इस तरह ट्रासंफार्म हो जाता है और वह भी इतने सहज व सरल तरीके से मानो कोई जादूगर अपने जादुई तरीके से आपको ठिठकने पर मज़बूर करता हो. मसलन नरोत्तम मिश्रा के सामने मुन्ना माइकल का गुंडा और नील बट्टे सन्नाटा का प्रिंसिपल श्रीवास्तव, सुल्तान से कैसे जुदा हो जाता है , ठीक वैसे ही पाउडर का ग्रे शेड्स लिया किरदार नावेद अंसारी कब और कैसे गुडगाँव के केहरी सिंह, मिर्ज़ापुर के अखंडानंद त्रिपाठी और सेक्रेड गेम्स के खन्ना गुरुजी जैसे एक खास मनोवृति के दिखने वाले किरदार में तब्दील हो जाता है पता ही नहीं चलता. यह अभिनेता पंकज त्रिपाठी के अभिनय शैली की उत्कृष्टता के विभिन्न सोपान और छवियाँ हैं. इधर जिस वेबसीरिज ने पंकज त्रिपाठी के अभिनय के एक अलग किन्तु आश्चर्यजनक रूप से बेहतरीन पक्ष को सामने लाया है वह क्रिमिनल जस्टिस है. माधव मिश्रा का किरदार केवल एक किरदार के निर्दोष सिद्ध करने की जुगत में नहीं लगा है बल्कि इस पूरी प्रक्रिया में माधव मिश्रा का किरदार खुद की तलाश में है, जहाँ इस दुनिया में उसके होने के भी कुछ मायने हैं और इसी प्रक्रिया में न्याय की वह लड़ाई उसकी खुद के प्रति न्याय की बन भी जाती है. इस पूरे सीरीज में पंकज त्रिपाठी एक अलग अभिनेता दिखते हैं. इस किरदार पर बात करना जरूरी है क्योंकि एक सजग दर्शक जब-जब माधव मिश्रा का वह किरदार देखता है उसके जेहन में बलराज साहनी की वह बात पंकज त्रिपाठी के अभिनय पर सौ फीसदी उचित बैठती है जहां वह कहते हैं “प्रत्येक अभिनेता की अपनी-अलग तकनीक होती है, जिसे उसने गहन अध्ययन और लंबे अभ्यास के बाद सीखा होता है.”
बाकमाल अभिनेता पंकज त्रिपाठी का आज उनके बीते दो दशकों के कड़े परिश्रम, प्रयोग और अध्ययन के कल पर टिका है. हाल ही में द मैन मैगज़ीन ने पंकज त्रिपाठी के व्यक्तित्व का एक अनूठा पहलू सामने पेश किया है. यकीन जानिए एक खास वाली छवि को तोड़ना आसान नहीं होता. पर कुशल अभिनेता बार-बार अपने सटीक प्रयोगों से अपनी ही बनाई छवियों को तोड़ एक नई इबारत लिख देता है और दर्शक बार बार उसके इस रूप से चकित होता रहता है. ‘द मैन’ मैगज़ीन टीम ने पंकज त्रिपाठी के इसी पहलू को पहचानकर उन तमाम आलोचकों के मुँह पर ताला जड़ दिया है जो इस अदाकार को एक खास फ्रेम में देखने की जुगत में थे. यह एक्टर्स(अभिनेताओं) का दौर है. और इन अभिनेताओं में पंकज त्रिपाठी तो भोजन में इस्तेमाल उस नमक की तरह जरूरी हो गए हैं जिसके बिना किसी भी स्वादिस्ट व्यंजन की कल्पना तक बेमानी है. पंकज दर्शकों के जीवन-बगिया की वह फूल बन चुके हैं हैं जो निश्चित ही ड्राइंग रूम और बालकनी के फूलों से अधिक खुशबू देता हैं, यही इनकी विशेषता भी है. पर जिस तरह वनफूल अकेले नहीं महका करते, उनकी खुशबु सामुदायिक होती है और इनमें समूची प्रकृति नर्तन करती है, समूचा वन महकता है और इस समूची प्रक्रिया के दौरान प्रकृति अपने सुन्दरतम रूप में होती है, ठीक वैसे ही पंकज भी उत्कृष्ट अभिनेताओं की जमात के वो फूल बन चुके हैं जो अपने अभिनय की सुगंध से पूरी जमात को सुगन्धित कर देते हैं. और उनके इस सृजन के दौरान उनके आस-पास का कलाकार भी अपने सर्वश्रेस्ठ स्वरुप में निखर कर सामने आ जाता है.
