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गुलाबो सिताबो : खारे पानी में मीठा समंदर

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Gulabo Sitabo


-पुंज प्रकाश

ज़माना ऊपर-ऊपर तैरने का है जबकि सत्य हमेशा से ही यही रहा है कि जो गहरे पानी में पैठ लगाएगा असली माल का स्वाद उसे ही मिलेगा. शूजित सरकार की फिल्में ऊपर-ऊपर तैरनेवालों के लिए होती ही नहीं हैं बल्कि वो दर्शकों से भी “कुछ” डिमांड करती है, अब यह “कुछ” क्या है इसकी व्याख्या फ़िलहाल इतनी आसानी से किया भी नहीं जा सकता. कुछ समझना है तो समझा जाए वरना तो जो कुछ है, वो तो है ही. चाहे सुजीत की फिल्म 2005 में आई “यहां” हो, 2012 में आई “विक्की डोनर” हो, 2013 में आईं “मद्रास कैफे और पीकू” हो या फिर 2018 में आई ‘ऑक्टोबर’ हो. यह तमाम फिल्में केवल उतनी ही बात नहीं कहतीं हैं जितनी कि इन फिल्मों में उपरी तौर पर दिखती हैं बल्कि यहां बातों, कथा और दृश्यों के लेयर्स भी हैं बशर्ते कि हम पकड़ पाएं. कई फ्रेम्स के भीतर मूल कथा के साथ भी बहुत कुछ घटित और उद्घाटित हो रहा होता है बशर्ते कि हमारी नज़र इतनी संवेदनशील हो. अब यह नई फिल्म आई है गुलाबो सिताबो. यह कई मामले में एक नायाब सिनेमाई कृति है, बशर्ते कि हमारी नज़र उस गहराई को पकड़ पाए. वैसे अच्छी और महानतम होने के बीच का भी अंतर है ही.

हिंदी सिनेमा बहुत सारी बेमतलब की श्रेणियों में विभक्त है, जबकि कला केवल सार्थक और निरर्थक होती है. उनमें से एक श्रेणी है – बड़ी फिल्म की. बड़ी फिल्म का मतलब वो फिल्में जिससे सबको कमाई की उम्मीद प्रचंड हो. अब इस फिल्म से अमिताभ बच्चन, शुजीत सरकार और आयुष्मान खुराना का नाम जुड़ा है तो कमाई की उम्मीद तो सबकी है ही, तो यह हुई बड़ी फिल्म. अब कोविड 19 ने कुछ ऐसा खेल जमाया है कि कहीं भी भीड़ लगाना फ़िलहाल संभव नहीं है तो सब घरों में बंद होकर मोबाइल-टीवी में घुसने को अभिशप्त हो गए हैं और यह फिल्म भी सिनेमाघरों के बजाए OTT पर आ गया तो इससे मुनाफ़ा कमाने का सपना पाले कुछ बेचारों के पेट में मरोड़ का उठना भी एक स्वभाविक प्रक्रिया ही माना जाना चाहिए. यह वही बात है कि मलाई सामने से गुज़र जाए और आपके पास देखते रहने के सिवा कोई और चारा न हो.

कोई भी समय कुछ के लिए बुरा होता है तो वही समय कुछ के लिए एक अवसर भी होता है. फ़िलहाल सिनेमा हॉल बंद पड़े हैं, जीवन जीने और जीवन बचाने का संघर्ष चरम पर है, वही लापरवाहियां भी एक से एक है. जिनके पास थाली है, हर भूखा आदमी उसके लिए भद्दी गाली है का महानतम विचार भी है. जिनके पास भोजन है और बैंक में थोडा बैलेंस या आमदनी निश्चित वो लोग बेरोज़गार होकर घरों में टीवी-मोबाइल का कान ऐंठ रहे हैं, ऐसे में OTT अर्थात नेटफ्लिक्स, अमज़ॉन, हॉटस्टार जैसे कई अन्य की पूछ बढ़ गई है, जो स्वाभाविक भी है. वैसे इसमें सबसे ज़्यादा पूछ फोकट में सिनेमा दिखानेवाले पाइरेटेड एप्लिकेशन की बढ़ी है. जहां से फोकट में सिनेमा डाउनलोड करके दर्शक-समीक्षक होने का जोश भी अपने चरम पर है.

अब सिनेमा की बात कर लेते हैं – गुलाबो-सिताबो. गुलाबो सिताबो तहज़ीब की तहमत खोलती एक ब्लैक ह्यूमर है.

