Thu. Apr 25th, 2024

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मन के भीतर सूख चुकी गांव की मिट्टी पर पानी की एक छींट सरीखी है ‘पंचायत’

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panchayat


-गरिमा रानी

आज खाली वक़्त में घरों में कैद रहने और शहरों की भाग – दौड़ , गाड़ियों के गंधले धुएं और शोर – शराबे की आवाज से अलिप्त कमरे के चारहदीवारी के भीतर दुनिया से कटे रहने के वक़्त जहाँ समय काट पाना भी मुश्किल जान पड़ता हो,  मन बरबस ही गुजरे वक़्त के पीछे भागने लगता है.  और फुर्सत के ऐसे पलों में जब मन गुजरे वक़्त के पीछे भाग रहा हो कुछ कहानियां ऐसी दिख जाती हैं जो मन के भीतर सूख चुके गांव-घर वाली मिटटी पर पानी की एक बौछार गिरा जाती हैं.

अमेज़न प्राइम वीडियो पर हाल में आयी वेब सीरीज पंचायत एक ऐसी ही कहानी है जो शहर की आप-धापी में कैद आपके बेचैन मन को गाँव-घर की सैर करा आता है. और यकीन मानिये निर्देशक दीपक कुमार मिश्रा और लेखक चंदन रॉय की जुगलबंदी वाला ये ट्रिप आपके फुर्सत के पलों को और ज्यादा खुशगवार बना जाता है. आप कुछ घंटो में ही जीवन के उस हिस्से की सैर कर आते हैं जो कभी सबसे खुशगवार रहा था. और किसी भी सीरीज या फिल्म को जीवंत रूप देने में कहानी के साथ-साथ जिस मुख्य तत्व की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, वो भी यहाँ अपनी पूर्ण भूमिका में है, जो इस  सीरीज की ताकत भी है. और वो ताकत है कलाकारों का भावपूर्ण अभिनय. वैसे जहां नीना गुप्ता (मंजू देवी ), जितेन्द्र कुमार ( अभिषेक त्रिपाठी ), चंदन रॉय (विकास) , फैज़ल मालिक ( प्रह्लाद ) और रघुबीर यादव ( वृजभूषण दुबे ) जैसे मंजे हुए कलाकार हों वहां अभिनय की जीवंतता तो लाजिमी ही है. सीरीज की शुरुआत नौकरी जैसी दुविधा को लेकर शुरू होती है. अभिषेक त्रिपाठी को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के फुलेरा गांव के पंचायत सचिव के रूप में 20000 रुपये की सरकारी नौकरी लगती है. बेरोजगारी के इस दौर में इतना आसान कहाँ था नौकरी पा जाना. शहर में रहने वाले अभिषेक त्रिपाठी को जल्द ही उनके मित्र के समझाने का असर पड़ता है और वह गांव जाने की तैयारी करते है. गांव का दृश्य शुरू होने से पहले ही गांव को शहर से जोड़ने वाली कच्ची सड़क (जो पक्की सड़क से एक और जुडी दिखती है) का दृश्य अपना आधा काम कर जाता है. उस सड़क के साथ-साथ आप भी अनायास अपने गांव-जवार के रास्ते पकड़ लेते हैं. उसके बाद के स्टैब्लिशड सीन्स जैसे फुलेरा गांव के पंचायत भवन पर लगा बड़ा ताला जैसे दृश्य आपको अपनी गिरफ्त में जकड़ना शुरू कर देते हैं. और फिर रूबरू होती हैं पँचायत की प्रधान मंजू देवी. जो अमूमन हर उस ग्राम पंचायत का प्रतिनिधित्व करती दिखती हैं जहाँ ग्राम पंचायत में पदवी सिर्फ नाम भर का ही होता है. क्योंकि वहां बाकी काम तो प्रधान पति के निर्देशन में ही होता है . गांव वालों के होशियारी का प्रतीक वो भुतहा पेड़, जिसे चलते तो किसी ने नहीं देखा, पर अपने पीछे भागते सुना सबने, किस गाँव की कहानी नहीं होगी भला. और यहाँ 14 वर्षो से भुतहा पेड़ बने गांव के विशाल वृक्ष की जड़ में गांव के मास्टर साहब है. वो क्या है न कि एक रात मास्टर साहब चिलम फूंक लिये और उसी के नशे में उन्हें पेड़ जमीन से एक फ़ीट ऊपर उड़ते और उनके पीछे भागते हुए महसूस हुआ.  और ऐसे में मास्टर साहेब अपनी धोती उठा के ऐसा भागे कि सीधा गांव जाकर ही दम लिए. और तब से बन गया ये भुतहा पेड़. एक और किरदार विकास के बोलने की शैली भी आपको अपने आस-पड़ोस के लोगों की याद दिलाएगा. वृजभूषण जी के किरदार का बात-बात में लौकी सेवा देना  गांव के लोगों के मिल – बांट कर खाने वाली संस्कृति को उजागर करता नज़र आएगा. शहर की भांति नहीं कि – ‘सर गल जाई लेकिन गोतिया न खाई’ (भले चीज ख़राब हो जाए पर किसी को खाने को नहीं देंगे). परमेश्वर की बेटी की शादी में नए दामाद और उसके दोस्तों के रूठने की नौटंकी गांव की उस परिदृश्य की झलक आपके सामने ला खड़ी करेंगे जिसमें गांव-घर में फूफा-दामाद के रूठ जाने पर घर वालों के पास उनको मनाने-मनुहार करने के अलावा कोई ऑप्शन ही नहीं बचता था. इस सीरीज के अनेक दृश्य कभी आपको खूब हंसाएंगे तो कभी (यदि आप गांव- जवार से जुड़े हुए है) अतिशय भावुकता में आंखें भी गीली कर देंगे. बिलकुल चन्दन दास के उस गीत की तरह – ‘ मेरा गांव जाने कहाँ खो गया है ‘.

