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एक आर्टिस्ट के लिए खुद को प्रूव करना भी बड़ा आर्ट है: अमरेंद्र श्रीवास्तव (Amrendra Srivastava)

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रंगों की दुनिया का अपना एक अलग ही आकर्षण होता है. रंगों के बगैर दुनिया का सौंदर्य शायद ही अपने असल स्वरुप में होता. और बात अगर सिनेमा के रुपहले परदे की करें तो वहां रंगों का महत्त्व खुद बखुद दोगुना हो जाता है. बड़े परदे पर दिख रहे किरदार तब और खिल कर सामने आते हैं जब उनके पीछे की दुनिया की साज-सज्जा नयनाभिराम हो. और ये काम सिनेमा की दुनिया में आर्ट डायरेक्टर का होता है. ऐसे में किसी फिल्म के एक-एक सीन को दर्शकों की आँखों में उतरने लायक बनाने वाले आर्ट डायरेक्टर के काम का अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं. भूमिका भले परदे के पीछे की हो पर असर परदे के सामने दिखता है, वो भी अपने श्रेष्ठम स्वरुप में. कुछ ऐसे ही संसार की वर्षों से रचना कर रहे आर्ट डायरेक्टर अमरेंद्र श्रीवास्तव (Amrendra Srivastava) ने फिल्मेनिया के गौरव से बातचीत में परदे के पीछे की उस अकूत मेहनत को परत दर परत खोल कर रख दिया.


सबसे पहला सवाल तो ये रहेगा कि भारतेन्दु नाट्य अकादमी का पासआउट अभिनेता आगे जाकर आर्ट डायरेक्टर बन जाता है, यह कैसे हो गया ?

– इसके पीछे की कहानी भी काफी बड़ी है, कई सारे अलग-अलग ट्विस्ट्स हैं.

हमें भी कोई जल्दबाजी नहीं है, सुकून से बताएं.

– जन्म सीतापुर यूपी में हुआ. बचपन से ड्राइंग को लेकर पैशनेट था. कागज़ पर आकृतियां उकेरना, कागज और गत्तों से मॉडल्स बनाना, झांकियों में आर्ट वर्क करना जैसे काम शुरू से आकर्षित करते. हां तब यह बिलकुल नहीं पता था कि यह काम प्रोफेशन भी दिला सकता है. ना मुझे ना घरवालों को. सो उनकी ओर से लाजिमी सा रिएक्शन रहता बड़े होकर सड़क की पुताई करना है क्या ! तो यह काम पढ़ाई के आगे सेकेंडरी हो गया. अब पढ़ाई-लिखाई में इतना औसत था कि इंटरमेडिएट में फेल हो गया. नतीजा पिताजी ने अपने एक जाननेवाले के टीवी रिपेयर सेंटर पर बिठा दिया. मन वहां भी नहीं लगा तो हारकर पिताजी ने छोड़ दिया कि अब तुम्हें जो करना है करो. फिर मैं कुछ ट्यूशन वगैरह पढ़ाने लगा ताकि खर्च निकल सके. उसी वक़्त मुझे सीतापुर में ही एक आर्टिस्ट बृजेश गुप्ता जी का सानिध्य मिला. उनसे प्रोफेशनल आर्ट सीखने के दौरान ही उनके कहने पर मैंने अपनी इंटर की पढ़ाई भी पूरी की. फिर आगे ड्राइंग में बैचलर और मास्टर्स करने के ख्याल से आर्ट कॉलेज में इंट्रेंस दिया. पर दुर्भाग्यवश मेरा सिलेक्शन नहीं हुआ. कुछ लोगों से जानकारी मिली कि डीएवी कानपूर में ड्राइंग से मास्टर्स की सुविधा है तो वहां पहुंच गया. वहां से मैंने फाइन आर्ट्स में बैचलर और मास्टर डिग्री ली. इसी बीच अपने गुरु अभय द्विवेदी जी की प्रेरणा से मैंने कानपुर में ही दर्पण थिएटर ग्रुप ज्वाइन कर लिया था. तो दिन में फाइन आर्ट्स और रात में थिएटर. ये सिलसिला चलता रहा. वहां से निकलने के बाद अपने एक बैचमेट मोहन वर्मा की वजह से मुझे लखनऊ में MAAC (एनीमेशन) में जॉब मिल गया. MAAC में जॉब का सबसे बड़ा फायदा ये हुआ की मुझे पढ़ाने के साथ-साथ सिनेमा की गतिविधियां जानने का अवसर भी मिल गया. स्टोरी बोर्ड, कैरेक्टर स्केच जैसे शब्दों से मेरा पाला पड़ा. इसी बीच कानपुर में मेरा एक थिएटर बैचमेट था सौरभ गुप्ता. उसने बीएनए (भारतेन्दु नाट्य अकादमी ) के लिए अप्लाई किया तो साथ में मेरा भी फॉर्म फील कर दिया. संयोग देखिये वहां मेरा स्कॉलरशीप में सिलेक्शन हो गया. यहां से मेरी राहें सिनेमा की ओर मुड़ चली. बीएनए से ही सत्यजीत रे फिल्म इंस्टिट्यूट जाने का मौका मिला. हर जगह आर्ट बैकग्राउंड होने का एडीशनल फायदा भी मिलता रहा. और इसी सफर ने एक रोज मुंबई पंहुचा दिया. पर अकादमी में पढ़ाई के दौरान एक बात समझ आने लगी थी कि अभिनय के बजाय आर्ट फील्ड मुझे ज्यादा आकर्षित करने लगा था.

