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फिल्मीनामा: अंकुर

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-चंद्रकांता

अस्सी के दशक का समानांतर सिनेमा जिसे हम कला फिल्मों के नाम से जानते हैं उसकी सबसे महत्वपूर्ण बात थी उसका कथानक और उसकी कथा-शैली का अधिक यथार्थवादी होना. यह सिनेमा ऐसी फिल्मों का गुलदस्ता था जहाँ स्टारडम की बजाय फिल्म का कथानक और उसकी बुनावट ही नायक थी और जहाँ बाज़ार का हस्तक्षेप नगण्य था. मृणाल सेन, मणि कौल, अडूर गोपालकृष्णन, अपर्णा सेन, गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल इसी मिजाज के अग्रणी फ़िल्मकारों में से हैं. सीमित पूंजी और अल्प संसाधनों में उद्देश्यपूर्ण सिनेमा किस तरह से साधा जाता है श्याम बेनेगल इस कला के सिद्धहस्त फ़िल्मकार रहे हैं. इसी लीक पर चलते हुए उन्होने हिन्दी सिनेमा को अंकुर (1974) , निशांत ( 1975 ), मंथन ( 1976 ),  भूमिका ( 1977 ) और मंडी ( 1983 ) जैसी फिल्मों से हिन्दी सिनेमा को समृद्ध किया. अंकुर ( द सिडलिंग ) श्याम बेनेगल की पहली हिन्दी फिल्म थी इससे पूर्व वे विज्ञापन निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय थे. व्यावसायिक दृष्टि से फिल्म अंकुर श्याम बेनेगल और समानांतर हिन्दी सिनेमा की सबसे अधिक सफल फिल्मों में से एक है . यह फिल्म 1950 के दशक में हैदराबाद की एक सत्य घटना पर आधारित है.
 फ़िल्म की शुरुआत एक लोक उत्सव से होती है जहां महिलाओं की पंक्तिबद्द भीड़ मातृशक्ति मंदिर की तरफ जा रही है. लोक वाद्य बज रहे हैं, मंदिर के बाहर एक महिला खड़ी है जिसके हाथ जुड़े हुए हैं . वह कहती है  – ‘माता मुझको कुछ नहीं होना, एक बच्चा होना बस’ . ये शब्द फिल्म के संवाद मात्र नहीं हैं यह एक सम्पूर्ण ‘वाद’ का अंश है जिसका आश्रय पितृसत्ता है, जो स्त्रियों की भूमिका को संतानोत्पत्ति और वंशवृद्धि तलक सीमित कर देता है . लक्ष्मी का किरदार शबाना आज़मी ने निभाया है . फिल्म में शबाना की भाव-भंगिमाएं, उनका उच्चारण और उनकी देह-भाषा सब एक अनूठे सूत्र में गुंथकर दर्शकों से सीधा संवाद करते हैं.
फिल्म में एक और महत्वपूर्ण भूमिका जमींदार के पुत्र सूर्या ( अनंत नाग ) की है वह शहर से पढ़कर आया है पिता जोर-जबर्दस्ती कर उसका ब्याह एक छोटी उम्र की लड्की ( प्रिया तेंदुलकर ) से करवा देते हैं और उसे जमींदारी देखने खेतों पर भेज देते हैं. खेतों पर लक्ष्मी जमींदार के घर की साफ सफाई और देखभाल का काम करती है. लक्ष्मी तथाकथित निम्न जाति से है और सूर्या उच्च जाति के रसूखदार परिवार से है. एक नमूना देखिये किस तरह संवादों के माध्यम से फ़िल्मकार ने सामंती समाज में जाति व्यवस्था की परतें उधेड़ी हैं.
लक्ष्मी सूर्या से पूछती है – सरकार पुजारी जी के पास जाकर खाना लेकर आऊं ?सूर्या :  चाय बना ले.
लक्ष्मी : चाय सरकार, मेरे हाथ की चाय पियेंगे आप ! वो हम लोगां कुम्हार हैं . पुजारी जी नाराज हो जाएंगे सरकार.
सूर्या: मैं जात पात नहीं मानता जा चाय बना ला. 
 