हंसाने-गुदगुदाने के साथ-साथ ये सीरीज आपको सोच के एक अलग स्तर पर भी ले जाती है जिसके लिये कहानी में बड़े स्तर तक विमर्श होते है. गांव का प्रधान पति अपनी पत्नी (पंचायत प्रधान ) को आगे नहीं आने देते , उन्हें नासमझ समझ कर बड़ी भूल कर जाते है . वैसे व्यक्तियों के लिये ही  ‘कुछ भी नहीं असंभव उनसे’ का पाठ पढ़ने की जरूरत है जिन्हें हमेशा ही लगता है महिलाएं कुछ नहीं कर सकती या फिर उन महिलाओं के लिये भी, जिन्हें लगता है उनसे नहीं होगा. आज के भौतिकवादी दौर में गांव से शहर आ कर पढ़ने वाले युवाओं के समक्ष भी वापसी की राह एक चुनौती ही है. पर एक बार जो उस वापसी की राह में भी कामयाबी का मन्त्र तलाश ले,  फिर उसकी जिंदगी भी अभिषेक त्रिपाठी के उस किरदार सरीखी हो जाती है जिसे तबत कअनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा जब तक वो गांव से कतराते रहे , गांव से पलायन के लिए CAT की तैयारी करते रहे किंतु असफल रहे, पर एक बार जब उन्होंने वापसी की राह पकड़ी फिर सफलता का मंत्र भी मिल गया और गांव से मोहब्बत वाली ऊंचाई भी .

तो देर बिलकुल मत कीजिये. उठाइये मोबाइल, लगाइये अमेज़न प्राइम और सैर कर आइये उन गाँव की गलियों और पंचायत की सड़को का, और रूबरू हो आइये उन किरदारों से जिनसे आप गाहे-बगाहे दुनियादारी की भेड़चाल में बरसों पहले मुँह-मोड़ आये हैं.