लखनऊ नबाबों का शहर हो न हो लेकिन माना तो यही जाता है. तो नबाबों की दशा-दुर्दशा का बयान कुछ उसी तरह यहां हैं जैसे मंटो अपने अफसानों में 1947 का करते हैं और ऐसा कुछ करते हुए वो साफ़-साफ़ कहते हैं कि “अगर आप इन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो ये ज़माना ही नाक़ाबिले बर्दाश्त है.” यह फिल्म भी आपको नबाबों के ऐसे खंडहर में ले जाती है जहाँ एक लात पड़ने से ही दीवारें भड़भड़ा के ढह जातीं हैं. नवाबों की नवाबी का इतिहास बड़ा डार्क भी है और वर्तमान की हालत महल के खंडहर से भी गई बीती. यहाँ लोग है, लाभ है, साजिश है, शोषण है, धोखा है और सड़क पर चादर बिछाकर जमा किए पैसों से मस्त पान खाने का नवाबी शौक भी है.  बाक़ी माल-कमाल तो है ही, क्योंकि जीवन में कुछ भी एकदम से काला-गोरा तो होता नहीं है. जीवन का रंग धुसड है और फिर सरकारी तंत्र का अपना षड्यंत्र तो है ही, उसके बारे में लिखकर क्या शब्द बेकार करना! बाकी सिनेमा की कहानी के बारे में ज़्यादा लिखना उचित नहीं होगा बल्कि इतना भर इशारा कर देना ही काफी है कि अगर आपने पढ़ी है तो यह फिल्म बादल सरकार का नाटक बल्लभपुर की रूपकथा या चेखव का नाटक चेरी का बागीचा जैसे कुछ-कुछ आनंद दे सकता है लेकिन शर्त यह है कि आपको आराम-आराम से पान चबाने और उसकी गिलोई का कतरा-कतरा रस चूसने का हुनर पता हो, नहीं है तो डेविड धवन अंकल जिंदाबाद. गपागप निगलने और फटाफट थूकने की आदत से आपको यहाँ बोरियत ही हासिल होनेवाली है. बात आगे बढ़े इससे पहले जब बात लखनऊ की चली है तो महान शायर जालिब मियां का एक शेर अर्ज़ है –

लगा दो आग पानी में जवानी इसको कहते हैं, लूटा दो बाप की दौलत फूटानी इसको कहते हैं

गुलाबों सिताबो देख लीजिए आपका स्वाद ही बढ़ेगा और इत्मीनान से देखिएगा, आजकल बच्चन साहब बतौर अभिनेता जो कुछ भी कर रहे हैं वो बाकमाल है, हालंकि इस फिल्म में कई बार आपको करेक्टर कम कैरिकेचर की झलक संभव है ज़्यादा दिखे लेकिन यहाँ जो कुछ भी है उचित है और शायद उनका चरित्र भी थोडा कैरिकेचारिस्ट है भी. अब करेक्टर और कैरिकेचर क्या होता यह जानने के लिए अभिनय की विधा में दस-बीस साल ख़र्च करना पड़ेगा.  बाकी जो बच्चन साहब को बतौर अभिनेता अच्छे से फॉलो करते हैं वो यह बात भलीभांति जानते हैं कि उनकी कॉमिकल टाइमिंग लाजवाब है और इसे वो पहले के बहुत सारी फ़िल्में में साबित कर भी चुके हैं. भरोसा नहीं तो उनकी बहुत पुरानी फिल्म “महान” देख लीजिए, जहाँ वो एक साथ तीन भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं.

शुजीत सरकार वर्तमान के कुछ बेहतरीन निर्देशकों में से एक हैं और उनके काम को सम्मान से देखनेवालों की आज कमी नहीं है, वैसे उनकी फिल्मों से बोर होनेवालों की भी निश्चित ही कोई कमी न होगी फिर भी यह काम भी उनके सम्मान के अनुकूल ही है लेकिन वो ‘ऑक्टोबर’ की तरह दिल में उतनी गहरी पैठ नहीं बना पाती, यह बात भी सत्य है. बाकी अन्य भूमिकाओं में आयुष्मान खुरान, विजय राज, ब्रिजेन्द्र काला, फारुख ज़फर और टीना भाटिया अपने-अपने स्थान पर बिलकुल उचित हैं सब के सब अच्छे अभिनेता है इसमें अब कोई दो राय तो है नहीं. टीना भाटिया राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की छात्रा हैं और उन्हें लम्बे संघर्ष के बाद एक बड़ी फिल्म में देखना हम सबके लिए एक सुकून की बात है. वैसे इस फिल्म में जो सबसे ख़ास बात है वो है फिल्म का छायांकन. जहां तक सवाल संगीत का है यहाँ उसका स्थान चटनी से भी कम है, वैसे फिल्म के नाम से लगभग पांच गाने है जो अच्छे लिखे, गए और संगीतबद्ध किए गए हैं लेकिन वो फिल्म में कोई प्रमुख स्थान पाने में सफल नहीं हुए. जूतम फेंक (गायक पीयूष मिश्रा), मदारी का बंदर (अनुज गर्ग, तोचि रैना), दो दिन का ये मेला (राहुल राम) और बंधुआ (बॉबी कैश) को अलग से सुनिए, बढ़िया ही लगेगा शायद.