फ़िल्मकार सूर्या के चरित्र के माध्यम से उस दृष्टि को प्रस्तावित करता है जहां शिक्षा ने जातिवाद का संरचना से उन्मूलन तो नहीं किया किंतु इस जड़ व्यवस्था को कुछ लचीला अवश्य ही बनाया है. उधर गाँव में लाला और पटेल आपस में बात करते हैं की सूर्या लक्ष्मी के हाथ का खाना खाता है. वे नीची जाति की होने के कारण लक्ष्मी के चरित्र और उसकी नीयत पर शक करते हैं. औरतों के चरित्र को बात-बात पर सर्टिफिकेट बांटना और उनकी भूमिका को देह तक सीमित कर के देखने का यह परिदृश्य सामंतवाद में स्त्रियॉं की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक स्थिति को उघाड़ता है. यह स्थितियाँ हमारे समाज का कड़वा यथार्थ है जिससे मुख्यधारा का सिनेमा अछूता रहा है.
लक्ष्मी अपना पेट भरने के लिए जमींदार के यहाँ चाकरी करती है और अपने पति किस्तिया के लिए अक्सर भोजन चुराकर लाती है. किस्तिया की भूमिका साधू मेहर ने अभिनीत की है . वह दारू पीकर रात को घर आता है और पत्नी से सम्बंध बनाता है. यह इस बात का संकेत है कि वैवाहिक संबंधों से उपजा एक खास सुख भी स्त्री के लिए किसी अत्याचार को सहने से कम नहीं. सेक्स एक सृजनात्मक शक्ति है उसमें प्रेम का अभाव हिंसा और कुंठा पैदा करता है. यही कुंठा सामंतवादी समाज में बिखरी पड़ी है जहां स्त्री की इच्छा या उसके मन का कोई महत्व नहीं और सेक्स केवल शरीर के क्षणिक आवेग को मिटा लेने का जरिया भर है. बेनेगल इस यथार्थ को पर्दे पर पूरी ईमानदारी से उतारते हैं.
  किस्तिया सुन और बोल नहीं सकता वह लापरवाह किस्म का खीजा हुआ व्यक्ति है जिसकी रुचि किसी काम में नही है. वह ताड़ी चुराकर पीता है एक बार शराब चुराते वक़्त वह पकड़ लिया जाता है . सजा के तौर पर उसके बाल मुंडवाकर उसे गधे पर उल्टा बैठाकर उसकी सवारी निकाली जाती है और मजाक उड़ाया जाता है . आज भी भारत के सुदूर क्षेत्रों में इस तरह की घटनाएं सुनने को मिलती हैं. इस प्रकरण के बाद किस्तिया गांव छोड़कर चला जाता है.
किस्तिया के चले जाने के बाद सूर्या लक्ष्मी की ओर आकर्षित होता है और उनके बीच शारीरिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं . सूर्या की यह चाहना संक्षिप्त है उसमें देह और प्रेम दोनों का आकर्षण है लेकिन स्त्री के लिये आश्रय का आदान-प्रदान नहीं है . इसलिये जब लक्ष्मी गर्भवती हो जाती है तो वह उसे कहीं और चले जाने को कहता है. गरीब लक्ष्मी के लिए मातृत्व ‘सुख की अनुभूति’ की जगह संघर्ष और अपमान को लेकर आता है. वह बच्चे को अकेले पालने का निर्णय लेती है. इस तरह लक्ष्मी के गर्भ से विरोध का अंकुर फूटता है यही इस फ़िल्म का सार है . लक्ष्मी के इस निर्णय को आप ‘सिंगल मदर’ के आलोक में भी देख सकते हैं .


फ़िल्म का एक बेहद साहसी दृश्य है जहां पति-सुख नहीं मिलने के कारण एक औरत रुकम्मा किसी दूसरी जाति के पुरूष से संबंध स्थापित कर लेती है . लेकिन, पंचायत रुकम्मा को अपने पति के साथ रहने का हुक्म देती है और तकरीर देती है कि ‘औरत मर्द की ही नहीं घर की भी होती है, खानदान और जात-पात वालों की भी होती है’ !!! तो कुल मिलाकर सामंतवाद स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारता है और स्थापित करता है कि स्त्री किसी भी जाति हो वह भोग्या है; उसका अस्तित्व धर्म, जाति और पितृसत्ता से स्वतंत्र नहीं हो सकता.
अंकुर फ़िल्म में लक्ष्मी ‘व्यवस्था से विरोध’ का प्रतीक है. वह प्रत्येक अवसर पर अपने पति को दुत्कारे जाने का प्रतिकार करती है. सामंती ताकत के आगे झुकने वाली लक्ष्मी उस व्यवस्था से संघर्ष भी करती है और बेख़ौफ़ होकर सूर्या से कहती है कि वह बच्चे को अकेले पालेगी. श्याम बेनेगल की यह फिल्म सामंती व्यवस्था पर प्रश्न उठाती है, उसके अमानवीय तौर-तरीकों पर चोट करती है और प्रछन्न रूप से नूतन राजनीतिक चेतना को प्रस्तावित भी करती है.  फ़िल्म का अंतिम दृश्य है जहां एक बच्चा जमींदार के घर पर एक पत्थर फेंककर मारता है और खिड़की का काँच टूट जाता है . कांच का टूटना जड़ व्यवस्था की टूटन का संकेत है.
फिल्म के संवाद बेहद प्रभावी हैं जिन्हें सत्यदेव दूबे ने लिखा है जो मूल रूप से दक्खिनी हिन्दी में हैं. फिल्म का संगीत वनराज भाटिया का है जिन्होने श्याम बेनेगल की अधिकाश फिल्मों में संगीत दिया है . वनराज को तमस ( 1988) के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है . अंकुर ने कई पुरस्कार जीते. ब्लेज़ फिल्म इंटरप्राइजिस की इस फिल्म को उस वर्ष की दूसरी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. शबाना आजमी और साधू मेहर को इसी फिल्म के लिए क्रमश: सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री और अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. यह शबाना आज़मी और अनंत नाग की पर्दे पर आने वाली पहली फिल्म थी.
श्याम बेनेगल ने पात्रों की यथार्थता बनाए रखने के लिये कई बार गैर-पेशेवर कलाकारों को भी अपनी फिल्मों में जगह दी थी .अंकुर में इन्स्पेक्टर का चरित्र निभाने वाले श्याम बाबू भी ऐसा ही एक चयन था . इस फिल्म के जरिये श्याम बेनेगल ने न केवल सिनेमा की एक उम्दा किस्म की नींव रखी बल्कि सीमित संसाधनों में अच्छे और लोकप्रिय सिनेमा की कल्पना को भी साकार किया