Sat. Apr 27th, 2024

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थप्पड़ : स्त्री की गरिमा और आत्मसम्मान की गाथा

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Thappad


-पुंज प्रकाश

जब जब आपका विश्वास हिंदी सिनेमा के स्टीरियोटाइप से ऊबने लगता है तभी कोई ऐसी फिल्म आ जाती है कि आपको भरोसा हो जाता है कि नहीं अभी सबकुछ तबाह नहीं हुआ है बल्कि कुछ फिल्मकार ऐसे हैं कि उनके भीतर चुनौतियों को स्वीकार करने और सिनेमा को एक सार्थक कला माध्यम के रूप में प्रयास करने की क़ुव्वत है. अभिनेत्री तापसी पन्नू और निर्देशक अनुभव सिन्हा की फिल्म थप्पड़ ऐसी ही एक महत्वपूर्ण रचना है. जो निश्चित ही आनेवाले दिनों में तब तब ज़रूर ही याद की जाएगी जबजब स्त्री स्वतंत्रता में सिनेमा की भूमिका पर कोई सार्थक और गंभीर विमर्श होगा.

तुम बिन, आपको पहले भी कही देखा है, दस, तथास्तु, कॅश, रा.वन, गुलाब गैंग, तुम बिन 2 जैसी फिल्मों को बनाने के बाद मुल्क, आर्टिकल 15 और थप्पड़ जैसी अद्भुत और समसामयिक विषयों पर सार्थक फिल्म बनाने का जो माद्दा अनुभव सिन्हा से दिखाया है वो अपनेआप में प्रशंसनीय है. कमाल की बात यह है कि आख़िरी के तीन अर्थात मुल्क, आर्टिकल 15 और थप्पड़ को सोशल मीडियाकर्मियों के खलिहार गिरोह का विरोध झेलना पड़ा है. यह विरोध इसलिए भी है क्योंकि यह फिल्में उनकी पुरान्तनपंथी और कुंद सोच को चुनौती भी देती हैं. वैसे उन बेचारों का दोष भी नहीं है क्योंकि उनके आक़ा ही यह सोचते हैं कि स्त्री को मूढ़ और आज्ञाकारी होना चाहिए.

थप्पड़ के केंद्र में घरेलू हिंसा है जहां सबकुछ सहते हुए परिवार नामक संस्था को बनाए रखने से महिलाएं इंकार कर देती हैं और इस प्रकार वो इस सोच के विरुद्ध खड़ी हो जाती हैं कि पति आपका भगवान है और वो जो भी करे, सब जायज है. यह समस्या समाज के हर वर्ग में है और यह फिल्म भी कम शब्दों में हर वर्ग की महिलाओं का संघर्ष सामने रखने को चेष्टा करती है. यहां हर वर्ग की महिलाएं पुरुषसत्तात्मक समाज की चक्की में पीस रही हैं, और कहीं न कहीं अपने दर्द को न केवल बयान करती हैं बल्कि उसके लिए मजबूती से विरोध भी दर्ज़ करती हैं और इस प्रकार
पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सब में लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घर-बार बसाइए (रघुवीर सहाय की एक कविता)
के सिद्धांत को मानने से इंकार कर देतीं हैं.

थप्पड़ में कई सारे दृश्य है जिसे देखते हुए अच्छे से अच्छा पुरुष (?) अपने को कटघरे में ठीक वैसे ही पाता है जैसा कि आदर्श पति और पिता की भूमिका निभा रहे अभिनेता कुमुद मिश्रा का चरित्र है. फिर कहीं न कहीं हमारे भीतर का पुरुष अहम जागता है और कहता है कि नहीं, यह थोड़ा अतिवाद है और अगर यह होने लगा तो? इसके जवाब में फिल्म का वही आदर्श पति कहता है कि “आधे से ज़्यादा परिवार टूट जाएगा”, या फिर शायद पूरे का पूरा ही. तो क्या बहुत कुछ टूट/बिखर जाएगा इसके लिए हमें स्त्री के आत्मसम्मान से खेलने का हक़ हासिल हो जाना चाहिए? इसका सही और साफ जवाब है नहीं लेकिन हमारा पुरुष अहम इस सही जवाब को सही रूप में अभी शायद मानने को तैयार ही नहीं है.

