मोहन चोटी (Mohan Choti): सिनेमा के विस्मृत चेहरे (6)
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फ़िल्म के कुछ जानकार बताते हैं कि हास्य कलाकार मोहन चोटी राजस्थान के किसी कस्बे से भागकर मुंबई आए थे. मगर वर्चुअल स्पेस में मौजूद जानकारियों की बाबत मोहन चोटी महाराष्ट्र के बताये जाते हैं. इन जानकारियों पर यकीन करें तो मोहन चोटी (असल नाम मोहन रक्षाकर या मोहन आत्माराम देशमुख) महाराष्ट्र के अमरावती में सन 1933 में जन्में थे. चूंकि अधिकतर जानकारियाँ उनको अमरावती का ही बताती है तो हम उनको अमरावती का मान लेते हैं, हालांकि इस बात का पक्के तौर पर दावा करना मुश्किल इसलिए भी है कि उनके साथ कई फिल्मों में काम कर चुकीं वेटरन एक्ट्रेस तबस्सुम के अनुसार वह राजस्थान के थे. वैसे मोहन चोटी द्वारा निर्देशित फिल्म धोती, लोटा और चौपाटी के दौरान प्रकाशित फिल्म पत्रिका मायापुरी के अंक 41, 1975 की मानें तो “उनका जन्म मध्य प्रदेश के एक छोटे से कस्बे अमराती में हुआ. उनके मां बाप उन्हें बहुत पढ़ा लिखा आदमी बनाना चाहते थे. और शायद इसलिये उनके सिर पर एक लम्बी चोटी रखी. जिसके होती है लम्बी चोटी वह होता है ‘ज्ञानी’, इस कथन में विश्वास करते हुये (उनके पिताजी ने जो कॉन्स्टेबल होने के साथ-साथ पुरातनवादी थे) उनकी चोटी रख दी. पर ज्ञानी जी महाराज इतने ज्ञानी हुए कि चौथी जमात से आगे नहीं पढ़ सके.”- अब पत्रिका के इस अंक की मानें तो उनका संबंध मध्यप्रदेश से जुड़ता है. पर वह जहां के हों, यह बड़ा रोचक और एक तरीके से दु:खद भी है कि हिंदी सिनेमा के एक दौर के इतने मशहूर अभिनेता के जन्म स्थान के बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं है.
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बहरहाल, इस बहस की तफसील से परे मोहन रक्षाकर के नाम में चोटी उन्हीं की एक फ़िल्म के किरदार के नाम से जुड़ा और फिर उन्होंने इसकी लोकप्रियता को देखते हुए यही टाइटल स्थायी तौर पर रख लिया. कहना न होगा कि यही उनकी पहचान का शबब भी बना. यद्यपि इसमें भी दो तरह की बातें हैं. कई मैगज़ीन्स चोटी का संबंध उनके बालों की रखी गयी शिखा से बताते है, जब लोग उनको नाम से नहीं उनकी चोटी से पुकारते थे, वहीं एक धड़ा यह उपनाम फ़िल्म के उनके किरदार से जोड़कर बताता है. इसमें मोहन चोटी का एक संदर्भ देखना जरूरी है, जिनके अनुसार “जब मैं घर से फिल्मों में कार्य करने के लिए आया तो मेरे सिर पर एक लम्बी चोटी थी. इस पर कुछ लोग ‘चोटी चोटी’ कह कर चिढ़ाने लगे. मैंने सोचा, ओह ये लोग मेरा कितना प्यारा नाम रख रहे हैं, इन्हें जरूर खुश करना चाहिए. बस मैंने अपने नाम मोहन के आगे चोटी भी जोड़ लिया और तब से मैं मोहन चोटी कहलाने लंगा हूं. अब तो वह चोटी भी नहीं रही पर मोहन चोटी जरूर बचा हुआ है. जब से मोहन, मोहन चोटी हुआ तब से उन्हें फिल्मों में धड़ाधड़ काम मिलने लगा.”(मायापुरी)
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आपको अगर अब भी याद न हो कि मोहन चोटी कौन हैं तो बता दूं कि साठ के दशक में धर्मेंद्र और माला सिन्हा की एक फिल्म आई थी ‘अनपढ़’. उस फिल्म का एक बेहद प्रसिद्ध गीत था -‘सिकंदर ने पोरस से की थी लड़ाई, जो की थी लड़ाई तो मैं क्या करूं’- यह गीत मोहन चोटी पर ही फिल्माया गया है. मोहन चोटी ने बतौर जूनियर आर्टिस्ट फिल्मों में काम करना शुरू किया. हालांकि वह बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे पर वह बम्बईया रंग-ढंग से बेहद जल्दी वाकिफ हो गए थे . इसी समझ का परिणाम था कि उन्होंने जितनी भी फिल्में की, सभी नामचीन एक्टर्स के साथ किया. मोहन चोटी के स्क्रीन प्रेजेंस का आलम यह था कि वह अपनी फिल्मों में बड़े अभिनेताओं के रहते हुए भी दर्शकों की याद में रह जाते थे. वह नेचुरल एक्टर थे. महमूद जैसे हास्य अभिनेताओं के आसमानी दौर में उन्होंने महमूद के साथ काम किया और उनकी उपस्थिति में अपनी पहचान बनाई. सिनेमा में कॉमेडियन्स का उनका दौर बेहद समृद्ध था.
