अच्छे बन सकने वाले प्लाट पर फिसली फ़िल्म : ऑड कपल (Odd Couple)
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साल 1968 में नील साइमन की किताब पर एक फ़िल्म बनी थी – ऑड कपल (odd couple). पर इस फ़िल्म का हिंदी वाली फिल्म से उस तरह से लेना-देना नहीं है जिसे कॉपी या रीमेक कहते हैं. पर संभव है लेखक को आईडिया जरूर उधर से मिला होगा. फ़िल्म के लेखक प्रणीत वर्मा और प्रशांत जौहरी हैं और निर्देशक प्रशांत जौहरी हैं . प्रशांत ने ही संवाद भी लिखे है पर वह इतने मारक और प्रभावी नहीं कि उनको याद भी किया जा सके. ‘ऑड कपल’ दो ऐसे जोड़ों की कहानी है जिनकी शादी के सर्टिफिकेट में पार्टनर्स बदल गए हैं. ये जोड़े निवेदिता और योगेश पंत (सुचित्रा कृष्णमूर्ति और विजय राज) एवं प्रांती राय प्रकाश और पीयूष (दिव्येन्दु शर्मा) हैं. तीन और जरूरी किरदार मैरेज रजिस्ट्रार चौटाला (मनोज पाहवा), सुधीर(सहर्ष कुमार) एवं सन्नी (चिराग सिंगला) भी हैं. कहानी के कुछ जरूरी डिटेल्स शुरू से फिसल फिसल कर चलते है पर लेखक दावे बड़े करता हैं, मसलन विजय राज का किरदार मशहूर पेंटर है और क्योंकर इस तरह से झक्की है इसका जिक्र सिनेमा में नहीं है. वह एक रोज चुपचाप चले जाने से पहले अपनी पार्टनर निवेदिता की किताब क्यों पढ़ने की बात बताता है. स्पष्ट नहीं.

योगेश और नावी एक तरह का अतरंगी जोड़ा है. नावी को अपनी दोस्त से अजीब किस्म की होड़ में आगे निकलने के लिए शादी करनी है. वैसे फिल्म का सबसे कमजोर किरदार इसी का है और निभाया भी इतने ही हल्के ढंग से गया है. तो जैसी की कहानी है दोनों जोड़ों के शादी के सर्टिफिकेट पर नामों की गलत एंट्री हो गयी है. निवेदिता योगेश के बजाय पीयूष के साथ और नावी पीयूष के बजाय योगेश के साथ. अब उम्र का फासला, पसंद के फासला के बीच कोर्ट के सलाह के अनुसार तलाक का एक तय समय भी है और इसी के बीच कहानी ट्विस्ट ले लेती है और एक तथाकथित ‘गंभीर ज्ञान’ भी मिलता जो विजय राज का किरदार देता है “बहुत बार हम चीजों को इतना कसकर पकड़ लेते हैं कि वो टूट जाती हैं. खासकर के संबंध.
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संबंध पकड़ने की चीज नहीं होती, जीने की होती है. पर बहुत बार हम इतनी जल्दी में होते हैं कि उन्हें समझ ही नहीं पाते, फिर वही होता है तो तुम्हारे साथ हुआ, मेरे साथ हुआ.”- यह जिस किरदार का संवाद है, पूरी फिल्म में उनके एक्शन से यह समझने में दिमाग का दही हो जाता है कि आखिर ये कन्फेशन था या सलाह थी या कोई दिव्य वाणी. अगर लेखक निर्देशक इसको अपने सबसे मारक पंच के रूप से इसे फ़िल्म में चिपका रहे हैं तब तो यही कहना होगा – ऑड टाइमिंग.

दिव्येन्दु, विजय राज, सुचित्रा, सहर्ष और चिराग ने काम ठीक किया है पर निर्देशक के हाथ में रखी स्क्रिप्ट इतनी हल्की है कि एक्टर्स के अभिनय के पेपरवेट से भी नहीं संभलती. गीत संगीत तो क्या खाक संभालते. फ़िल्म एक बढ़िया हो सकने वाले विषय के साथ छल करती है और फिसल जाती है. हालांकि कुछेक पंचेज अच्छे हैं, कुछ दृश्य अपनी अधूरी व्याख्याओं में अच्छे बन पड़े हैं – हिंदी के नए तो छोड़िए पुराने किसी साहित्यिक रुचि वाले अथवा पुरबिया बैकग्राउंड वाले फिल्मकार ने भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले नाटककार भिखारी ठाकुर के गबरघिचोर का प्रसंग नहीं उठाया. जोहरी और प्रणीत की जोड़ी ने इस नाटककार के क्रांतिकारी नाटक का जिक्र निवेदिता और पीयूष के बीच की एक केमेस्ट्री को एस्टेब्लिश्ड करने के लिए किया है. एक गीत की कंपोजिशन फ़िल्म की टोटल जिस्ट है “कुछ तो कमी है जो दिल को लगा/ चाँद छुपा है या गुम है जहाँ/मुसाफिर दोनों थे अब एक पता/किसे ये सुनाएँ/ अब क्या हाल मेरा/अब कुछ तो लगता है तेरा/ थोड़ा उसमें भी मेरा होने लगा.”- कुछ तो वाकई कमी है.
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एक कथा के साथ आधा दर्जन सब्प्लॉट्स को सम्भालने में फ़िल्म ट्रेक से उतर जाती है. कई तरह के ज्ञान की रेसिपी से जायके के खराब होने का खतरा रहता है, वही इस फ़िल्म के साथ है. सब मामले के एक्सट्रीम पर जाकर एक नए तरीके से ज़िंदगी शुरू करने का ज्ञान, एक गलती को माफ कर आगे बढ़ने की बात को करते करते एकाएक फ़िल्म मजाकिया ढंग से ओपन ऐंड लेती है. दर्शक को अपने साथ हुई चीटिंग और अपने कीमती समय की बर्बादी का ढंग से अंदाजा लगता है. फिल्मकार और लेखक यह समझाने में पूरी तरह असफल होते हैं कि रिश्ते कोई बिजली का बटन नहीं जिसे अपने मन से कभी नही ऑन ऑफ किया जा सकता है. हृदय परिवर्तन, मन का बदलना, एक कोने में अलाव किस्म के जज़्बात का पैदा हो जाना वैसा ही है जैसा मैरेज रजिस्ट्रार के कोर्ट का जज बन जाना. दर्शक बरबस कहता है – हद है माने कुछ भी. एक बेहद संजीदा मसले वाली कहानी का ट्रीटमेंट बेहद चलताऊ है.
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