इस फिल्म की नायिका मैं तुलसी तेरे आंगन की नामक कोई भी “महान” गीत नहीं गाती और ना ही “भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है” की भक्ति करती है और ना ही हीरो के इर्दगिर्द कम कपड़ों की कठपुतली बनके नाचती है बल्कि यहां वो भी एक मुक़म्मल इंसान है और ख़ुशी तथा आत्मसम्मान को सबसे ऊपर रखती है. तभी तो, जैसे ही उसके आत्मसम्मान पर प्रहार (जाने/अनजाने) होता है तो वो प्रतिकार करती है. यहां उसका प्रतिकार ख़ूनी भी नहीं है बल्कि अपने स्तित्व की तलाश है सही होने की तलाश के साथ. वो संघर्ष करती है, अपने कर्तव्य का पालन भी करती है और समय-समय पर अपने को परखते हुए सही भी करती रहती है. ऐसा करते हुए वो बस अपना फ़ायदा नहीं बल्कि अपने आत्मसमान और सत्य को अपना साथी बनाती है.

फिल्म की पटकथा और कास्टिंग कमाल की है. यह दो बातें हो जाएं तो बाकी रहा कसर अनुभव सिन्हा अपने निर्देशन से कर देते हैं. संवाद भी बड़े कम लेकिन बड़े अर्थवान है और बैकग्राउंड संगीत का शोर भी नहीं है. दृश्यों की संरचना अतिवाद से पूर्णतः दूर और सार्थक है और कमाल की बात यह है कि कोई भी मैलोड्रामा या फालतू का रोना धोना, नाचना गाना भी नहीं है और ना उसको क्रिएट करने के लिए किसी बहाने की तलाश की गई है. यहां मात्र शब्द नहीं बल्कि पर्दे पर मौन भी है और क्या जादू होता है जब मौन मुखर हो जाए! वैसे फिल्म की कथा के साथ कई परिकथा हैं जिसके मूल में स्त्री ही है हर उम्र की, अपने को तलाशती या जो है, जैसा है उसे सहेजने की सीख देती, परिवर्तन से चिंतित होती और परिवर्तन को आत्मसात करती.फिल्म के कुछ नकारात्मक पक्ष यह है कि इसका पोस्टर 2012 में आई मैक्सिकन फिल्म After Lucia से प्रभावित लगती है और स्त्री आज इस अवस्था में कैसे पहुंची इसकी ऐतिहासिकता पर कोई गंभीर टिप्पणी नहीं करती बल्कि उसके बजाए बस मां से चलकर मां तक पहुंचने वाली परम्परा का ज़िक्र करती है लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं दिलाती कि कोई भी मां जब अपनी बेटी को किसी भी प्रकार से निभाने की सीख दी रही होती है तो उसके पीछे का मूल ताक़त पुरुषसत्तात्मक दिमाग ही है जो सुरक्षा और सुविधा के नाम पर उन्हें घरों में क़ैद करती है और ग़ुलाम के रूप में परिवर्तित करती है. वैसे एक ही फिल्म से पूरी स्त्री उपेक्षिता के विमर्श की उम्मीद करना बेमानी है. बहरहाल, सिनेमा बनाने से लेकर उसे दर्शकों तक पहुंचाने तक का एक अपना ही बाज़ार है और शायद भारतीय सिनेमा अभी इतना परिपक्व हुआ नहीं है कि वो गंभीर बातों की जड़ में जाकर गंभीरता के साथ विमर्श प्रस्तुत करे. फिर भी थप्पड़ में जितना कुछ भी कहा या अनकहा है वो भी कम नहीं है. एक ऐसे समय में जब चारों ओर गंध मची हो और कलाकार विरादरी ज़्यादातर अपनी सामाजिक भूमिका के निर्वाह से परहेज़ कर रहे हैं, वैसे समय में ऐसी फिल्मों को देखना, दिखाना और इसे प्रोत्साहित करना किसी भी वैसे संवेदनशील सिनेमा प्रेमी का दायित्व हो जाता है जिनका तनिक भी विश्वास स्त्री-पुरुष समानता में है और वो स्त्री को केवल एक देह और घरेलू ग़ुलाम से ज़्यादा कुछ समझते हैं. जाइए, और पूरे परिवार के साथ देख आइए और ख़ासकर अपने घर की स्त्रियों और किशोरियों को यह फिल्म ज़रूर दिखाइए और समझाइए ताकि आनेवाले वक़्त में वो अपने हक़ अधिकार को थोड़ा तो समझ ही लें. वैसे भी सिनेमा का अर्थ बेसिरपैर का मनोरंजन तो कदापि ही नहीं होता. हां, फिल्म थोड़ी बौद्धिक है लेकिन बौद्धिक होना या बुद्धिकता की तरफ बढ़ना किसी भी मायने में मूढ़ता से तो कई गुना बेहतर ही होता है.