बातचीत: गौरव
सालों के अथक प्रयास का फल जब बड़े सफलता के रूप में मिलता है तो फल का स्वाद और भी ज्यादा मीठा लगने लगता है. ऐसे ही फल कर रसास्वादन आजकल कर रहे हैं पंचायत के दूसरे सीजन से चर्चा में आए विनोद जी उर्फ अशोक पाठक (Ashok Pathak). लैट्रिन की सीट के लिए जद्दोजहद करते सीरीज के छोटे से किरदार में अशोक जब-जब स्क्रीन पर आए देखने वालों के चेहरे पर एक अलग मुस्कुराहट दे गए. विनोद के किरदार में ऐसे समाये कि हर देखने वालों को वह किरदार अपने आस-पड़ोस का रहने वाला विनोद ही लगा. नतीजा, लोगों ने भी उस छोटे से किरदार पर दिल खोलकर अपना प्यार लुटाया. अशोक का संघर्ष भी सिनेमा में उनके योगदान की फेहरिस्त जितना ही लंबा है. पर काम के प्रति समर्पण ही है जो ऐसे छोटे किरदार को भी अशोक ने लोगों का चहेता बना दिया.
– सबसे पहले तो बहुत-बहुत बधाई. अब तो आम लोगों के बीच आप की तलाश बढ़ गई है कि आखिर कौन है यह विनोद ? कैसी चल रही है पंचायत के बाद जिंदगी.
– बहुत-बहुत धन्यवाद गौरव भाई. क्या कहूं, निशब्द हूं. लोगों के इतने प्यार भरे मैसेजेस और कॉल आ रहे हैं जिन्हें पढ़-सुनकर कई बार भावुक हो जा रहा हूं. आलम यह है कि पंचायत की रिलीज के बाद रोजाना जितने कॉल आ रहे हैं इतने तो पिछले कुछ सालों में मैंने अटेंड नहीं किए.
– यही तो है आपकी सालों की तपस्या का फल. पंचायत में आप की एंट्री वाकई ताजा हवा के झोंके सी थी. कैसे पहुंचे आप फुलेरा पंचायत तक ?
– आम दर्शकों की तरह मैं भी पंचायत के पहले सीजन का दीवाना था. पर मुझे पंचायत में कोई किरदार मिल जाएगा यह मैंने नहीं सोचा था. मुझे एक दोस्त के जरिए ऑडिशन का पता चला. ऑडिशन दिया तो सेलेक्ट भी हो गया. फिर मुझे किरदार को लेकर जी थोड़ी-बहुत ब्रीफिंग दी गई उसके आधार पर मैंने उस पर मेहनत करनी शुरू कर दी.
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– आपके कामों की फेहरिस्त काफी लंबी है, पर ऐसे फेम के लिए इतना लंबा इंतजार कितना खलता है ?
– हर आर्टिस्ट की अपनी जर्नी होती है. बेशक किसी को कामयाबी जल्दी मिल जाती है और किसी का इंतजार काफी लंबा हो जाता है. पर यह सब हमारे हाथ में नहीं होता. हमारे हाथ में जो है बस इतना कि ईमानदारी से मेहनत किए जाओ. जो मैं पहले दिन से कर रहा हूं. चाहे किरदार एक पल का हो या दस मिनट का, मेहनत मैं खुद को मुख्य किरदार समझ कर ही करता हूं.
– बिहार से माइग्रेंट होकर हरियाणा में बसने का क्या किस्सा है ?
– मेरे पिताजी अपनी शादी से पहले ही काम की तलाश में बिहार छोड़कर हरियाणा जा बसे थे. फिर वही के होकर रह गए. मेरा पैदाइश हरियाणा की है और परवरिश भी वहीं हुई. हां बीच-बीच में छुट्टियों में बिहार भी आना जाना होता था. इसका एक फायदा यह हुआ कि मैं दोनों ही कल्चर से रूबरू होता रहा. जो अब काम आ रहा है.
– पढ़ाई से पीछा छुड़ाने के लिए कम उम्र में ही नौकरी तलाशने वाला लड़का अभिनय की दुनिया में कैसे शामिल हो गया ?
– कहानी थोड़ी लंबी है, पर सच पूछिए तो यह भी पढ़ाई की दुनिया से दूर रहने के ख्याल से ही शुरू हुआ. पढ़ाई में मैं शुरू से ही औसत से भी नीचे रहा हूं. पहले ही पढ़ाई से भागने के लिए छोटे-मोटे काम करना शुरू कर दिया था. जैसे-तैसे दोस्तों की जिद पर ग्रेजुएशन तक पंहुचा. वहीं जाट कॉलेज हरियाणा में ग्रेजुएशन के दौरान मेरा संपर्क थिएटर से हुआ. वहां भी संयोग ऐसा बना कि जिस प्ले के लिए पहली बार मेरा सिलेक्शन एक छोटे से किरदार के लिए हुआ उसमें रिहर्सल के दौरान एक दिन मुख्य किरदार की अनुपस्थिति की वजह से मुझे उस किरदार के रिहर्सल का मौका मिल गया. और उस एक दिन में मेरी परफॉर्मेंस से प्रभावित होकर निर्देशन ने मुझे प्ले का मुख्य किरदार थमा दिया. बस एक वह दिन था और एक आज का दिन. उस दिन से मेरी दुनिया ही बदल गई. थिएटर की दुनिया इतनी रास आने लगी कि जो इंसान कोर्स की किताब से दूर भागता था वह नाटकों की मोटी-मोटी स्क्रिप्ट्स को रट्टा मारने लगा. कुछ ही सालों में मैं जाट कॉलेज का बेस्ट एक्टर बन चुका था. कई अवॉर्ड्स इंडिविजुअली भी मिले. कॉलेज को भी राष्ट्रीय स्तर का अवार्ड दिलवाया.
