-गौरव
याद नहीं पिछली बार कब मन इतना विचलित हुआ था. रिश्तों के ताने-बाने ने कब मन में इतनी व्याकुलता पैदा की थी. पर कल रात जब इस फिल्म (राम प्रसाद की तेरहवीं ) को देखा तो मन कुछ यूं विचलित हुआ मानों किसी ने बरसों से सोए शांत पड़े मन के तालाब में उलझे रिश्तों का कंकड़ फेंक मारा हो और उस कंकड़ ने तालाब में भावनाओं का एक अंतहीन हलचल पैदा कर दिया हो.
अमूमन मैं सिनेमा पर लिखते वक्त भावनाओं के अतिरेक को लेखनी से परे रखता हूं, पर कुछेक कहानियां ऐसी बहा ले जाती है जहां कलम भी भावनाओं पर नियंत्रण खो देते हैं. और यह फिल्म भी उसी भावनाओं के सागर में डूबो जाने वाली कहानी सरीखी है.फिल्म अपने पहले फ्रेम से गिरफ्त में ले लेती है और कब आप खुद को इस कहानी का हिस्सा बना बैठते हैं पता ही नहीं चलता. और यकीन मानिए कुछेक दृश्यों के बाद ही यह फिल्म फिल्म ना रहकर आपके घर, परिवार, गांव समाज का वो सफर बन जाता है जिसमें आप खुद ब खुद शामिल हो जाते हैं. हर दृश्य, संवाद, किरदार, उनकी हरकतें आपको जानी पहचानी सी लगने लगती है. और फिल्म की कहानी खत्म होते होते आप खुद रिश्तों की बारीक उलझनों और भावनाओं के भंवरजाल में कुछ यूं लिपट जाते हो जो लंबे वक्त तक साथ रह जाने वाला है.
फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती ये है कि कई दृश्यों में आप एक ही वक्त पर चेहरे पर मुस्कान और अंतर्मन में वेदना के द्वंद से जूझते नजर आते हो. दृश्य की चुटिलता भले आपके चेहरे पर मुस्कान बिखेरते है पर उन दृश्य और संवादों के पीछे छुपा भावनात्मक परिदृश्य आपको गहरे भेद जाता है. और यहीं वो पल हैं जहां लेखिका निर्देशिका सीमा पाहवा अपने मकसद में कामयाब हो जाती है. शुक्रिया कहूंगा सीमा पाहवा को जो बड़े ही साधारण तरीके से रिश्तों और भावनाओं की असाधारण जटिलता को हमारे सामने परोस देती है, और फिर अपनी खूबसूरत कहानी के जरिए उस जटिलता को सुलझाने का जिम्मा भी हमारे कांधे डाल जाती हैं. और उनके इस काम में उन्हें अपने एक्टर्स का भी भरपूर साथ मिला है. सुप्रिया पाठक, नसीरुद्दीन शाह, विनीत कुमार, मनोज पाहवा, विनय पाठक, विक्रांत मेस्सी और कोंकणा सेन शर्मा जैसे मंझे कलाकारों के दम पर फिल्म उम्दा होने की राह में एक कदम और आगे निकल जाती है.
तारीफ के काबिल तो दृश्यम फिल्म्स और मनीष मुंद्रा भी हैं जिन्होंने समय-समय पर आंखों देखी, मसान, कड़वी हवा, धनक और अब राम प्रसाद की तेरहवीं जैसी फिल्म लोगों तक पहुंचाने की हिम्मत दिखाकर सिनेमा के खजाने को और समृद्ध किया है. यकीनन साल की शुरुआत का ये वो बेहतरीन तोहफा है जिसकी जरूरत केवल सिनेमा और थिएटर्स को ही ही नहीं बल्कि आज के परिवार और उस परिवार में रहने वाले हम और आप जैसे लोगों को भी है. तो शुक्रिया सीमा पाहवा, दुनियादारी की भेंट चढ़ चुके रिश्तों की गर्माहट में इस कहानी के जरिए एक बार फिर भावनाओं की आंच दिखाने के लिए, और शुक्रिया मनीष मुंद्रा, बे सिर पैर की सिनेमा के जरिए जेब भरने वाली इस अंधी दौड़ के बीच सार्थक सिनेमा की सौगात हम तक पहुंचाने का जोखिम उठाने के लिए.