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वह फीनिक्स है, जादू है, उर्फ मैं अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) बोल रहा हूँ.

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 आलेख: डॉ. एम. के. पाण्डेय
आलेख: डॉ. एम. के. पाण्डेय

मैं पीवीआर पैसिसिफ मॉल दिल्ली के स्क्रीन चार में दीवार देख रहा हूँ. पीवीआर वालों ने फ़िल्म हेरिटेज फॉउंडेशन  के सहयोग से अमिताभ के चुनिंदा ग्यारह फिल्मों को देश भर के अट्ठारह शहरों में दिखाया है. दीवार मेरा चयन था. एक ऐसा सिनेमा जिसमें अमिताभ (amitabh bachchan) नाम का सितारा हिंदी सिनेमा के पर्दे पर मिथकीय किरदार की तरह पूर्णतया स्थापित हो गया. सिंगल स्क्रीन के जमाने में आजतक जिस मेगास्टार की एंट्री सीटी से सिनेमा हाल दर्शको की आपसी अजनबियत को अपनी स्वर ध्वनियों और तालियों से गूंज तोड़ती लगी और उन सबको बाँधने वाला कौन – बच्चन. मैं इस सन 75 के जादू में 2022 में डूब, उतरा रहा हूँ.

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अमिताभ बच्चन एक जादुई अभिनेता, एक रहस्मयी मुस्कान ओढ़े सदी का महानतम फिल्मी नायक, जिसने सफलता की हिमालयी ऊँचाईं देखी तो असफलता का स्याह दौर भी देखा. उस अमिताभ बच्चन का अस्सीवां जन्मदिन देश-दुनिया में फैले उनके करोड़ो  प्रशंसक मना रहे है. पर अमिताभ होना आसान कहाँ है? उस शख्स ने अपनी प्रतिभा, अनुशासन और संयमित जीवनशैली से यह यश, समृध्दि हासिल की है. इसके लिए हम अमिताभ की नौ शुरुआती फ्लॉप के बावजूद हिंदी सिनेमा में उभरकर स्टारडम की वह ऊँचाईं छूने और उस ऊँचाईं पर लगातार काबिज रहने से देख सकते हैं, जो स्वप्न सरीखी है. उसने नाम कमाया है तो ऐसा कि देश के देहातों, कस्बों, कई शहरों, महानगरों में मुम्बई की ओर देखते युवाओं को अमिताभ बनने की कोशिश कर रहा है का तंज सुना गया है. यशवंत व्यास ने यश चोपड़ा के बयान के हवाले से अमिताभ की इस यात्रा पर दर्ज किया है कि “अमिताभ को सफलता अचानक नहीं मिली, कई वर्षों तक उन्होंने प्रयास किया. यहाँ तक कि वह निराश-सा हो चला था कि जंजीर आई. मैं समझता हूँ  कि जंजीर और दीवार ने उसे  सुपरस्टार बनाया. इसके बाद सफल फिल्मों की एक श्रृंखला आई. अमिताभ के साथ बड़ी खासियत यह है कि वह ‘परफेक्शनिस्ट'(पूर्णतावादी) है. उसे लेकर फ़िल्म बनाना एक ‘सुरक्षित प्रस्ताव’ होता है, क्योंकि उसे लेकर बनाई गई एक अच्छी फिल्म जरूर चलती है, बुरी भी लागत निकाल लाती है. पहली बार उसी के समय हुआ कि फ़िल्म ने एक करोड़ की कमाई का आंकड़ा पार किया.  उसकी क्षमता का अधूरा तथा असंतुलित इस्तेमाल हुआ है, कुछ मामलों में जैसे शराबी,हास्यपरक तथा मारपीट की भूमिकाओं में जरूरत से बहुत ज्यादा तथा कुछ मामलों में जैसे भावुकता-सम्पन्न भूमिकाओं में जरूरत से बहुत कम. भावपूर्ण दृश्यों में वह अप्रतिम है.”-अमिताभ की  व्यक्तिगत यात्रा भी फिल्मी रही. कुली के सेट पर चोट का लगना तो वह क्षण है जिसमें लाखों किस्सों को जन्म दिया और जिस एक्सीडेंट की पीड़ा के बारे में अमिताभ ने अगस्त की 29वीं तारीख साल 1982को ब्रीच कैंडी के आईसीयू में लिखा –

“बाहर –

ऊपर , मँडराते , डरपाते/ अँधियाला छाते-से बादल. नीचे, काली, कठोर भद्दी चट्टानों पर/उच्छल,मटमैली, जलधि-तरंगों की क्रीड़ा.