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– बीएनए (भारतेंदु नाट्य अकादमी) लखनऊ तक कैसे पहुंचना हुआ ?
– एनएसडी में रिजेक्शन से काफी टूट गया था. खूब रोया भी था. वजह भी थी. कॉलेज में मिलती वाहवाही से लगने लगा था कि एनएसडी तो मेरे जैसे अभिनेताओं के लिए ही है. उसे तो आसानी से क्लियर कर लूंगा. परएनएचडी में चयन न होने से मुझ पर जैसे गाज गिर गई. वह भी एक बार नहीं दो-दो बार रिजेक्ट हुआ. लगा जैसे सब खत्म हो गया. उसी दौरान इत्तेफाकन बीएनए के एक सीनियर से संपर्क हुआ जिनसे पता चला कि बीएनए में भी पढ़ाई के दौरान स्कॉलरशिप मिलता है. मैंने अप्लाई किया और 2007 में मेरा चयन बीएनए में हो गया. – बीएनए में रहते हुए ही आपने अपनी पहली फिल्म कर ली थी. – जी, लखनऊ में ही उस फिल्म (रुद्रा-द राइजिंग) की शूट होनी थी. वहां ऑडिशन लिया जा रहा था. मैंने भी ऑडिशन दिया और मेरा सिलेक्शन हो गया. वहां भी किरदार छोटा था. पर शूट के दौरान निर्देशक मेरे काम से इतने इंप्रेस हुए कि फिल्म के आखिरी सीन में मेरा छह मिनट का सिंगल शॉट रख दिया, जिसकी काफी तारीफ भी हुई.
– बीएनए का सफर मुंबई तक कैसे पहुंचा ?
– बीएनए के बाद मुंबई जाने के बजाए मैं वापस हरियाणा आ गया. जेब में पैसे थे नहीं तो मुंबई जाने की सोच भी नहीं रहा था. हरियाणा पहुंचकर मैंने कमर्शियल थिएटर करना शुरू कर दिया. कमर्शियल थिएटर में भी तब पैसे का यह आलम होता था कि महीनों खून जलाने के बाद जेब में कुछ भी नहीं बचता. फिर कॉलेज में ही एक नाटक निर्देशित करने का मौका मिल गया जिसके एवज में ₹40000 मिले. वह 40000 और पिता जी से मिले 5000 लेकर मैंने मुंबई की ट्रेन पकड़ ली.
– मुंबई में कैसे इस्तकबाल किया ?
– अरे यह कहानी तो पूछिए ही मत. मुंबई का पहला दिन ही यादगार हो गया था. कुछ दोस्तों की मेहरबानी से पहले दिन ही बड़े लफड़े में फंस गया. बड़ी कुटाई की नौबत आ गई. कुछ दोस्त तो पिट भी गए पर मैं किसी तरह वहां से भाग निकला. फिर जाड़े की वह घनघोर बारिश वाली रात यहां-वहां जैसे तैसे कटी. लगा आगाज ही यह है तो अंजाम जाने कैसा होगा. पर यह भी एक अनुभव ही रहा. हां, अच्छी बात यह हुई कि पहुंचने के तीसरे दिन ही एक बड़े ऐड शूट में काम मिल गया. और गाड़ी चल निकली. फिर संघर्षों का एक लंबा दौर चलता रहा. काम तो मिलते रहे पर हमेशा यह खलता रहा कि अपने शहर में लीड एक्टर से परचम लहराने वाला मैं मुंबई में कैसे साइट कैरेक्टर्स की भीड़ में खोता जा रहा था. कैरेक्टर को लेकर एप्रिसिएशन तो मिलता पर किरदार की लंबाई नहीं बढ़ती. बावजूद इसके अपने क्राफ्ट पर इतना भरोसा था कि जानता था आज नहीं तो कल दुनिया मेरी प्रतिभा पहचानेगी.
– और फिर पंचायत ने वह एक मौका मुहैया करा दिया ?
– बिल्कुल. मैं हमेशा से अल्केमिस्ट की उस लाइन का मुरीद रहा हूं कि भले हमें कोई चीज आसानी से मिल सकती है पर उसे पाने की असली ख़ुशी हमें तब तक महसूस नहीं होती जब तक उस तक पंहुचने का रास्ता मेहनत से भरा न हो. उम्मीद है अब फिल्ममेकर मुझे लेकर कुछ अलग सोच बनाएंगे. अभी तो बस लोगों का प्यार समेट रहा हूं.
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