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मोहन चोटी ने दो फिल्मों का निर्माण और निर्देशन भी क़िया. सन 1975 में ‘धोती, लोटा और चौपाटी’ और 1977 में एक फ़िल्म ‘हंटरवाली’ बनाई. हंटरवाली को इस वजह से भी जानना चाहिए क्योंकि यही वह फ़िल्म है जिससे नब्बे के दशक के चर्चित संगीतकार अनु मलिक के कैरियर की शुरुआत हुई. वैसे तो मोहन चोटी की मृत्यु 1992 में हुई थी पर पर्दे पर उनकी आखिरी उपस्थिति विश्वामित्र नमक टीवी सीरीज पर रही. सन 1954 से 1992 तक की सिनेयात्रा में उनके हिस्से भले तीन सौ से ऊपर फ़िल्में रही हो, पर जिन सन्दर्भों में सिनेमा जगत में सफल होना कहा जाता है वह मोहन चोटी के लिए चार दिन की चांदनी जैसी रही. उनकी फिल्म ‘हंटरवाली’ फ्लॉप हुई और वह भारी कर्जे में डूब गए. हालांकि उनके फ़िल्म बनाने के पीछे की एक कहानी मायापुरी में छपी है. मायापुरी के उस अंक में मोहन चोटी के हवाले से कहा गया है कि “फिल्मों में अपना स्थान बनाने के लिए सबसे बड़ी पूंजी है मेल-मिलाप और धैर्य. जिसके पास यह पूंजी नहीं वह लाखों की धनराशि खर्च करके भी फिल्म बनाने में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता. मेरे पास न धोती थी, न लोटा, यानि पूंजी के नाम पर ठन ठन गोपाल. पर मैंने सब कलाकारों और तकनीशियनों तथा अपने यारों की मदद से, उनके सहयोग से यह फिल्म पूरी कर ली है. अब तो भाग्य गंगा मैया के हाथ में है मैं चौपाटी के सागर को नारियल भेंट कर आया हूं. कहते हैं मुंबई का सागर जब प्रेम भाव से आपका चढ़ाया हुआ नारियल स्वीकार कर लेता है तो आपको मुंबई नगरी में बड़ी कामयाबी मिलती है. मेरा अनुमान है कि सागर देवता ने मेरा नारियल स्वीकार कर लिया है.”(मायापुरी)
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पर सच यह भी है कि हंटरवाली के बाद उन पर कर्जे का आलम यह था कि उनका अब तक का सारा कमाया हुआ पैसा खत्म हो गया और वह लगभग सड़क पर आ गए. लेकिन पर्दे पर अपने अभिनय से दर्शकों को हंसाने वाले मोहन चोटी बेहद मजबूत कलेजे के आदमी थे. उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. जब दिन बुरे हुए तो उन्होंने एक ढाबा ‘किस्सा रोटी का, ढाबा चोटी का’ नाम से खोला. पर अफ़सोस यह कि इधर फिल्में फ्लॉप तो हुई ही थी ढाबा भी फ्लॉप हो गया. जैसा कि ऊपर बताया गया है सन 1992 में मोहन चोटी का देहांत हो गया.
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मोहन चोटी के कुछ प्रसिद्ध फ़िल्मों में ‘देवदास’, ‘मुसाफिर’, ‘चलती का नाम गाड़ी’, ‘कागज के फूल’, ‘धूल का फूल’ रहीं. इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘जागृति’, ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’, ‘राखी,’अनपढ़’, ‘ब्लफ मास्टर’, ‘वह कौन थी’ जैसी फिल्मों में भी उत्कृष्ट भूमिका निभाई. मोहन चोटी बचपन में स्कूल से भाग जाते थे. थोड़े बड़े हुए घर से भागे, एक नाटक कंपनी में कुछ रोज काम किया फिर वहाँ से भी भागे, भागकर मुम्बई (तब बम्बई) आए, यहाँ दादर की फुटपाथों से उठकर हिंदी सिनेमा के रुपहले पर्दे पर चमके और फिर चमककर एक रोज बुझ गए. जीवन का फलसफा दिन के बाद रात और रात के बाद दिन का है. मोहन चोटी के जीवन का दिया भले बुझा हो पर उनके दिन की चमक हिंदी सिनेमा के पर्दे पर स्थायी रूप से छपी हुई है.
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