भीतर-

सब उज्ज्वल, शुद्ध-साफ/चादर सफेद, कोमल तकिए/ धीमे-धीमे स्वर से सिंचित / ममतामयी सारी देख-रेख/ ‘औ’ मेरी एकाकी पीड़ा (अनुवाद -हरिवंशराय बच्चन)

amitabh bachchan

यह वह दौर है जब पूरा देश उस अस्पताल के आगे, अपने ईश्वर के आगे अपनी प्रार्थनाओं में केवल बच्चन की सलामती माँग रहा था. कुली के निर्देशक मनमोहन देसाई ने कहा – “अब उसे लेकर देवदास जैसी फ़िल्म नहीं बनाई जा सकती क्योंकि जो इमेज है, वह उसे एक निराश और आत्म-समर्पणकारी आदमी नहीं बनने देगी. खासतौर पर कुली की दुर्घटना के बाद तो यह मिथ और भी गहरा हो गया है. उसे चोट लगी थी, वह मृत्यु के करीब था, वह लौट आया, यानी मौत भी उसे नहीं मार सकती . छवि का यह जनसम्मोहक आधार मनमोहन देसाई के कुली का प्राणाधार बन जाता है. …व्यक्ति से छवि का यह जोड़ , यथार्थ और फंतासी के बीच घालमेल से पैदा किये गए, सिनेमाई जादू के विराट सम्भ्रम जाल की परिणती है.'(अमिताभ का ‘अ’-यशवंत व्यास).

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मैं विजय के उस होटल की लॉबी से निकलते दृश्य के जादू में डूबा हूँ एक महाकाय नायक लंबे कदमों से अपनी मौत से मिलने जा रहा है और तभी इंटरवल होता है और बीकाजी नमकीन में अस्सी साला अमिताभ परदे पर उभरता है और मेरे बगल में बैठा युवक चिल्लाकर कहता है ‘विजय बूढ़ा नहीं हो सकता’ और सिनेमा हॉल में ठहाका गूँज जाता  है. यह ब्रांड अमिताभ बच्चन है, जिसने पकी दाढ़ी, एबीसीएल की तबाही देखी, भयानक अर्थाभाव देखा,उसके चाहने वालों ने उस दौर में राजनीतिक रैलियों में मंच को ठुमके लगाता देखा, बूम, लाल बादशाह, जादूगर, तूफान जैसे तबाही मचाउ फिल्मों में देखा और  निराश हुए, लेकिन अमिताभ बच्चन कोहेकाफ का मिथकीय कुकुनस पक्षी है जो हर बार अपनी ही राख से जन्म ले लेता है. वह अपनी कंपनी और आर्थिक बदहाली से दुगुनी ताकत से निकला, उसी तरह जैसे बोफोर्स के दलदल से , राजनीति के तीन-पांच से, यही अमिताभ की यूएसपी है. वह लौटता है अपने किरदारों की तरह .

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अमिताभ लौटा केबीसी से लेकर बदल चुके सिनेमा में अपने तरीके से लौटा और मोहब्बतें, कांटे, देव, आंखें, खाकी, बंटी और बबली से मिलता, बागवान, पा, ब्लैक , अक्स, हालिया पीकू, पिंक, चेहरे जैसी कई अतरंगी भूमिकाओं और फ़िल्मों से गुजरता हर बार अपनी उसी रहस्मयी मुस्कान के साथ  उपस्थित यह बताता है कि आज भले समाज, बाजार,राजनीति ने तो कई अर्थ और तरीके बदले हैं लेकिन अमिताभ नामक ब्रांड की अपनी कोर वैल्यू थी और रहेगी. यह हिंदी सिनेमा जब तक रहेगा, नायकों को अमिताभ नाम के स्केल से मापा जाता रहेगा. वह विनय लाल के दीवार: द फुटपाथ, द सिटी एंड द एंग्री यंग मैन भर नही है बल्कि उसका कैनवास वाकई लार्जर दैन लाइफ और उस 70 mm के रुपहले पर्दे से कहीं विस्तृत और आसमानी है. अमिताभ का पर्दे पर होना हो या ना हो, लेकिन जैसे ही आकाशवाणी की किसी जमाने में ठुकराई आवाज गूँजती है ‘ मैं अमिताभ बच्चन बोल रहा हूँ’ तो बच्चा बच्चा यह कहता है नाम न भी बताते तो हमें मालूम है यह आवाज अमिताभ बच्चन की ही हो सकती है. यह ईश्वरीय देन है. हैप्पी बर्थडे महानायक अमिताभ बच्चन.