अब रुख मुंबई की ओर करते हैं, सफर की शुरुआत कैसी रही ?

– मुंबई पहुंचने पर कॉलेज के सीनियर्स जो वहां पहले से थे उनका काफी सहयोग मिला. उनका साथ ही था जो मुझे यह फील ही नहीं हुआ जैसे मैं पहली बार मुंबई आया हूं. हां काम के लिहाज से काफी समय निराशाजनक रहा. पहले तो समझ ही नहीं आता कि कहां जाऊं, किनसे मिलूं, किससे काम मांगू ? बस अपने सीनियर्स को देखकर थोड़ी हिम्मत आती रही. कुछ महीनों बाद एक आर्ट डायरेक्टर संजय यादव जो मेरे सीनियर रह चुके थे उनसे मिला. वो भी अपने शुरूआती दौर में ही थे. उन्होंने कहा मेरे पास भी बहुत काम तो नहीं है पर खर्च निकलने लायक हो सकता है. मुझे तो बस कुछ काम चाहिए था सो हां बोल दिया. पर दिल तब बैठ गया जब उनके भेजे गए जगह पर मुझे सेट पर झाड़ू लगाने और सोफे-कुर्सी हटाने का काम मिला. तब लगा अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर कहां झाड़ू लगाने आ गया. पर संजय दादा ने काफी हौसला बढ़ाया. चार-छह महीने बाद दादा के सहयोग से ही एक पंजाबी गाने के शूट में आर्ट का काम मिला. फिर मुझे दादा के साथ कई जगह काम का मौका मिला.

Amrendra

इस बीच कभी अभिनय के कीड़े ने उबाल नहीं मारा ?

– कुछ समय बाद मैंने एक टीवी सीरियल में अभिनय भी किया. छोटा सा किरदार ऑफर हुआ तो वो कर लिया पर कुछ ही वक़्त में वापस अपने रास्ते लौट आया.

आपने अभिनय और आर्ट डायरेक्शन दोनों काम किया है, क्या अंतर पाते हैं?

– (हँसते हुए) इस बात को लेकर अक्सर एक्टर फ्रेंड्स से लड़ाई होती रहती है कि किनका काम ज्यादा आसान है. देखिये काम तो सबका उतना ही महत्वपूर्ण है पर जहां तक अभिनेता की बात है तो उनका काम निखारने के लिए कई सारी बातें काम करती हैं, मसलन राइटर, डायरेक्टर, मेकअप, लाइट, कैमरा और भी कई चीजें तब जाकर उनका काम निखर कर आता है. हमें थॉट प्रोसेस से लेकर इम्प्लीमेंट तक सबकुछ खुद ही साबित करना पड़ता है. बावजूद इसके अपने पहचान की लड़ाई भी लड़नी पड़ती है. ईमानदारी से कहूं तो हम आर्टिस्ट्स को खुद को प्रूव करना भी एक बड़ा चैलेंजिंग आर्ट है.

आगे का सफर कैसा रहा ?

– छोटे-छोटे काम का सफर तो लंबा चला. पर कुछ वक़्त बाद इंडिपेंडेंट काम मिलने लगे. फिर तकरीबन दर्जन भर शार्ट फिल्में, कई ऐड्स किये. इस बीच रामु जी ( राम गोपाल वर्मा ) की वीरप्पन में अभिनय का भी मौका मिला. एक पंजाबी फिल्म सहर में इंडिपेंडेंट आर्ट डायरेक्शन का काम किया. इसके अलावा दो फिल्मों अश्वस्थामा और रामराज्य में भी इंडिपेंडेंट आर्ट डायरेक्शन का काम किया. तो बस सफर जारी है.