यकीनन पंकज त्रिपाठी नाम के इस अभिनय की पाठशाला का आयाम केवल मसान, नील बट्टे सन्नाटा, बरेली की बर्फी के नरोत्तम मिश्र और मुन्ना माइकल के बाली, गैंग्स ऑफ वासेपुर के सुल्तान, मैंगो ड्रीम्स के सलीम, गुड़गांव के केहरी सिंह, पाउडर का नावेद अंसारी, मिर्ज़ापुर के कालीन भैया, योर्स ट्रूली के विजय, स्त्री के रुद्र भैया या अंग्रेजी में कहते हैं के फिरोज से ही तय नहीं होना है, पंकज के अभिनय महाकाव्य के अभी और किस्से आने बाकी हैं, अय्यारी और चलनी है. पंकज त्रिपाठी के सारे किरदार उनकी प्रतिभा और उनके अभिनय के अलग-अलग प्रयोगों की बरसों की मेहनत का परिणाम है और यही कारण है कि वह अब किसी भी भाषायी और क्षेत्रीय पहचानों से ऊपर अंतरराष्ट्रीय पटल (कृष हेम्सवर्थ के साथ ढाका) और कई अन्य भाषा-भाषियों के कला के रूप में (तेलुगु, तमिल सिनेमा) कार्यरत और चाहे जाने वाले एक्टर्स में से एक बन चुके हैं. यह एक दिन की मेहनत नहीं बल्कि सतत जिद का परिणाम है.
अंग्रेजी के मैगज़ीन और इसके कवर पर अंकित छवि केवल मॉडलिंग वाला किरदारी मामला नहीं है बल्कि यह उस अभिनेता के मैनरिज्म का एक खास पहलु पाठकों और दर्शकों के सामने लाता हुआ साफगोई से यह बताता है कि इस अभिनेता का यह पहलू आपने नहीं देखा तो क्या देखा. मैनरिज़्म का वह स्टाइल, चलने का ढंग, ठसक, राजस, और इन सबके बावजूद वो देशज अंदाज जो आज के किसी महानगर के गढ़ते किरदारों की जरूरत बन गई है. जिसमें सबसे अधिक हिस्सेदारी और भरोसे की बात उसके चाहने वालों की है. बहुत कम कलाकारों को उसके चाहने वालों का यह भरोसा नसीब होता है . मैगज़ीन की वह तस्वीर और उसकी कवर स्टोरी ने कई गुदड़ी के लालों को सुंदर का सपना देखने को प्रेरित किया है.
कहते हैं किस्से और उसमें दर्ज किरदार को ओढ़ते वक़्त अभिनेता जब खेलता है, वह असल होता है. क्योंकि उसमें अभिनेता का अपना पाठ आकार ले रहा होता है. इस प्रक्रिया में किताबी सिद्धांत अपने रूप में बदल जाता है. पंकज त्रिपाठी लगातार यह प्रयोग करते हैं और हम देखते हैं कि वह हमेशा इस सिद्धांत को चुनौती दे देते हैं. बिना अतिनाटकीय हुए कालीन भइया का चरित्र रूह में सिहरन पैदा करता है तो सौ सच्चाइयों को जीता केहरी सिंह का किरदार घृणा के सौ मौके दे देता है वहीं रुद्र भैया या नरोत्तम मिश्र अपने से प्यार करने के हजार मौके देते हैं. और यही एक बेहतर अभिनेता का अपना गढ़ा हुआ क्राफ्ट है, उसकी अपनी सैद्धांतिकी है.